क़ातिल मुंसिफ : एक और एनकाउंटर, हावड़ा में सोये हुए रंगमंच को जगाने का प्रयास

एक लम्बे समय बाद हावड़ा रंगमंच पर एक ऐसा नाटक देखने को मिला, जो अपने भीतर कुछ सम्भावनाऐं सम्माहित किये हुए था। नीलांबर के सचिव और निर्देशक, रंगमंच के सक्रिय रंगकर्मी, अभिनेता ऋतेश पांडेय ने एक ऐसा कदम उठाया जो इस दौर में उठाने का ज़ोखिम रंगकर्मी आसानी से नहीं कर पाते हैं। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि इस इलैक्ट्रॉनिक युग में प्रेक्षागृह तक दर्शकों को ला पाना बेहद मुश्किल होता जा रहा है।

फ्रेंच नाटककार दारियो फो द्वारा लिखे नाटक ‘एन एक्सीडेंटल डेथ ऑफ एन एनारकिस्ट‘ के हिन्दी रूपान्तरण ‘क़ातिल मुंसिफ‘ को देखने का मौका मिला। नीलांबर द्वारा प्रस्तुत इस नाटक का मंचन सरत सदन हावड़ा में किया गया। सशक्त पटकथा वाले इस नाटक का मंचन 11 फरवरी को हुआ था।

सबसे पहले हम नाटक की पटकथा पर आते हैं, तो हम पाते हैं कि नाटक में पुलिस प्रशासन की व्यवस्था को सटीक ढंग से उधेड़ा गया है, थाने में तथाकथित आतंकवादी की दुर्घाटना व मृत्यु हो जाने के पश्चात् जब पुलिसकर्मियों से बात-चीत की जाती है तो धीरे धीरे पर्त दर पर्त साफ होते जाते हैं और पता चलता है कि ये कोई दुर्घटना नहीं थी बल्कि जानबूझकर अंजाम दी गई घटना है, इस इन्वेस्टीगेशन के दौरान पुलिस प्रशासन की पोल खुलती चली जाती है और पता चलता है कि घटना को अंजाम देने के लिए ऊपर से नीचे तक पूरी प्रणाली दोषी है। घटनाक्रम के दौरान पुलिस व्यवस्था के साथ साथ समाज के अन्य बिन्दुओं पर भी रेखांकित किया गया है। नोबेल विजेता दारियो फो के इस नाटक की समकालीनता हमेशा बनी रहेगी। साथ ही नाटक को भारतीय परिवेश से जोड़ने की कोशिश भी की गई है, भोपाल के किसी गाँधीपुर की घटना का जिक्र भी किया जाता है, प्रकारान्तर से यह घटना सिमी उग्रवादियों की जेल फरारी और हत्या से जोड़कर प्रस्तुत किया गया है। नाटक के आरंभ में ही बैकग्राउंड से एनकाउंटर का परिवेश रचा गया और वहीं से दर्शक पूरी तरह से स्टेज पर आंखें गड़ाये रहता है और यह सिलसिला अंत तक बना रहता है। ये भी काबिलेतारीफ है कि रूपान्तरकार ने फ्रेंच नाटक को भारतीय जामा सटीक ढंग से पहनाया है।

नाटक की मंच सज्जा, वेशभूषा वाले पक्ष को देखें तो निर्देशक की तारीफ करनी होगी। बहुत ही कम साज सज्जा से नाटक प्रभावी बनाया।  पर पुलिस स्टेशन के दृश्य को और भी सुन्दर तरीके से सजाया जा सकता था। लेकिन माहौल वाकई एक थाने का सा लगता है। अगर कुछ छोटी-मोटी गलतियों को नज़रअंदाज कर दें तो मंच सज्जा व वेशभूषा नाटक को सफल बनाने के लिए अपना पूरा योगदान दे रहे हैं। संगीत व प्रकाश पक्ष पर बात करें तो कभी समझ नहीं आता कि संगीत और संवाद के बीच तालमेल क्या है, संगीत नाटक के लिए है ना कि नाटक संगीत के लिए, कई स्थानों पर संगीत पक्ष नाटक को सटीक भाव प्रदान करने पूर्णतया सक्षम होने के बावजूद संगीत पक्ष पर और अधिक कार्य करने की आवश्यकता है।

अगर हम अभिनय पक्ष पर नज़र डालते है, तो हम ऋतेश पांडेय जो कि नाटक में सनकी के पात्र को निभा रहे हैं, अपने चरित्र के साथ न्याय करते हुए नज़र आते हैं। सनकी का चरित्र नाटक में एक सूत्रधार की तरह से भी दिखाई देता है, जो कथानक को आगे बढा रहा है। ऋतेश पांडेय के अभिनय के लिए भी इस नाटक को याद किया जाना चाहिए। पुलिस के सिपाही की भूमिका निभा रहे कलाकार दीपक कुमार ठाकुर बार-बार दर्शकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हैं। और बाकी कलाकारों में  पंकज सिंह (सब इंस्पेक्टर), विशाल पांडेय (इंस्पेक्टर) ने अच्छा अभिनय किया और प्रभावी रहे, परन्तु एस. पी (मनोज झा) अपने पद की गरिमा को बनाये रखने में बीच बीच में नाकाम से दिखाई दिये। कभी -कभी ये कलाकार अपने पात्रों की सीमा लॉघकर बाहर आते दिखाई देते हैं, जिस कारण नाटक के कसाव में कमी दिखाई देने लगती है। लेकिन ऐसा बस एक दो बार ही हुआ।  प्रेस रिपोर्टर के रूप में प्रियंका सिंह ने अच्छा काम किया पर संवाद अदायगी में वे थोड़ा जल्दी कर दे रही थीं। चोर के किरदार में विजय शर्मा ने बहुत ही उम्दा अभिनय किया पर उनके लिए कोई खास स्कोप नहीं था।

निर्देशन की दृष्टि से नाटक पूरी तरह से एक निर्देशक का नाटक नजर आता है, नाटक मे सशक्त निर्देशन नाटक पूरा देखने को मजबूर करता है। नाटक में स्थितियाँ इतनी तेजी से घटित होती हैं कि उसकी नाटकीयता को संतुलित बनाए रखना ही निर्देशक के लिए एक चुनौती बन जाती है। और निर्देशक उसमें सफल रहे। कुछ बिन्दुओं पर निर्देशक व रूपान्तरकार (स्क्रिप्ट राईटर) को समझने की जरूरत है कि हम नाटक को किस परिवेश में कर रहे हैं। ऐसे परिवेश में नाटक में अपशब्दों को अत्याधिक उपयोग नाटक को कमजोर करता है। इस बात पर ध्यान देने की अति आवश्यकता है।

कुल मिलाकर बहुत समय पश्चात् हावड़ा में एक लीक से हटकर नाटक देखने को मिला, जो यहां के सोये रंगकर्मियों को जागने पर मजबूर करेगा। मंच संस्था व ऋतेश पांडेय और ममता पांडेय की सरहाना करनी होगी कि दर्शकों व धन के अभाव केा झेल रहे हावड़ा रंगमंच को जीवंत करने में एक सक्षम प्रयास किया।

(सतीश शर्मा, रंगकर्मी और नाटककार)

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4 thoughts on “क़ातिल मुंसिफ : एक और एनकाउंटर, हावड़ा में सोये हुए रंगमंच को जगाने का प्रयास

  1. Ritesh Pandey says:

    सतीश शर्मा जी एवं अपराजिता का असंख्य धन्यवाद

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