देवी योगमाया का उल्लेख महाभारत में आता है…कहीं पर उनको विन्ध्यवासिनी देवी का अवतार बताया जाता है, कहीं पर भगवान विष्णु की पराशक्ति…हम किसी निष्कर्ष पर पहुँचे बगैर इस विषय को लेकर अलग – अलग तथ्य आपके सामने रख रहे हैं…कहा जाता है कि कंस के हाथ से छूटकर कृष्ण की रक्षा करने वाली देवी योगमाया थीं और विन्ध्यवासिनी देवी का अवतार थीं, बाद में इन्होंने कृष्ण की सहायता के लिए सुभद्रा के रूप में रोहिणी के गर्भ से जन्म लिया …आइए जानते हैं..इस विषय पर अलग – अलग तथ्य़ –
हमने अक्सर ये कथा सुनी है कि भगवान श्री हरि विष्णु क्षीर सागर मे निद्रा में मग्न रहते हैं। तो फिर प्रश्न यही उठता है कि जगत के पालनहार जब निद्रा में ही रहते हैं तो फिर इस जगत का पालन कैसे करते हैं। कौन है वह शक्ति जिसके माध्यम से विष्णु शयन करते हुए भी इस सृष्टि का पालन करते हैं। मार्कण्डेय पुराण और श्री दुर्गा सप्तशती के प्रथम अध्याय में इस शंका का निवारण किया गया है।
कथा यह है कि जब विष्णु के कानों के मैल से मधु और कैटभ नामक दो महादैत्य प्रकट होते हैं और ब्रम्हा को मारने के लिए आगे बढ़ते हैं तो ब्रह्मा किन्ही योगमाया शक्ति का आह्वान करते हैं।ब्रह्मा उन योगमाया शक्ति का आह्वान करते हुए कहते है कि हे योगमाया आपने विष्णु को निद्रा में सुला रखा है । आपने ही उन्हें इस प्रकार विमोहित कर रखा है कि वो संसार को लय में जानकर संसार के पालन से विमुख हो गए हैं। ब्रह्मा उन योगमाया देवी की स्तुति करते हुए उन्हें अर्धमात्रा स्थिता, जगत का आधार और संसार का पालन करने वाली माया शक्ति के रुप में संबोधित करते हैं।
ब्रह्मा कहते हैं कि हे योगमाया तुम्हारी माया के प्रभाव से ही इस संसार की उत्पत्ति, पालन और संहार का कार्य होता है। आपने ही इस चराचर जगत के हरेक प्राणी को विमोहित कर रखा है । आपके ही प्रभाव से सभी दुखो, सुखों का अनुभव करते हैं। हे देवी आप विष्णु के हदय में वास करती हैं । कृपा करके आप विष्णु को उनकी निद्रा से मुक्त करिए और मधु कैटभ के वध का माध्यम बनिए। ब्रह्मा की स्तुति से पश्चात योगमाया विष्णु के नेत्रों, नासिका और हृदय से निकलती हैं।
योगमाया जिस स्वरुप में निकलती हैं उसका श्री दुर्गा सप्तशती में अद्भुत वर्णन है। वो महाकाली का वो स्वरुप हैं जिनकी दश भुजाएं और दश पैर हैं। वस्तुत: महाकाली ही महामाया के रुप में विष्णु को विमोहित करती हैं और विष्णु को निद्रा में सुला कर खुद संसार का पालन कार्य करती हैं। योगमाया शक्ति का वर्णन द्वापर युग में भी उस वक्त आता है जब वो कृष्ण की बहन के रुप में अवतरित होती हैं और जब कंस उनका वध करने का प्रयास करता है तो वो उसके हाथो से निकल कर उसे शाप देती हैं कि उसे मारने वाला पैदा हो चुका है। इसके बाद योगमाया के शरीर जिसे कंस ने कारागार की दिवारों पर फेंका था उसका धड़ विंध्याचल में जा गिरता है और सिर वर्तमान दिल्ली के महरौली स्थित योगमाया मंदिर में जा गिरता है। इन दोनों ही स्थानों पर योगमाया के सिद्ध मंदिर हैं ।
द्वापर में द्रौपदी को भी माध्यम बना कर महाकाली प्रगट होती हैं और कौरवो के वध का माध्यम बनती हैं। योगमाया महाकाली का वो स्वरुप हैं जिससे इस सृष्टि का पालन कार्य होता है। ये विष्णु की परा और अपरा दोनों ही शक्ति मानी गई हैं। विष्णु इनकी शक्ति के बिना उसी तरह से निष्क्रिय हो जाते हैं जैसे शिव महाकाली की शक्ति के बिना शव हो जाते हैं। योगमाया शक्ति महाकाली की वो शक्ति हैं जो हमारी इच्छाओं को नियंत्रित करती हैं। हम जिस भी प्रकार के मोह में बंधे होते हैं वो योगमाया शक्ति की वजह से ही होते हैं।
भगवान की अचिन्त्य शक्ति का नाम ‘योगमाया’ या ‘महामाया’ है । ‘अचिन्त्य’ का अर्थ होता है अचिंतनीय (unthinkable) । भगवान की लीला के लिए पहले से ही मंच, पात्र आदि तैयार कर देना, संसारी जीवों के सामने भगवान की भगवत्ता को छुपा कर रखना आदि काम योगमाया ही करती हैं ।
जब भी हम भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं को पढ़ते हैं तो अक्सर योगमाया का नाम आता है । प्रश्न यह है कि ये योगमाया या महामाया कौन हैं ?
भगवान की ऐश्वर्य-शक्ति है योगमाया
योगमाया भगवान की अत्यन्त प्रभावशाली वैष्णवी ऐश्वर्य-शक्ति है जिसके वश में सम्पूर्ण जगत रहता है । उसी योगमाया को अपने वश में करके भगवान लीला के लिए दिव्य गुणों के साथ मनुष्य जन्म धारण करते हैं और साधारण मनुष्य से ही प्रतीत होते हैं । इसी मायाशक्ति का नाम योगमाया है ।
भगवान जब मनुष्य के रूप में अवतरित होते हैं तब जैसे बहुरूपिया किसी दूसरे स्वांग में लोगों के सामने आता है, उस समय अपना असली रूप छिपा लेता है; वैसे ही भगवान अपनी योगमाया को चारों ओर फैलाकर स्वयं उसमें छिपे रहते हैं । साधारण मनुष्यों की दृष्टि उस माया के परदे से पार नहीं जा सकती; इसलिए अधिकांश लोग उन्हें अपने जैसा ही साधारण मनुष्य मानते हैं ।
गीता (७।२५) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—‘मैं सबके सामने प्रकाशित क्यों नहीं होता, लोग मुझे पहचानते क्यों नहीं ? क्योंकि मैं योगमाया से अपने को ढका रखता हूँ ।’ भगवान की लीला का आयोजन योगमाया ही करती है । भगवान की लीला के लिए पहले से ही मंच, पात्र आदि तैयार कर देना, संसारी जीवों के सामने भगवान की भगवत्ता को छुपा कर रखना आदि काम योगमाया ही करती हैं । यह योगमाया शक्ति वही है, जिसे परमब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण ने व्रज में स्वयं अवतरित होने से पूर्व ही अपनी लीला के सम्पादन के लिए भूतल पर भेज दिया था । गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण ने योगमाया को आदेश दिया–
‘गच्छ देवि व्रजं भद्रे गोपगोभिरलंकृतम् ।’
अर्थात्—हे देवि ! आप ग्वालों और गौओं से सुशोभित व्रज में जाओ और मेरा कार्य-संपादन करो (श्रीमद्भागवत १०।२।७) ।
तब योगमाया ने पूछा—‘भगवन् ! यह व्रज कहां है और वहां क्या करना है ?’
भगवान ने कहा—‘देवि ! व्रज-भूमि मेरी अपनी निज भूमि है । मैं अजन्मा होते हुए भी व्रज में जन्म लेता हूँ । नित्य तृप्त होते हुए भी व्रजांगनाओं की छछिया भर छाछ पीने के लिए उनके इशारों पर नाचता हूँ । व्रजवासियों की रूखी-सूखी, ‘अरे’, ‘ओरे’ की बोली (भाषा) मुझे वेद की स्तुति से भी अधिक प्रिय है । मैं परमेश्वर, सर्वेश्वर हूँ; परन्तु वात्सल्यमयी मां यशोदा मुझे प्रेम की डोरी से लपेट कर बांध देती हैं । उसी व्रज के व्रजराज श्रीनन्दबाबा के घर में उनकी धर्मपत्नी यशोदा के गर्भ से तुम्हें कन्या के रूप में प्रकट होना हैं और मैं अपने समस्त ज्ञान, बल, आदि अंशों के साथ देवकी का पुत्र बनूंगा ।’
भगवान की आज्ञा पाते ही भगवती योगमाया जब व्रजमण्डल में पधारीं, तब श्रीकृष्ण ने उन्हें यह वरदान दिया कि—
‘सभी लोग तुम्हें देवी मानकर तुम्हारे नाम और स्थान पर मन्दिर बनाएंगे । व्रज में दुर्गा, भद्रकाली, विजया, वैष्णवी, कुमुदा, चण्डिका, कृष्णा, माधवी, कन्यका, माया, नारायणी, ईशानी, शारदा, अम्बिका आदि नामों से तुम विख्यात होओगी । तुम लोगों को मुंहमांगे वरदान देने में समर्थ होओगी । तुम्हें अपनी समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाली जानकर भक्त घनघोर शब्द करने वाले घण्टों, लम्बी-लम्बी लाल-पीली-केसरिया ध्वजाओं से एवं गन्ध, अक्षत, फल, फूल, धूप-दीप, मिष्ठान्न, श्रीफल नारियल, भेंट आदि विभिन्न सामग्रियों से तुम्हारी पूजा करेंगे क्योंकि आप ही सर्वकाम वरप्रदायिनी हैं ।’ (श्रीमद्भागवत १०।२।१०-१२) इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी लीलाओं के सृजन और विस्तार के लिए योगमाया को रंगमंच तैयार कराने का आदेश दिया ।
भगवान श्रीकृष्ण की बहन हैं योगमाया
कंस का कारागार, भाद्रप्रद कृष्ण अष्टमी की अर्धनिशा में जब श्रीकृष्णचन्द्र का प्राकट्य हुआ, तब वह चतुर्भुज रूप माता देवकी की प्रार्थना करने पर देखते-ही-देखते शिशु बन गया, बंदीगृह की बेड़ियां ताले स्वत: खुल गए । वसुदेवजी अपने उस हृदयघन को गोकुल में जाकर नन्दभवन में रख आए और यशोदाजी को जन्मी योगमाया को ले आए । जब कंस उस कन्या का वध करने के लिए शिला पर पटक रहा था, तब वे योगमाया कंस के हाथ से छूट कर गगन में अष्टभुजा हो गईं । उनके हाथ में धनुष, त्रिशूल, बाण, ढाल, तलवार, शंख, चक्र और गदा—ये आठ आयुध थे ।
उस समय योगमाया ने कंस से कहा—‘तेरे पूर्वजन्म का शत्रु तुझे मारने के लिए किसी स्थान पर पैदा हो चुका है ।‘
इस प्रकार कह कर वे वहां से अन्तर्ध्यान हो गईं ।
वे ही परमात्मा श्रीकृष्ण की पराशक्ति योगमाया पवित्र भारतभूमि के चारों ओर अनेक नाम व रूपों से निवास कर रहीं हैं । जैसे—
—उत्तर में जम्मू-कश्मीर में वैष्णवी (वैष्णोदेवी)
—पूर्व में असम में कामाख्यादेवी
—दक्षिण में तमिलनाडु में कन्यका (कन्याकुमारी)
—पश्चिम में गुजरात में अम्बिका (अम्बामाता) ।
ये प्रसिद्ध सिद्ध पीठ आज भी भारतवर्ष की चारों दिशाओं में विद्यमान हैं ।
श्रीमद्भागवत के दशम् स्कन्ध में ‘श्रीरासपंचाध्यायी’ के आरम्भ में ही भगवान श्रीकृष्ण ने योगमाया शक्ति की उपासना की है–
भगवानपि ता रात्री: शरदोत्फुल्लमल्लिका: ।
वीक्ष्य रन्तुं मनश्चके योगमायामुपाश्रित: ।
वैसे तो भगवान सर्वसमर्थ हैं, परन्तु जब श्रीकृष्ण ने शरद् पूर्णिमा की धवल रात्रि में व्रजगोपियों के संग रास लीला की, तब वे रासेश्वरी श्रीराधारानी रूप योगमाया के पास गए; क्योंकि बिना योगमाया के रास नही हो सकता था । रस के समूह को ‘रास’ कहते हैं । ‘रस’ स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हैं; किन्तु रस को अनेक बनाकर ही रास हो सकता है । योगमाया ने इस रात्रि को छ: माह के बराबर कर दिया था; इसीलिए यह रासलीला लौकिक सृष्टि के स्तर से ऊपर थी । जीव और ईश्वर का मिलन ही रास लीला है ।
विद्वानों ने योगमाया के अनेक अर्थ किए हैं । जैसे—
भगवान से बिछड़े हुए संसारी जीवों का भगवान के साथ योग कराने, मिलाने के लिए भगवान के हृदय में जो कृपा है, वह योगमाया है ।
योगमाया है मुरली नाद ।
योगमाया श्रीराधारानी हैं ।
व्रज में योगमाया ‘मां कात्यायनी’ के नाम से जानी जाती हैं । व्रज में श्रीधाम वृन्दावन में श्रीराधा बाग स्थित केशवाश्रम में विराजमान मां कात्यायनी श्रीकृष्ण की कृपाशक्ति का ही नाम है । मनुष्य को यदि सौभाग्य, शोभा, सम्पत्ति की कामना हो तो उसे महामाया मां कात्यायनी का दर्शन, सेवा, पूजन, प्रणाम और भजन करना चाहिए । योगमाया मां कात्यायनी ने सभी के मनोरथ पूर्ण किए हैं ।
व्रज गोपियों ने मां कात्यायनी से अपना अभीष्ट वर मांगा—
कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि ।
नन्दगोपसुतं देवी पतिं मे कुरु ते नम: ।। (श्रीमद्भागवत, १०-२२-४)
अर्थात्—हे कात्यायनि ! हे महामाये ! हे महायोगिनि ! हे अधीश्वरि ! हे देवि ! नन्दगोपकुमार श्रीकृष्णचन्द्र को हमारा पति बना दीजिए । हम श्रद्धापूर्वक आपको प्रणाम करती हैं ।
महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यजी ने अपनी ‘सुबोधिनी’ टीका में लिखा है—‘मां कात्यायनी ! आप बड़े भाग वाली हैं, तभी तो भगवान ने आपको व्रज में यशोदाजी के गर्भ में प्रकट होने की आज्ञा दी है । आपको भगवान ने अपनी बहिन बना लिया और वह भी बड़ी बहिन; इसलिए आप महाभागा हैं । आप ही सुयोग बनाने वाली हैं । देवकी के सप्तम गर्भ का आकर्षण करके रोहिणीजी के गर्भ से संकर्षण रूप से प्रकट करने वाली योगिनी आप ही हैं । आप भगवान की अंतरंगा शक्ति है, भगवान पर अधिकार करके आप ही रखती हैं, क्योंकि आप अधीश्वरी हैं । अत: नंदगोपकुमार श्रीकृष्ण को हमारा पति बना दीजिए । कृष्णरूप फल प्रदान करने वाली देवी, हम आपको प्रणाम करती हैं ।’
दु:ख संतप्त मनुष्य का श्रीकृष्ण से अटूट सम्बन्ध कराने में जिनकी कृपा-शक्ति परम आवश्यक है, उन्हीं मां कात्यायनी का आश्रय लेकर मनुष्य परमात्मा श्रीकृष्ण की अविचल भक्ति प्राप्त कर सकता है और जन्म-जन्मान्तरों के कर्म-बंधनों को काटकर भगवान श्रीकृष्ण को प्राप्त कर सकता है ।
अब सुभद्रा के बारे में जानते हैं
श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा का उल्लेख हमें श्रीमद्भागवत पुराण और महाभारत में मिलता है। सुभद्रा श्रीकृष्ण और बलराम की बहन थी। पुरी, उड़ीसा में ‘जगन्नाथ की यात्रा’ में बलराम तथा सुभद्रा दोनों की मूर्तियां भगवान श्रीकृष्ण के साथ-साथ ही रहती हैं। जानते हैं उनके संबंध में खास बातें।
1. सुभद्रा वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी की पुत्री थीं, जबकि वसुदेव की की दूसरी पत्नी देवकी के पुत्र श्रीकृष्ण थे। इस तरह श्रीकृष्ण और सुभद्रा के पिता एक ही थे परंतु माताएं अलग अलग थी। बलराम की माता भी रोहिणी थी।
2. सुभद्रा का विवाह कृष्ण ने अपनी बुआ कुंती के पुत्र अर्जुन से किया था। , जबकि बलराम चाहते थे कि सुभद्रा का विवाह कौरव कुल में हो। बलराम के हठ के चलते ही तो कृष्ण ने सुभद्रा का अर्जुन के हाथों हरण करवा दिया था। बाद में द्वारका में सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह विधिपूर्वक संपन्न हुआ।
3. सुभद्रा से विवाह के बाद अजुन एक वर्ष तक द्वारका में रहे और शेष समय पुष्कर क्षेत्र में व्यतीत किया। 12 वर्ष पूरे होने पर वे सुभद्रा के साथ इंदप्रस्थ लौट आए।
4. सुभद्रा की तीन बहनें थी। पहली एकानंगा (यह यशोदा की पुत्री थीं), दूसरी योगमाया (देवकी के गर्भ से सती ने महामाया के रूप में इनके घर जन्म लिया, जो कंस के पटकने पर हाथ से छूट गई थी। कहते हैं, विन्ध्याचल में इसी देवी का निवास है। यह भी कृष्ण की बहन थीं। इसके अलावा चूंकि श्रीकृष्ण द्रौपदी को भी अपनी बहन मानते थे तो वह भी उनकी बहन हुई।
5. सुभद्रा का पुत्र अभिमन्यु था जिसकी महाभारत के युद्ध में चक्रव्यूह फंसने के कारण दुर्योधन, कर्ण सहित कुल सात आठ लोगों ने मिलकर निर्मम हत्या कर दी थी। अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा थी जिसके गर्भ से परीक्षित का जन्म हुआ और परीक्षित का पुत्र जनमेजय था।
(साभार – रिलिजन वर्ल्ड डॉट इन, वेबदुनिया. आराधिका डॉट कॉम )
(साभार – रिलिजन वर्ल्ड डॉट एवं आराधिका डॉट कॉम)