अवधपुरी….एक अनुभव

वरुण उपाध्याय, कोलकाता
घटना २०१८ मार्च की है, जब जीवन में मुझे पहली बार अवधपुरी जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। मेरे दादाजी बताते थे कि हमारे पूर्वज भी उसी क्षेत्र के थे। वस्तुतः इसी कारण उस पवित्र भूमि के दर्शन की उत्कट अभिलाषा अधिक प्रबल हो चुकी थी। रेलगाड़ी जब फ़ैज़ाबाद स्टेशन पहुँची तो लगा जैसे किसी विचित्र स्थान पर आगमन हो गया है। एक ऐसा स्थान, जो वर्तमान समय से क़रीब २० वर्ष पीछे चल रहा है। मुझे आशा थी कि अन्य धामों की तरह ही यहाँ भी नैमिष जैसा तेज व्याप्त होगा। अयोध्या नगरी भी जागृत और प्रभुमय होगी परन्तु ऐसा प्रतीत हुआ मानो सारे देवी-देवता इस जगह से रुष्ट थे। यह एक ‘श्री’ विहीन क्षेत्र होकर रह गया था।
बाबा तुलसीदास कहते थे,“राम दुआरे तुम रखवारे, होत न आज्ञा बिनु पैसारे।”बस इसी बात का ध्यान रखते हुए हमने भी सर्वप्रथम श्री हनुमानगढ़ी के दर्शन किए तत्पश्चात उनसे आज्ञा पाकर प्रभु श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र की ओर बढ़े। कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बीच, जगह-जगह पर जाँच के बाद वह मंगल बेला आई जब अपने आराध्य श्रीराम लला के दर्शन होने वाले थे। मन की व्याकुलता बढ़ती ही जा रही थी। दूर से ही फटा पुराना टांट दिखलाई दे रहा था और उसी के भीतर वर्षों से जगत के पालनहार विराजे थे। स्थानीय लोगों से यह भी ज्ञात हुआ कि ऐसी स्थिति 1990 के दशक से बनी हुई है। प्रभु को साल में मात्र दो वस्त्र ही अर्पित किए जाते हैं, भोग की भी उचित व्यवस्था नहीं है, तंबू फट जाए तो बदलने हेतु अदालत से अनुमति लेनी पड़ती है।
यह सब सुनकर और साक्षात अपने इष्ट को ऐसी अवस्था में देखकर मेरी आत्मा कांप उठी, हृदय तड़प उठा। दर्शन के समय ऐसा प्रतीत हुआ मानो मैं स्वयं कैदी हूँ और मुझसे कोई अपना मात्र 2 क्षण के लिये मिलने आया है। मैंने अपने जीवन में इससे पूर्व स्वयं को इतना बेबस कभी नहीं पाया था, अश्रुधार रुकने का नाम नहीं ले रही थी। ईश्वर चाहें तो सबकुछ कर सकते हैं परन्तु संभवतः एक मर्यादा का पालन हमारे प्रभु भी कर रहे थे। इसीलिए तो भक्त उन्हें ‘मर्यादापुरुषोत्तम’ भी कहते हैं।
साथ चलते एक तीर्थयात्री ने कहा कि, “जब मेरे बाल काले हुआ करते थे तब से आज तक यही सुनता आ रहा हूँ कि मंदिर बन जाएगा लेकिन अगर मंदिर बन जायेगा तो राजनीति करने वाले कहां जाएंगे भला? कोई मूर्ख नहीं है जो अपनी दुकानदारी बन्द करेगा।” मैंने उनसे कोई डेडलाइन वाली बात तो नहीं की पर इतना अवश्य बोल दिया कि, “श्रीमान आपके बाल भले ही सफेद हो गए हों, मेरे काले बाल रहते ही मंदिर बन जायेगा, इतना तो तय है। यह नया भारत है अब हर काम जल्दी होने लगा है।”उन सज्जन की आँखों में बेसब्री और असंतुष्टि का भाव था लेकिन उन्होंने मेरी इस बात का खण्डन भी नहीं किया।
 आज परिणाम सबके सामने है। 500 साल पुराने विवाद का हल हो चुका है और हमारे भगवान अब एक भव्य मंदिर में विराज चुके हैं। अब अपनी अयोध्या नगरी ग़ुलामी के चिन्हों से मुक्त होकर एक ऐतिहासिक धरोहर के रूप में विकसित हो रही है। सत्य सनातन की इस जीत में ब्रह्माण्ड का कल्याण छुपा है। भारत रामराज्य की पहली सीढ़ी चढ़ चुका है और अपने आध्यात्मिक बल से शीघ्र ही विश्वगुरु भी कहलाएगा। वर्तमान व्यवस्था को देख कर बस यही दोहा याद आता है,“कवन सो काज कठिन जग माही। जो नहीं होइ तात तुम पाहीं।।”

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