अपराजिता….आप और एक साल का यह सफर

आज अपराजिता एक साल की हो गयी। अपराजिता…वेब पत्रिका…कितना कुछ पढ़ते हैं हम इंटरनेट पर औरतों के बारे में…खबरें पढ़ते हैं, साहित्य पढ़ते हैं, सभी कुछ तो पढ़ते हैं मगर बात जब स्त्री की आती है तो पन्नों का दायरा आँगन, घर – परिवार, खूबसूरती, सेहत, फैशन, बाजार और रसोई तक सिमट जाता है, क्यों भला? पति कैसे खुश रहे, परिवार कैसे खुश रहे, बॉस कैसे खुश रहे….सभी कुछ तो स्त्री को लेकर होने वाली पत्रकारिता हमें बता रही है।

बजट से, देश की राजनीति से, अर्थव्यवस्था, खेल से….क्या इन सभी बातों से स्त्री को फर्क नहीं पड़ता? दरअसल, यह सब हमारी सोच से जुड़ा है, लड़का हो तो बन्दूक, लड़की हो तो गुड़िया, लड़का हो नीला और लड़की हो तो गुलाबी। समय बीता, औरतें अंतरिक्ष से लेकर सेना में जा रही हैं मगर पत्रकारिता में स्त्री ठहर गयी है और ठहर गयी है महिला पत्रकारों की दुनिया। अँग्रेजी और बांग्ला अखबारों को छोड़ दें तो लाइफस्टाइल और फीचर महिलाओं के जिम्मे है।

आज से 10 साल पहले जब मैं पत्रकारिता में आयी थी तो महिलाएं इस क्षेत्र में बेहद कम थीं और हिन्दी पत्रकारिता में तो न के बराबर। आज महिलाएं हैं और पहले की तुलना में उनकी स्थिति सुधरी भी है पर क्या उनके हालात भी सुधरे हैं? अगर ऊपरी तौर पर देखा जाए तो हाँ मगर थोड़ी गहराई में जाकर देखिए तो हालत वही है।

महिला पत्रकार दोहरी जिम्मेदारी निभाती है। काम तो वह अपने लिए कर रही है मगर उसकी जगह तो वही घर के भीतर परिवार और बच्चों को सम्भालने तक सीमित है। बहुत सी महिला पत्रकार यह दोहरा दायित्व कुशलतापूर्वक निभा भी रही हैं मगर यह सब इतना आसान नहीं है क्योंकि पत्रकारिता सुबह 10 से शाम 5 की नौकरी नहीं है।

बहुत सी महिलाओं ने इस वजह से या तो क्षेत्र ही छोड़ दिया या स्वतन्त्र पत्रकार के रूप में अपनी इच्छा पूरी कर रही हैं। इसके लिए उनको रोज एक लड़ाई लड़नी पड़ती है, घर का विरोध सहना पड़ता है या फिर घर की कमाई का एकमात्र माध्यम होने के कारण वह दोहरी चक्की में पिसती है। अपवादों को छोड़ दिया जाए अपनी स्वतन्त्र सोच और सम्मान के साथ काम करना महिलाओं के लिए इतना आसान नहीं है।

न तो उनकी बात रखने के लिए कोई संगठन था और न ही उसकी सोच को समझकर उसके क्षेत्र को विस्तृत रूप में रखने के लिए उसके हिस्से की खबरें चुनने वाली कोई गम्भीर पत्रिका दिखी। महिलाओं की सोच को महिलाओं के नजरिए से देखना जरूरी है। यही बात पुरुषों के बारे में कही जा सकती है। ढेरों पत्रिकाएं मगर पुरुषों की मानसिकता, जीवनशैली, सोच को रखने के लिए सकारात्मक लेखन हिन्दी में कम है।

आप कल्पना नहीं कर सकते कि कोई अखबार पुरुषों के लिए परिशिष्ठ निकाले और उनको ये बताए कि उनके सामने क्या विकल्प हैं या उनकी दुनिया में क्या हो रहा है। पुरुषों की जीवनशैली से जुड़ा कोई भी काम आसान नहीं है, खासकर फैशन की दुनिया में। पुरुष हमेशा खलनायक नहीं होते मगर उसका संवेदनशील पक्ष आज भी उसकी कमजोरी माना जाता है। मुझे ये सवाल हमेशा से परेशान करते रहे हैं….कुछ करना था मगर कौन करेगा….ये बड़ा प्रश्न था…पिछले 10 सालों में काम करते हुए यह कमी महसूस की और जब इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिला तो दिल से आवाज आयी….चलो, कोशिश करके देखते हैं…अपराजिता वही प्रयास है।

काम करते हुए बहुत से अच्छे और बुरे अनुभव हुए और हर अनुभव ने मजबूत बनाया। आपको अपराजिता में विज्ञापन नहीं दिखते और इसकी वजह यह नहीं है कि विज्ञापनों से कोई मोहभंग हुआ है मगर वह वह प्राथमिकता तब नहीं थी। स्वतन्त्र होकर काम करने के लिए मानसिक दबाव से मुक्त होना जरूरी था..इसलिए तब ध्यान नहीं दिया। अब देना है। कोई बड़ा नाम नहीं था और न ही किसी बड़े समूह का साथ मगर बड़ों का आशीर्वाद रहा है और आप लोगों का प्यार है कि आज 10 हजार से अधिक लोग वेबपत्रिका को जानते हैं। कोशिश जारी है, बस सहयोग की जरूरत है।

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