सुभद्रा से लेकर लक्ष्मी एवं दुर्गा तक के रूप में पूजित देवी एकानंशा

सनातन परंपरा की उपासना-पद्धति में संकर्षण यानी बलराम और वासुदेव कृष्ण के साथ एक देवी की संयुक्त उपासना का विवरण हमारे विभिन्न धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। इस देवी को पुराकाल में देवी एकानंशा के नाम से जाना जाता था। इन विभिन्न ग्रंथों में इन देवी के विवरण में भिन्नता तो है, किन्तु जिस बात पर सभी ग्रंथ सहमत हैं। वह है कि इनका जन्म गोकुल में नन्द बाबा के घर माता यशोदा के गर्भ से हुआ था। उधर माता देवकी के गर्भ से जब भगवान कृष्ण का जन्म हुआ तो वसुदेव ने बालक को कंस के कोप से बचाने के लिए नन्द गांव पहुंचा दिया। और बालक कृष्ण के बदले माता यशोदा की इसी पुत्री को ले जाकर कृष्ण की जगह कारागार में लाकर रख दिया था। जहां राजा कंस ने उसे वसुदेव की आठवीं संतान के भ्रम में मारने का प्रयत्न किया, किन्तु इस क्रम में यह बालिका उसके हाथ से छिटककर आकाश में अन्तर्धान हो गयीं। इसके बाद विवरण मिलता है कि यह देवी अष्टभुजी दुर्गा के रूप में विन्ध्याचल में प्रकट हुईं और विन्ध्यवासिनी के रूप में प्रसिद्द हुईं । प्रतिमा शास्त्र की पुस्तकों से विवरण मिलता है कि देवी एकानंशा कुषाणकाल से ही लोकप्रिय रहीं। आगे चलकर देवी एकानंशा की पूजा की यह परम्परा नामभेद के बावजूद आज भी प्रचलित है। एक मान्यता तो यह है कि भगवान जगन्नाथ की तीन मूर्तियों की बीच वाली प्रतिमा यही एकानंशा हैं जो आज देवी सुभद्रा के नाम से पहचानी जाती हैं। महाभारत, जैन ग्रंथ अंगविज्जा, वायुपुराण, ब्राह्मपुराण, विष्णुपुराण, विे्णुधर्मोत्तर पुराण, बअहत्संहिता, कौमुदी महोत्सव, अग्निपुराण, कूर्म पुराण, देवी भागवत, जैन हरिवंश पुराण, कथा सरित्सागर, ब्राह्मवैवर्तपुराण एवं स्कन्दपुराण जैसे ग्रंथों में इस देवी एकानंशा का उल्लेख मिलता है।
अब कंस के हाथों इस बालिका के बच जाने तक की कथा तो लगभग सभी ग्रंथों मे मिलती है। किन्तु उसके बाद की कथा में मत भिन्नता है। वैसे बहुप्रचलित कथा तो यही है कि वह बालिका देवी दुर्गा के रूप में आकाश में विलीन हो गयीं। किन्तु कुछ ग्रंथों के अनुसार यह कन्या यादव राजकुमारी के रूप में चिरकाल तक जीवित रहीं। वहीं वायु पुराण के अनुसार इनका विवाह ऋषि दुर्वासा से हुआ था। अलबत्ता हरिवंश में इन दोनों मतों का उल्लेख मिलता है। किन्तु जहां इस बात पर सभी ग्रंथ एकमत हैं कि श्रीकृष्ण विष्णु के तथा बलराम या संकर्षण शेषनाग के अवतार थे। वहीं देवी एकानंशा अलग अलग ग्रंथों में निद्रा, आर्या, कोटवती, योगनिद्रा, अविद्या या वैष्णवीमाया, भद्रकाली, उमा के देह से उत्पन्न, कमला, निशा या विभावरी, नारायणी माया या महामाया एवं पार्वती का अवतार मानती हैं। इनमें से हरिवंश, विष्णु तथा ब्राह्मपुराण जहां एकानंशा को निद्रा, आर्या या कोटवती जैसी लोकदेवी का अवतार मानती हैं। वहीं वैष्णव व भागवत संप्रदाय इन्हें वैष्णवी महामाया या लक्ष्मी का अवतार मानता है। बात शैवमत की करें तो यहां यह देवी भद्रकाली, उमा और पार्वती का अवतार मानी गयीं हैं। इस देवी के प्रतिमा स्वरूप की बात करें तो हरिवंश के अनुसार, हाथों में त्रिशूल, खड्ग, मद्यपान तथा कमल धारण करने वाली यह देवी चतुर्भुज हैं। इसी विन्ध्याचल वासिनी देवी ने कालांतर में शुम्भ और निशुम्भ का वध किया। तथा अपने इसी रूप में वह विन्ध्य पर्वत की अधिवासिनी के तौर पर पूजित हुईं । जहाँ इन्हें जंगलों एवं समुद्र में डाकुओं से रक्षा करने वाली लोकदेवी की मान्यता वनवासी समाज ने दिया। इनके रूप की बात करें तो यह भी माना गया है कि इनका वर्ण श्रीकृष्ण सा है किन्तु मुखारविन्द बलराम जैसा है। उनका ध्वज मोरपंखों का होगा तथा बलराम एवं श्रीकृष्ण के साथ-साथ वे देवराज इन्द्र की भी बहन कहलाएंगी। वैसे हरिवंश उनके एक ऐसे भी रूप का वर्णन करता है, जो पूर्णतया मानव रूप है। जिन्हें गोपकुमारी के तौर पर वृष्णिसंघ द्वारा पूजा गया। यादवों ने उन्हें यह विशेष सम्मान इसलिए भी दिया कि इन्होंने अपने जान की बाजी लगाकर श्रीकृष्ण को कंस के कोप से बचाया था।

गुप्तकालीन ग्रंथ कौमुदीमहोत्सव में इस देवी विन्ध्यवासिनी के लिए यदुवंशियों की कुलदेवी एकानंगा शब्द का प्रयोग हुआ है। इस नाटक में ही यह विवरण भी मिलता है कि इस देवी का एक मन्दिर पम्पासर में भी था जिसे ‘चण्डिकायतन’ के नाम से जाना जाता था। एक अन्य गुप्तकालीन ग्रंथ ‘बृहत्संहिता’ में इस देवी के जिन तीन रूपों का वर्णन मिलता है। उनमें से एक द्विभुज रूप है, दूसरा चतुर्भुज तो तीसरा अष्टभुज हैं। अपने द्विभुज स्वरूप में उनका बायां हाथ कटिविन्यस्त है और दूसरे हाथ में कमल है। चतुर्भुज रूप में उनके हाथों में कमल, पुस्तक, वर और अक्षमाला विद्यमान हैं। तो अष्टभुजा स्वरूप में देवी के पास कमण्डलु, चाप, कमल, पुस्तक, वर, बाण, दर्पण और अक्षमाला सुशोभित है। इन विवरणों से स्पष्ट है कि यहां देवी का पहला रूप जहां लक्ष्मी वाली परंपरा से इन्हें जोड़ती है वहीं अष्टभुजी स्वरूप देवी दुर्गा का द्योतक हैं। कुषाणकालीन एकानंशा की मूर्तियों में यह देवी द्विभुज हैं जिनके दाहिनी ओर मूसलधारी बलराम तो बायीं तरफ चतुर्भुज वासुदेव यानी श्रीकृष्ण विराजित हैं।

बिहार से मिली उत्तरकुषाणकालीन प्रतिमा इस मायने में अलग हैं कि इसमें तीनों प्रतिमाएं एक ही पत्थर पर उकेरी न होकर अलग-अलग बनी हैं। साथ ही ये प्रतिमाएं आकार में अब तक प्राप्त अन्य प्रतिमाओं से आकार में बड़ी हैं। माना जाता है कि सम्भवत: ये प्रतिमाएं स्वतंत्र रूप से पूजित रही होंगी। इस तरह से यह स्पष्ट है कि बलराम और श्रीकृष्ण के मध्य शोभित यह प्रतिमाएं ‘वृष्णिसंघ- सम्पूजिता’, ‘गोपकन्या’ तथा ‘बलदेव भगिनी’ वाली अवधारणा की परिचायक हैं। हरिवंश में तो एक स्थान पर बलराम और श्रीकृष्ण के बीच खड़ी एकानंशा को हाथ में सोने के कमल को धारण करने वाली पद्मालया लक्ष्मी के समान कहा गया है। इस तरह हम पाते हैं कि देवी सुभद्रा से लेकर लक्ष्मी और देवी दुर्गा तक के अनेक स्वरूपों में इन देवी एकानंशा का वर्णन हमारे धर्मग्रंथों में उपलब्ध हैं। साथ ही प्रतिमा शास्त्र और पुरातात्विक साक्ष्यों में भी उनके इन विभिन्न रूप दृष्टिगत हैं। अलबत्ता आज भले ही यह देवी अल्पज्ञात कही जा सकती हों किन्तु इतिहास के कुछ विशेष कालखंड में इन देवी का विशेष महत्व भी स्पष्ट परिलक्षित हैं।

(साभार – आलेखन)

शुभजिता

शुभजिता की कोशिश समस्याओं के साथ ही उत्कृष्ट सकारात्मक व सृजनात्मक खबरों को साभार संग्रहित कर आगे ले जाना है। अब आप भी शुभजिता में लिख सकते हैं, बस नियमों का ध्यान रखें। चयनित खबरें, आलेख व सृजनात्मक सामग्री इस वेबपत्रिका पर प्रकाशित की जाएगी। अगर आप भी कुछ सकारात्मक कर रहे हैं तो कमेन्ट्स बॉक्स में बताएँ या हमें ई मेल करें। इसके साथ ही प्रकाशित आलेखों के आधार पर किसी भी प्रकार की औषधि, नुस्खे उपयोग में लाने से पूर्व अपने चिकित्सक, सौंदर्य विशेषज्ञ या किसी भी विशेषज्ञ की सलाह अवश्य लें। इसके अतिरिक्त खबरों या ऑफर के आधार पर खरीददारी से पूर्व आप खुद पड़ताल अवश्य करें। इसके साथ ही कमेन्ट्स बॉक्स में टिप्पणी करते समय मर्यादित, संतुलित टिप्पणी ही करें।