हम लिखते, पढ़ते व बोलते तो रहें, कभी तो फिजां बदलेगी

बेहद विन्रम और स्नेहिल स्वभाव की अनामिका जी का लेखन बेहद मजबूत है। वे स्त्रियों की हर पीड़ा न सिर्फ समझती हैं बल्कि उन्हें पूरी मजबूती के साथ सामने रखती भी हैं। अँग्रेजी उनके कार्यक्षेत्र की भाषा है मगर उन्होंने हिन्दी साहित्य की हर विधा को समृद्ध किया हैं। अनामिका जी को राजभाषा परिषद पुरस्कार, भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, गिरिजा कुमार माथुर सम्मान, साहित्यकार सम्मान, केदार सम्मान, परंपरा सम्मान, साहित्य सेतु सम्मान मिल चुके हैं। कवियित्री अनामिका से सुषमा कनुप्रिया ने बातचीत की, पेश हैं प्रमुख अंश –
पिता बहुत ज्यादा प्यार करने वाले व्यक्ति थे
मेरे पिता श्यामनन्दन किशोर जी वरिष्ठ गीतकार और कवि थे। वे हमारी माँ जैसे ही थे। सबके साथ समस्यापूर्ति का खेल खेला करते थे। उनके मन में ऐसा रहता होगा कि सबके मन में कवित्व जगे। किसी के भीतर कोई कवि छुपा हो तो बाहर आ जाए। बहुत ज्यादा प्यार करने वाले व्यक्ति थे वे तो लोग उनको घेरे रहते थे। मोहल्लों में सबको कहानियाँ, कवितायें सुनाते थे। इसी खेल में किसी की अच्छी पँक्ति आ गयी तो उसे एक छोटी सी डायरी दे दिया करते थे। वह बांग्लादेश युद्ध का समय था। ब्लैक आउट हो जाया करता था और बिजली उड़ जाया करती थी। हमको छुपने को कह दिया जाता था तो हम छुप जाते थे। मैं मुजफ्फरपुर में रहती थी जो बांग्लादेश सीमा के पास था। ऐसे में यही प्रिय खेल था। पिता जी कवित्व उद्घाटित करते थे। वे कहते थे कि खुद मन से कविता बनाकर खेलो। किसी ने अच्छी पँक्ति कह दी तो उसका प्रशिक्षण शुरू हो जाया करता था। वे उसे सींचने लगते थे, मुझे तो पूरा ही सींचा।
सच्चे कवि को अपराध करते नहीं देखा
पिता जी का विश्‍वाास था कि जो अच्छी कविता लिखता है, वह जानबूझकर गलत काम नहीं करेगा। ऐसा आदमी दूसरे की आँख में गिर जाये मगर अपनी नजर में वह गिरना नहीं चाहता। लोग कविता समझते नहीं हैं मगर जो कविता लिखता है, गरीब आदमी भी उसे अपना कवि समझता है। वह उसे अपना समझता है। इसी संवेदनशीलता के चलते कवि चाहकर भी अपनी उस छवि से मुक्त नहीं हो सकता। कविता में विश्वास कवि को उसकी छवि में गिरफ्तार करता है। आज तक मैंने किसी सच्चे कवि को अपराध करते नहीं देखा। कविता अगर हृदय से नहीं फूटती तो उसको बतबनौवल होती है।
कविता का शिल्प कौंध वाला है
जीवन में हर कदम पर दुविधा है। दुविधा के क्षण में मन भीतर और बाहर रास्ता तलाशता है। समाधान तलाशते, सोचते अनायास समाधान और सच उद्घाटित होते हैं। कविता का शिल्प कौंध वाला है। सच की समझ कौंध में पैदा होती है, अचानक फ्लैश हो जाता है। जैसे दही मथते -मथते जैसे अचानक मक्खन बाहर आ जाता है। जो फ्लैश में कौंधा, उसे व्यक्ति एक नरेटिव बनाना चाहता है, उसी बहाने कुछ कहना चाहता है। कविता सामने वाले को बुद्धिमान समझती है तो उसे इशारे में समझाती है।
मुखर स्त्री को वे या तो रणचंडी कहते हैं या उसके चरित्र पर सवाल उठा देते हैं।
लोग भी समझकर चलते हैं कि स्त्री को मौन रहना चाहिए। वृहत्तर समस्याओं की अभिव्यक्ति जब स्त्री द्वारा की जाती है तो उन लोगों को भय हो जाता है जो उन पर लगातार कहर ढा रहे होते हैं। कोई उन्हें ध्यान और सम्मान से नहीं पढ़ता और निरुत्साहित किया जाता है। मुखर स्त्री को वे या तो रणचंडी कहते हैं या उसके चरित्र पर सवाल उठा देते हैं। ऐसा स्त्री को निरुत्साहित करने की मंशा से होता है।
सभी स्त्रियों के दुःख -सुख एक जैसे ही होते हैं
हम स्त्रियाँ छोटी -छोटी बातों में खुश हो जाती हैं। पहले हम एक दूसरे का मनोबल बढ़ायें। हमें बड़ों वाला सुख नहीं चाहिए, दुलार चाहिए। यह बचपन वाला भाव बड़े होकर पुरुषों में नहीं रह जाता। स्त्रियों में सहन शक्ति होती है और उनके सुख – दुःख भी एक जैसे होते हैं। उनमें बहनापा और विश्‍वास इसी कारण जल्दी पनपता है। हम स्त्रियों को आपस में जुड़कर रहना चाहिए। अपनी तमाम विशेषताएँ बरकरार रखते हुए हम एक साथ जुड़ें। अगर हम आपस में जुड़कर रहें तो कुछ भी कर सकते हैं।
हम अपने हिस्से का पौधा लगा तो दें
बीज बोते और फेंकते चलना है। कई बार पत्थर पर बीज पड़ जाता है, नहीं उगता मगर फिर भी बीज फेंकते चलना है। कभी तो मिट्टी उर्वर मिलेगी कि वहाँ वह उग जाये। हम लिखते, पढ़ते व बोलते तो रहें। कभी तो फिजां बदलेगी, हम अपने हिस्से का पौधा लगा तो दें।  हर व्यक्ति अनूठा है। सबमें कुछ न कुछ प्यार करने लायक है ही। बुद्धत्व के बीज सबमें हैं, वह फूले – फले, इस चेतना के साथ जो कर रही हैं, वह पूरे मन, पूरे प्यार से करें।

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