आजादी, स्वाभिमान, सौहार्द और महिलाओं का सम्मान कुछ ऐसे शब्द हैं जो भारतीय लोकतंत्र का पीछा कर रहे हैं और सारी बहस इन शब्दों के आस – पास चक्कर काट रही है। हर घटना घूमकर इन शब्दों के पास खड़ी हो जाती है। आजादी के नाम पर बहुत कुछ ऐसा हो रहा है जो नहीं होता तो शायद बेहतर था। कुछ ऐसी आजादी जो बाहर से देखने पर जायज लगती हैं मगर तह में जाओ तो ऐसा लगता है कि क्या इस आजादी की कोई सीमा है? अभिव्यक्ति की आजादी, आंदोलन की आजादी, चक्का जाम करने की आजादी, फतवे जारी करने की आजादी और महिलाओं की अस्मिता को तार – तार करने वाले बयान की आजादी।
सहिष्णुता और असहिष्णुता के इस दौर में हर बात गड़बड़ है। विद्यार्थी पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगा रहे हैं और मणिपुर और कश्मीर की आजादी माँग रहे हैं और यह सब आए दिन शिक्षण संस्थानों की कहानी बन गया है। गाय को लेकर होने वाली राजनीति और सहिष्णुता की बहसों के बाद फिल्मों का बहिष्कार, इन सबका कोई नतीजा नहीं है। हर जगह आतंक है, पेरिस से लेकर ढाका तक सीरिया से लेकर पाकिस्तान तक, हर जगह धर्म के नाम पर कत्लेआम हो रहा है, जिसकी इजाजत शायद खुदा भी नहीं देता होगा। बहरहाल, अगस्त से आजादी का रिश्ता गहरा है मगर यह रिश्ता जिम्मेदारी से भी तो जुड़े। आस – पास जो घट रहा है और जिस तरह की बयानबाजी हो रही है, उसे देखकर नहीं लगता कि ऐसा हो रहा है। अब तक पुरुष ही महिलाओं पर बयानबाजी करते थे मगर अब महिलाएं ही महिलाओं को नीचा दिखा रही हैं और पितृसत्ता के हाथ में मोहरा बनी बैठी हैं। कम से कम हाल ही में मायावती और दयाशंकर के मामले में जो कुछ हुआ, वह यही दिखाता है। एक पुरुष ने बसपा नेत्री मायावती को घोर आपत्तिजनक शब्द बोले तो उन्होंने उसी पुरुषवादी व्यवस्था का आसरा लेकर उस पुरुष की बेटी और परिवार को लेकर घनघोर आपत्तिजननक शब्दों की बौछार करवा डाली। वह खुद को देवी तो बना बैठीं मगर उनमें उदारता इंसानों वाली भी नहीं दिखी। कल्पना कीजिए, अगर देवियाँ ऐसी होने लगीं, क्या होगा हमारी संस्कति का, जहाँ एक मजबूत बंधन है, गरिमा है। रक्षाबंधन है और जन्माष्टमी भी है।
कृष्ण के जीवन में महिलाएं हर रूप में हैं और हर रूप में उनका सम्मान भी है, फिर वह राधा हो, रुक्मिणी हो, द्रोपदी हो या सुभद्रा हो, मगर उनके इस रूप को सिर्फ राधा तक समेट दिया गया, ये अलग बात है। कृष्ण ने द्रोपदी के सम्मान की रक्षा की, अगर उसे सक्षम बनाते कि वह अपना सम्मान खुद सुरक्षित रखे तो शायद महाभारत की जरूरत ही नहीं पड़ती। बस, सारी कहानी यहीं ठहर गयी है क्योंकि महिलाओं को सुरक्षा देने की बात जब की जाती है तो इसमें उसका आत्मनिर्भर होना छूट जाता है। शायद यह इसलिए कि व्यवस्था स्त्री को निर्भर देखने की अभ्यस्त है, जब वह पुरुष को तारणहार के रूप में देखती है तो पौरुष को राहत पहुँचती है मगर समय आ गया है कि इस स्थिति से ऊपर उठकर सोचा जाए। वैसे आज पुरुष बदल रहे हैं, इसमें संदेह नहीं है। अब वह महिलाओं से आगे नहीं बल्कि साथ चलना चाहते हैं, औऱ यही शायद बदलाव है और इसी में आजादी भी छुपी है अपने – अपने अहं से आजादी। अपराजिता की ओर से आप सभी को स्वतंत्रता दिवस, रक्षाबंधन, जन्माष्टमी की अग्रिम शुभकामनाएं। बातें तो बहुत हैं, आगे भी चलती रहेंगी। आजादी अगर चाहिए तो जिम्मेदारी की बात पहले करनी होगी।
wah! Kya badhia likhti ho. Best wishes.
धन्यवाद दी