आदिवासियों के बीच 30 वर्षों से कुटिया में रहकर जीवन बिता रहे डीयू के प्रोफेसर

बिलासपुर : छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में अचानकमार सेंचुरी एरिया के घने जंगलों के बीच मौजूद है लमनी गांव। यहां दिल्ली विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर डॉ. प्रभुदत्त खेड़ा पिछले तीस साल से कुटिया बनाकर रह रहे हैं। इसके पीछे उनके त्याग और संकल्प की एक अद्भुत कहानी है। प्रोफेसर साहब बैगा आदिवासियों के बीच रहकर शिक्षा का उजियारा फैलाते आए हैं। उन्हें जीने की राह दिखा रहे हैं।
पेंशन की राशि से बनवाया स्‍कूल
पेंशन की राशि से उन्होंने यहां 12वीं तक का नि:शुल्क स्कूल भी बनवा दिया है। खुद भी पढ़ाते हैं। डॉ. खेड़ा गणित में एमएससी व समाजशास्त्र में एमए के साथ ही पीएचडी धारी हैं। साल 1983 में दिल्ली विवि के समाजशास्त्र विभाग के छात्रों के एक दल को लेकर अचानकमार के घने जंगलों में बैगाओं पर अध्ययन करने आए थे। उद्देश्य था आदिवासियों के रहन-सहन व सामाजिक परिवेश को करीब से देखना और अध्ययन के बाद आदिवासियों के जीवन स्तर को सुधारने के संबंध में केंद्र सरकार को रिपोर्ट पेश करना। पर जैसे ही वे वनग्राम में पहुंचे और आदिवासियों की दुर्दशा देखी तो मन भर आया।
डॉ. खेड़ा बताते हैं कि उस रात वे सो नहीं पाए थे। दूसरे दिन भोजन भी ठीक से नहीं किया। एक सप्ताह का शैक्षणिक भ्रमण जब समाप्त हुआ और दिल्ली जाने की बारी आई तो प्रो. खेड़ा का छात्रों के लिए सपाट आदेश था- तुम लोग जाओ और मेरी एक सप्ताह की छुट्टी का आवेदन भी साथ ले जाओ। मैं कुछ दिनों बाद आता हूं..। यह सुनकर छात्र भी हैरान रह गए। घने जंगलों में अनजान लोगों के बीच दिल्ली जैसे शहर का प्रोफेसर आखिर किनके सहारे यहां रहेगा? छात्रों ने उन्हें समझाया, पर प्रो. खेड़ा का मन तो अलग ही दुनिया में भटक रहा था। बैगाओं की हालत देखकर संकल्प ले लिया कि अब चाहे जो हो जाए, उनके बीच ही रहना है और उनके बीच ही अंतिम सांस लेना है। 30 साल पहले लिए संकल्प को प्रो. खेड़ा आज भी पूरे मनोयोग से निभा रहे हैं। आदिवासियों के कल्याण के लिए जीवन समर्पित कर देने के संकल्प के साथ उन्होंने उनके साथ ही गांव में झोपड़ी बनाकर रहना शुरू किया। दो वक्त का भोजन वे खुद बनाते हैं। धीरे-धीरे उन्होंने वनवासियों से बातचीत शुरू की।
बच्‍चों को दिया अक्षर ज्ञान
जब उनकी बातों पर वनवासी भरोसा करने लगे तब कुटिया में ही वनवासी बच्चों को अक्षर ज्ञान देना शुरू किया। उनकी मेहनत रंग लाई। जो बच्चे ताड़ी के नशे में चूर रहते थे, वे आज फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते हैं। प्रो. खेड़ा वनवासियों के बीच 12वीं तक स्कूल का संचालन कर रहे हैं। अपनी पेंशन का पूरा पैसा वे वनवासियों की दिशा और दशा ठीक करने में लगा रहे हैं। वनवासी बच्चों के लिए स्कूल, यूनिफार्म से लेकर कॉपी-किताब तक वे नि:शुल्क देते हैं। प्रो.खेड़ा ने अपना तन, मन और धन सबकुछ वनवासियों की बेहतरी के लिए लगा दिया है। पिछले दिनों छत्तीसगढ़ सरकार ने उन्हें कायार्ंजलि पुरस्कार से सम्मानित किया। उनके द्वारा छपरवा में संचालित स्कूल के शासकीयकरण की घोषणा भी की गई है।
राज्‍य सरकार से सम्‍मानित
प्रोफेसर खेड़ा को उनके किए गए काम के लिए छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह ने दो माह पहले महात्मा गांधी नेशनल अवार्ड से सम्मानित भी किया था। इसके तहत उनके स्कूल की बिल्डिंग बनवाने के लिए 20 लाख रुपये भी जारी किए गए थे। आपको बता दें कि खेड़ा देश के बंटवारे के बाद लाहौर से दिल्ली एक रिफ्यूजी की तरह आए थे। उनका जन्म 1928 में लाहौर में हुआ था। यहां आकर उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की और पीएचडी हासिल की। कुछ वर्षों तक उन्होंने एनसीईआरटी में अपनी सेवाएं दी। इसके बाद उन्‍होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी में सोशल स्टडीज डिपार्टमेंट में बतौर प्रोफेसर ज्वाइन किया। छत्तीसगढ़ में वह एक स्टडी टूर के तौर पर आए थे और फिर यहीं के होकर रह गए। 1993 में रिटायर होने के बाद से वह यहां पर एक कुटिया में रहकर आदिवासियों के लिए काम कर रहे हैं।
90 साल की उम्र में चलते हैं 18 किमी पैदल
प्रोफेसर डॉ. प्रभुदत्त खेड़ा का आत्मबल गजब का है। 90 वर्ष के हो रहे हैं। आज भी वे 18 किमी पैदल चलते हैं। पहाड़ की ऊंचाइयां चढ़ना और उसी रफ्तार से नीचे की ओर पैदल जाना कोई प्रोफेसर से ही सीखे। पहाड़ों, घने जंगलों और वन पुत्रों के बीच वे अपना जीवन गुजार रहे हैं। वे आज भी अपने स्कूल में नौवीं से लेकर 12वीं के छात्रों को गणित और समाजशास्त्र की शिक्षा खुद ही देते हैं।

(साभार – दैैनिक जागरण)

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