कुछ भी करो कर्तव्य पथ से किंतु भागूंगा नहीं, वरदान मांगूंगा नहीं

शिवमंगल सिंह सुमन स्मरण -यह आलेख गत 5 अगस्त को लिखा गया था। हमारा प्रयास रहता है कि हमारे हर प्रयास में एक प्रेरणा रहे। यह उसी दृष्टि से किया गया प्रयास है। 

प्रो. जयराम शुक्ल

आज राष्ट्रकवि डा.शिवमंगल सिंह सुमन की जयंती है। सुमनजी, दिनकरजी की तरह ऐसे यशस्वी कवि थे जिनकी हुंकार से राष्ट्र अभिमान की धारा फूटती थी। संसद में अटलजी ने स्वयं की कविता से ज्यादा सुमनजी की कविताएँ उद्धृत की। हाल यह  कि सुमनजी की कई कविताएँ अब अटल बिहारी वाजपेयी के नाम से प्रचलित हैं। अटलजी सुमनजी को अपना साहित्यिक गुरू मानते हैं। वे सुमनजी ही थे जो अटलजी को कवि सम्मेलनों तक खींच ले गए। इसीलिए सुमनजी व अटलजी की रचनाधर्मिता में अद्भुत साम्य मिलता है।

सुमनजी दिनकर की भाँति राष्ट्रीय गौरव के उद्घोष थे। वैसे सुमनजी का जन्म 5 अगस्त 1915 को  झगरपुर उन्नाव में हुआ था पर वे खुद को रिमाड़ी मानने व कहे जाने पर गौरवान्वित महसूस करते थे। अमरपाटन सतना का प्रतापगढी से उनका ताल्लुकात रहा है। उनका परिवार रीवा राजघराने से सीधे जुडा़ है।

सन् 1990 में मध्यप्रदेश साहित्य सम्मेलन ने उन्हें भवभूति अलंकरण से अलंकृत करने का निर्णय लिया। मेरे आग्रह पर बाबू जी(श्री मायाराम सुरजन जो उस समय सम्मेलन के अध्यक्ष थे) ने यह आयोजन रीवा में रखा। मेरा सौभाग्य है कि मैं इस कार्यक्रम का संयोजक था।

मानस भवन में आयोजित वह समारोह आज भी जिसको याद होगा..वह निश्चित ही रोमांचित हो जाएगा उन क्षणों का स्मरण करके। सुमनजी उस कार्यक्रम में एक घंंटे से ज्यादा बोले, और भावविभोर होकर बोले। अपने बचपन,परिजन भाइयों को मंच से याद किया। विंध्य और रीवा की महत्ता बताई। कुछ कविताएं भी पढ़ी।

शुरुआत अपनी परिचयात्मक पंक्तियाँ से की..

मैं शिप्रा सा सरल तरल बहता हूँ

मैं कालिदास की शेषकथा कहता हूँ

ये मौत हमारा क्या कर सकती है

मै महाकाल की नगरी में रहता हूँ।

ये पंक्तियां सुमनजी के परिचय की ताउम्र सिग्नेचर ट्यून बनी रही।

अवंतिका वासी सौभाग्यशाली हैं कि उन्हें सुमनजी का सानिद्ध मिला और उन लोगों ने भी दैवतुल्य मान सम्मान दिया। मुझे याद है कि आयोजन की पूर्व संध्या सुमनजी का साक्षात्कार लेने मेजर साहब(कुंवर अर्जुन सिंह जी की ससुराल जहाँ वे रुके थे) के घर गया। मेजर शिवप्रसाद सिंह उनके चचेरे भाई थे। शाम का वक्त था वे अपने सभी भाइयों के साथ जमे रमे थे। लौटने लगा तो जबरिया बैठा लिया यह कहते हुए कि देखो हम भाई मिलते हैं तो कैसे धमाल मचता है। उस शाही महफिल में मेजर साहब तो थे ही शिवमोहन सिंह जी व शिवचरण सिंह कक्काजी भी थे।

दूसरे दिन इस महफिल का उन्होंने मंच से अपने भाषण में भी उल्लेख किया..और अपने व भाइयों के नाम महिमा बताने लगे कि देखो हम सभी भाई शिव के गण हैं।

बहरहाल सुमनजी ने तबीयत से साक्षात्कार दिया वह देशबंन्धु के पहले पन्ने पर छपा। फिर सम्मेलन की पत्रिका .विवरणिका..ने भी विशेषांक के रूप में छापा। वह मेरे श्रेष्ठ साक्षात्कारों में से एक है।

सुमनजी ने कविता की शर्त बताई.. जो जन की जुबान में बस जाए वही कविता है। मैने भले ही जितना लिखा पर जो भी जन की जुबान पर है मैं मानता हूँ कि उतना ही सार्थक लिखा। मैंने साक्षात्कार की जो भूमिका लिखी थी समारोह में प्रायः सभी ने उसका उल्लेख किया। ..लिखने, दिखने और बोलने का त्रिवेणी संगम देखना है तो सुमनजी में देखिए।

सुमनजी लिखते तो अद्भुत थे ही, उससे अच्छा प्रस्तुत करते थे..उनकी भाषण कला बेहतर थी या लेखन कला तय कर पाना मुश्किल। दिखने में तो शुभ्रवस्त्रावृता थे ही साक्षात् वाणी पुत्र लगते थे। उनकी स्मृति को नमन…

यहां वो कविता प्रस्तुत कर रहे हैं जिसे अटलजी  ने तेरह दिन की सरकार के पतन के दिन संसद में पढी थी..आज भी इस कविता को प्रायः लोग अटल जी की ही मानकर चलते हैंं।

संघर्ष पथपर जो मिले

यह हार एक विराम है

जीवन महासंग्राम है

तिल-तिल मिटूँगा पर दया की भीख मैं लूँगा नहीं।

वरदान माँगूँगा नहीं।।

स्‍मृति सुखद प्रहरों के लिए

अपने खंडहरों के लिए

यह जान लो मैं विश्‍व की संपत्ति चाहूँगा नहीं।

वरदान माँगूँगा नहीं।।

क्‍या हार में क्‍या जीत में

किंचित नहीं भयभीत मैं

संधर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही।

वरदान माँगूँगा नहीं।।

लघुता न अब मेरी छुओ

तुम हो महान बने रहो

अपने हृदय की वेदना मैं व्‍यर्थ त्‍यागूँगा नहीं।

वरदान माँगूँगा नहीं।।

चाहे हृदय को ताप दो

चाहे मुझे अभिशाप दो

कुछ भी करो कर्तव्‍य पथ से किंतु भागूँगा नहीं।

वरदान माँगूँगा नहीं।।

(साभार)

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