ढाक : आनन्द गुप्ता की दो कविताएँ

आनन्द गुप्ता

ढाक
(बंगाल में पूजा आयोजन के समय बजने वाला वाद्ययंत्र)
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1.
उपनगरीय रेलगाड़ियों के हर डिब्बे में
आज ढाक की गूँज है
हर डिब्बे के एक हिस्से पर
कतार से सजे हैं ढाक
सुदूर गाँवों से
हर साल अपने कंधों पर
ढेर सारे कष्ट और उम्मीदों का बोझ लिए
चले आते हैं ढाकी
नित्य यात्रियों की घुड़कियाँ और गालियाँ
आज बेअसर है ढाकियों पर
शंकु के चोट पड़ते ही ढाक पर
डम-डमा-डम-डम की आवाज निकलती है
और डिब्बे में दुर्गा पूजा की खुमारी छा जाती है
एक बारगी निःशब्दता
और फिर उल्लास
आनंद ही आनंद
ताल पर ताल देते लोग
सच भी है
चोट मन पर हो या ढाक पर
कुछ चोटों से
कितना कुछ बदल जाता है अचानक।

2.
शियालदह स्टेशन के हर चप्पे पर
आज सिर्फ ढाकों की अनुगूँज है
जो पहुँच रही है दिग्-दिगंत तक….
हर ढाकी अपने ढाक को
पूरे जोश से बजाता
उसकी ताल पर झूमता है
पूजा आयोजकों का ध्यान
अपनी ओर खींचने की कोशिश करता है
विज्ञापन और बाज़ार के इस दौर में
ढाकियों के लिए यही सुख की बात है
कि दुर्गा की हर प्रतिमा को किसी ढाकी का इंतजार है।
ढाक के साथ ताल मिलाता
बजता है कासर
बजती है कुरकुरी
धाई कुरकुर धाँग कुरकुर
ढाकी के शंकु की
ढाक पर की गई हर चोट
तय करेगी उसका भाव
भाग्यवानों के हाथ लगेंगे बड़े आयोजक
बीस-पच्चीस हजार में सौदा तय होगा
दस-पंद्रह हजार में कुछ निपटेंगे
भाग्यवानों की झुंड से बाहर जो बचेंगे
मन मारते हुए जाएंगे पाँच हजार से भी नीचे पर
कुछ सपने टूटेंगे
कुछ आशाएँ
इस साल फिर से ज़मींदोज़ होंगे।

3.
ढाकी ने ढाक बजाया
माँ दुर्गा की आँखों में चमक आ गई
थोड़ा और भयभीत हुआ महिषासुर
देवी माँ के संतान हर्षित हुए
ढाकी के थिरकते पाँव की लय के साथ
पंडाल में मौजूद हर बच्चा नाचता है
नाचते हैं बूढ़े और जवान
झूमती हुई नाचती हैं स्त्रियाँ
अपने दोनों हाथों में धुनुची लिए
पूजा करता युवक नाचता है
थिरक उठी है धरती
थिरक उठता है आसमान
थिरक उठती हैं फिजाएँ
कोलकाता की हर सड़क और गलियाँ थिरक रही हैं!
पुजारियों के निरंतर मंत्रोच्चार
और धुनुची से निकलते धुएं से आच्छादित
पूरा पंडाल
नाच रहा है ढाकी के थाप पर।

4.
रूपनारायण नदी के उस पार दूर से आ रही
ढाक की आवाज़ पर
नाच रहे हैं नंग धड़ंग बच्चे
कर रहे हैं
ढाक बजाने
कोलकाता गए बाबा का इंतजार
विजया दशमी के बाद
बाबा ढाक बजाकर बख्शीश के साथ
बाबुओं से माँग लाएंगे पुराने कपड़े
पड़ेंगे उनके तन पर वस्त्र
जो अगले साल बाढ़ तक उनके काम आएंगे
भव्य पंडालों में ढाक पर पड़ती हर चोट को
अपने सीने पर सहते कितने बाबा
हर साल की तरह इस साल भी
जीवन के धुसर सपनों पर रफू लगाएंगे
टूटे घरों पर छप्पर डाले जाएंगे
कुछ कर्ज उतारे जाएंगे
एक और दुर्गा पूजा यूँ ही बीत जाएगी उनके जीवन में।

शुभजिता

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