Thursday, August 21, 2025
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कुछ बातें

-पुष्पा मल्ल

कुछ बातें

रह जाए

और कुछ कह दी जाए

शायद जरूरी है

कुछ रिश्तों के लिए!

 

सुना तो था पर कभी लगा नहीं

कि अपनी भी बारी आएगी

कई बार लगता है

कि

बड़ी देर लगा दी सीखने में

अपनों से छुपाने में

कुछ बातें!

 

सीख गई होती तो जान जाती

उस फर्क को

कि

कुछ बातें न कहने में

और कुछ बातों का अनसुना रह जाने में

बहुत फर्क है

जैसे कुछ रह जाए और कुछ बिखर जाए।

पता नहीं

कब और कैसे आई

यह औपचारिकता

घर के बाहर जो चीजें थी

वह कब कैसे अन्दर आई

पता नहीं।

शायद रिश्तों का बदलना इसे ही कहते हैं

कि कुछ बातें

कह दी जाए

और

कुछ रह जाए!

महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए भारतीय सेना ने शुरू किया ड्राइविंग कोर्स

श्रीनगर । भारतीय सेना की राष्ट्रीय राइफल्स ने 25 सीमावर्ती गांवों की महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए 40 दिवसीय ड्राइविंग कोर्स शुरू किया है। भारत-पाकिस्तान एलओसी के पास पुंछ के मेंढर में कोर्स शुरू कराया गया है। यह 40 दिवसीय ड्राइविंग कोर्स क्षेत्र के 25 सीमावर्ती गांवों की महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। इस प्रशिक्षण के माध्यम से महिलाएं दोपहिया और चार पहिया वाहन चलाने में सक्षम होंगी। सीमावर्ती इलाकों में महिलाओं के लिए वाहन चलाने का प्रशिक्षण न केवल उनकी आजीविका के लिए बल्कि आपातकालीन परिस्थितियों में भी उपयोगी साबित होगा।
सेना द्वारा आयोजित एक विशेष कार्यक्रम में महिलाओं को इस कोर्स की जानकारी दी गई, ताकि वे इसका पूरा लाभ उठा सकें। इस पहल का महिलाओं ने खुले दिल से स्वागत किया और भारतीय सेना का आभार व्यक्त किया। उन्होंने कहा कि सेना की इस सकारात्मक मुहिम से वे न केवल आत्मनिर्भर बनेंगी बल्कि अपने परिवारों और समाज के लिए भी योगदान दे पाएंगी।
एक प्रतिभागी मीनाक्षी बक्शी का कहना है कि मैं भारतीय सेना द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम को देखकर बहुत खुश हूं, एलओसी के किनारे रहने वाली महिलाओं के लिए यह एक अच्छी पहल है। इससे उन्हें अपने सशक्तिकरण को समझने में मदद मिलेगी और हर क्षेत्र में वो आगे बढ़ेगी। सेना ने जो ड्राइविंग कोर्स लागू किया है, वह महिलाओं को भाग लेने और अपने कौशल को बढ़ाने में सक्षम बनाएगा। मेरा मानना है कि महिलाओं को आत्मनिर्भर होना चाहिए। एलओसी के किनारे रहने वाली महिलाओं के लिए हमारी सेना जो यह पहल शुरू की है, उसके लिए मैं उन्हें धन्यवाद देती हूं। वहीं जेबा अंजुम ने कहा कि मैं सेना का धन्यवाद करना चाहूंगी कि उन्होंने ऑपरेशन सद्भाव के तहत जो ये मिशन शुरू किया है। एलओसी के पास रहने वाली महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए ड्राइविंग कोर्स शुरू किया है। यहां हम लोग बिना पैसे से ड्राइविंग कोर्स करेंगे। भारत की सेना की यह अच्छी पहल है। मैं उन्हें धन्यवाद देती हूं। भारतीय सेना का यह कदम सीमावर्ती क्षेत्रों में महिलाओं को सशक्त बनाने और उनकी सामाजिक स्थिति को मजबूत करने की दिशा में एक अनुकरणीय प्रयास है।
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बजट 2025-26 और महिलाओं का सशक्तिकरण …

जिस समय भारत वित्तीय वर्ष 2025-26 में प्रवेश कर रहा है, उस समय वो जेंडर बजटिंग (बजट बनाने का एक तरीका जिसका उद्देश्य लैंगिक समानता को बढ़ावा देना और महिलाओं एवं लड़कियों के विकास का समर्थन करना है) के दो दशकों का जश्न भी मना रहा है। अपने बजट भाषण में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एक ऐसा दृष्टिकोण पेश किया जो महिलाओं को भारत के विकास की गाथा के केंद्र में रखता है. युवाओं, किसानों और महिलाओं को सशक्त बनाने पर स्पष्ट ध्यान के साथ इस साल का बजट 2047 तक विकसित भारत के व्यापक लक्ष्य के साथ मेल खाता है जिसमें ‘महिला केंद्रित विकास’ इस बदलाव की आधारशिला के रूप में है । इस बजट में निर्धारित सबसे महत्वाकांक्षी लक्ष्यों में से एक है वर्कफोर्स में 70 प्रतिशत महिलाओं को जोड़ना. लेकिन 2025-26 का जेंडर बजट इन ऊंचे लक्ष्यों पर कितना खरा उतरता है? ये लेख बजट के आवंटन की गहरी पड़ताल करता है। पता लगाता है कि रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं कल्याण और सुरक्षा जैसे प्रमुख क्षेत्रों पर बहुत ज़्यादा ध्यान के साथ बजट आवंटन महिला केंद्रित विकास के साथ कैसे जुड़ता है और उसे कैसे आगे बढ़ाता है।
रोज़गार -इस साल के लैंगिक बजट ने महिलाओं समेत नए उद्यमियों को सशक्त बनाने के उद्देश्य के साथ एक महत्वपूर्ण पहल की है जिसके तहत अगले पांच वर्षों में 2 करोड़ रुपये तक का सावधि ऋण (टर्म लोन) दिया जाएगा। वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी एक ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है और हर बजट में ये एक प्रमुख प्राथमिकता है। 2023-24 में महिला श्रम बल भागीदारी दर (फीमेल लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट या (एफएलएफपीआर) में थोड़ी बढ़ोतरी देखी गई और ये 41.7 प्रतिशत पर पहुंच गई। प्रधानमंत्री रोज़गार सृजन कार्यक्रम (पीएमईजीपी) जैसी पहल जहां उद्यमिता की सहायता के लिए तैयार की गई है। वहीं (पीएमईजीपी के लिए फंडिंग 2024-25 के 1,012.50 करोड़ रुपये की तुलना में घटकर 2025-26 में 862.50 करोड़ रुपये हो गई। ग्रामीण रोज़गार के मामले में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना , जो महिलाओं के द्वारा काम किए गए 57.8 प्रतिशत व्यक्ति दिवस प्रदान करती है, को 40,000 करोड़ रुपये मिले जो 2024-25 के 37,654 करोड़ रुपये से ज़्यादा है मगर इस आवंटन का केवल 33.6 प्रतिशत ही जेंडर बजट में दिखता है जो जेंडर उत्तरदायी बजट में महिलाओं के योगदान को पूरी तरह स्वीकार करने के बारे में चिंता पैदा करता है। इसके अलावा 80 प्रतिशत महिलाएं खेती में शामिल हैं लेकिन केवल 13.9 प्रतिशत ज़मीन मालिक महिलाएं हैं। इसके बावजूद कृषोन्नति योजना (2025-26 के लिए 2,550 करोड़ रुपये के आवंटन के साथ) जैसी कृषि योजना महिला किसानों के लिए समर्पित प्रावधान के बिना जेंडर बजट के पार्ट बी के तहत बनी हुई हैं।
शिक्षा -महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण को सामने लाने के लिए शिक्षा प्रमुख है. वैसे तो प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में लैंगिक अंतर को दूर करने में भारत ने प्रगति की है लेकिन उच्च शिक्षा में स्कूल छोड़ने की दर ज़्यादा है। उदाहरण के लिए स्टेम (साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग एंड मैथमेटिक्स) ग्रैजुएट में महिलाओं का हिस्सा 40 प्रतिशत से ज़्यादा है लेकिन स्टेम की भूमिकाओं में केवल 14 प्रतिशत महिलाएं काम करती हैं जो महिलाओं के कॅरियर छोड़ने के बारे में बताता है। 2025-26 का बजट पार्ट ए के तहत आईसीटी के माध्यम से शिक्षा पर राष्ट्रीय मिशन (एनईईआईसीटी) के ज़रिए लैंगिक डिजिटल बंटवारे का समाधान करता है जो महिलाओं के लिए 100 प्रतिशत फंडिंग का आवंटन करता है लेकिन इस योजना के लिए फंडिंग 2024-25 के 551.25 करोड़ रुपये से घटकर 229.25 करोड़ रुपये हो गई जो लैंगिक डिजिटल विभाजन को भरने के लिए संसाधनों के बारे में चिंता पैदा करती है। दूसरी तरफ समग्र शिक्षा अभियान के लिए आवंटन बढ़कर 12,375 करोड़ रुपये हो गया और पीएम श्री स्कूल योजना के लिए 2,250 करोड़ रुपये का महत्वपूर्ण आवंटन देखा गया। इस तरह शिक्षा की गुणवत्ता और स्कूल के बुनियादी ढांचे में सुधार का संकेत मिला. पिछले दो साल से प्रधानमंत्री पोषण शक्ति निर्माण (पीएम पोषण) के बजट में बढ़ोतरी भी एक जीत है। 2025-26 का बजट पार्ट ए के तहत आईसीटी के माध्यम से शिक्षा पर राष्ट्रीय मिशन (एनईईआईसीटी) के ज़रिए लैंगिक डिजिटल बंटवारे का समाधान करता है जो महिलाओं के लिए 100 प्रतिशत फंडिंग का आवंटन करता है।
आवास – इस साल के जेंडर बजट में भी आवास को एक महत्वपूर्ण हिस्सा मिला है । प्रधानमंत्री आवास योजना (पीएम आवास योजना)- शहरी के लिए आवंटन 2024-25 के 15,170 करोड़ रुपये की तुलना में बढ़कर 23,294 करोड़ रुपये हो गया जबकि पीएम आवास योजना -शहरी 2.0 के लिए आवंटन 1,500 करोड़ रुपये से बढ़कर 3,500 करोड़ रुपये हो गया। इसके अलावा पीएम आवास योजना-जी (ग्रामीण आवास) के लिए आवंटन 32,500 करोड़ रुपये से बढ़कर 54,832 करोड़ रुपये हो गया। इस अच्छी-ख़ासी बढ़ोतरी के बावजूद पीएम आवास योजना – जी के तहत केवल 73 प्रतिशत घर महिलाओं के नाम पर रजिस्टर्ड हैं जो इस बात को लेकर चिंता पैदा करता है कि किस हद तक ये फंड वास्तव में महिलाओं को सशक्त बना रहे हैं। इसके अलावा अतीत के वर्षों में पीएम आवास योजना-शहरी का पार्ट बी से पार्ट ए की तरफ परिवर्तन ने महिला विशिष्ट खर्च में उसी अनुपात की बढ़ोतरी के बिना कृत्रिम रूप से जेंडर बजट के आंकड़ों को बढ़ा दिया। वैसे तो फंडिंग में बढ़ोतरी एक सकारात्मक घटनाक्रम है लेकिन स्पष्टता की कमी और फंडिंग एवं नतीजों के बीच मेल-जोल नहीं होना ये बताता है कि इन संसाधनों के द्वारा वास्तविक बदलाव को आगे ले जाने को सुनिश्चित करने के लिए अधिक महिला केंद्रित दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
स्वास्थ्य -स्वास्थ्य महिला केंद्रित विकास का एक महत्वपूर्ण सूचक है और इस साल का बजट प्रमुख क्षेत्रों में लगातार प्रगति को दर्शाता है। सक्षम आंगनवाड़ी और पोषण 2.0 योजनाओं के लिए आवंटन 2023-24 के 450.98 करोड़ रुपये के आवंटन के पीछे चला गया है लेकिन ये पिछले साल के 220 करोड़ रुपये के आवंटन से बेहतर है। ध्यान देने की बात है कि आयुष्मान भारत- प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना ( पीएमजेएवाई) के लिए आवंटन 3,624.80 करोड़ रुपये से बढ़कर 4,482.90 करोड़ रुपये हो गया. लेकिन इस आवंटन को जेंडर बजट के पार्ट बी में शामिल किया गया है जिसके तहत कम-से-कम 30 प्रतिशत का प्रावधान महिलाओं के लिए आवश्यक है जो महिलाओं के स्वास्थ्य पर इसके वास्तविक प्रभाव के बारे में सवाल खड़े करता है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत मासिक धर्म स्वच्छता योजना (एमएचएस), जो महिलाओं के लिए एक अनूठी चिंता है, को भी पार्ट बी में शामिल किया गया है जिससे पता चलता है कि इसकी केवल 30 प्रतिशत फंडिंग महिलाओं की तरफ निर्देशित है जो कि एक गंभीर अव्यवस्था है।
सुरक्षा -सच्चे सशक्तिकरण के लिए महिलाओं की सुरक्षा अहम है लेकिन बजट आवंटन अभी भी महत्वपूर्ण कमियों को उजागर करता है। निर्भया फंड, जो फास्ट-ट्रैक कोर्ट, संकट केंद्रों और निगरानी का समर्थन करता है, में मामूली बढ़ोतरी की गई- 180 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 2025-26 में 200 करोड़ रु. लेकिन इसकी शुरुआत के समय से आवंटित 7,212 करोड़ रुपये की राशि में से लगभग 74 प्रतिशत खर्च नहीं हो पाया है जो इसके प्रभावी उपयोग के बारे में सवाल खड़े करता है। अप्रैल 2024 में शुरू मिशन शक्ति दो तरीकों से महिलाओं की सुरक्षा और सशक्तिकरण का समाधान करता है: सुरक्षा के लिए संबल (वन स्टॉप सेंटर, महिला हेल्पलाइन, इत्यादि) और सशक्तिकरण के लिए सामर्थ्य (प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना, संकल्प, इत्यादि). ‘सामर्थ्य’ के लिए फंडिंग में महत्वपूर्ण बढ़ोतरी की गई और ये 953.74 करोड़ रुपये से बढ़कर 2,396 करोड़ रुपये हो गया लेकिन ‘संबल’ को 2023-34 जैसा ही आवंटन मिला और ये 629 करोड़ रुपये पर बरकरार रहा। लैंगिक रूप से संवेदनशील सार्वजनिक परिवहन में निवेश की कमी एक बड़ी चूक बनी रही क्योंकि सार्वजनिक परिवहन को 91 प्रतिशत महिलाएं असुरक्षित एवं अविश्वसनीय मानती हैं जिससे रोज़गार तक उनकी पहुंच सीमित होती है.
लैंगिक उत्तरदायी बजट का रास्ता साफ करना – हर साल सरकार के वादों और बड़ी मात्रा में बजट आवंटन के बावजूद वास्तविक प्रगति अक्सर कम रहती है। इन आंकड़ों को सार्थक बनाने के लिए बजट आवंटन के साथ महत्वपूर्ण कदम उठाना ज़रूरी है। वास्तविक प्रभाव को सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम जेंडर बजटिंग एक्ट को लागू करना होगा जिसकी सिफारिश नीति आयोग ने की है. ये अधिनियम सभी मंत्रालयों और राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में जेंडर आधारित बजट को संस्थागत रूप देगा। इसके साथ-साथ ये लिंग के आधार पर विभाजित आंकड़ों को इकट्ठा करना और उनका प्रकाशन आवश्यक बना देगा जो फिलहाल प्रगति पर नज़र रखने में एक महत्वपूर्ण कमी है। वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाने के लिए हमें मानवीय पूंजी को विकसित करने पर ध्यान देना चाहिए. ये स्वास्थ्य, शिक्षा एवं कौशल विकास में निवेश को बढ़ाकर और बढ़ी हुई आवास सब्सिडी पर अनावश्यक खर्च को घटाकर हासिल किया जा सकता है। वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाने के लिए हमें मानवीय पूंजी को विकसित करने पर ध्यान देना चाहिए. ये स्वास्थ्य, शिक्षा एवं कौशल विकास में निवेश को बढ़ाकर और बढ़ी हुई आवास सब्सिडी पर अनावश्यक खर्च को घटाकर हासिल किया जा सकता है। इसके अलावा बिना वेतन देखभाल के बोझ (अनपेड केयर बर्डन), जो भारत की जीडीपी का 15 प्रतिशत से 17 प्रतिशत हिस्सा है, का पेड लीव नीतियों, केयर सर्विस सब्सिडी और देखभाल करने वालों के लिए कौशल निर्माण के माध्यम से समाधान करने को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
अंत में, जलवायु परिवर्तन के तेज़ होते असर के साथ महिलाएं विशेष रूप से कृषि और प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन में सबसे आगे है। अध्ययनों से पता चलता है कि झुलसाने वाली गर्मी और जलवायु से जुड़े दूसरे संकटों का महिलाओं पर अत्यधिक असर पड़ता है । जेंडर बजटिंग को अपडेट किया जाना चाहिए ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके कि ये वास्तव में समावेशी हो और सक्षी क्षेत्रों में महिलाओं की तत्काल और दीर्घकालिक- दोनों आवश्यकताओं को हल करता हो।

शैरॉन सारा थवानी कोलकाता में ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के डायरेक्टर की एग्ज़ीक्यूटिव असिस्टेंट हैं.
(साभार – ऑबजर्वर रिसर्च फाउंडेशन की वेबसाइट)
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भारत की पहली महिला चिकित्सक डॉ. आनंदीबाई जोशी

भारत के चिकित्सा क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है। वर्ष 2023-24 में मेडिकल स्कूल के छात्रों में महिलाओं की हिस्सेदारी 54.6 % रही। वहीं एनएसएसओ 2017-18 की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 29 फीसदी महिलाएं डॉक्टर हैं। दाइयों समेत लगभग 80 फीसदी नर्सिंग स्टाफ और 100 प्रतिशत आशा कार्यकर्ता महिलाएं हैं। महिला सशक्तिकरण के इतिहास में चिकित्सा क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी एक महत्वपूर्ण उपलब्धि रही है। भारतीय महिलाओं ने अपनी मेहनत और लगन से चिकित्सा के क्षेत्र में न केवल अपनी पहचान बनाई, बल्कि समाज में बदलाव भी लाया। मेडिकल के क्षेत्र में बढ़ रही महिलाओं की भागीदारी का श्रेय डॉ. आनंदीबाई जोशी को जाता है। डॉ. आनंदीबाई जोशी पहली भारतीय महिला डॉक्टर थीं। उनकी संघर्षपूर्ण यात्रा ने देश की अन्य महिलाओं को भी चिकित्सकीय शिक्षा हासिल करने और इस क्षेत्र में करियर बनाने के लिए प्रोत्साहित किया। आइए जानते हैं भारत की पहली महिला डॉक्टर आनंदीबाई जोशी के चिकित्सक बनने के सफर के बारे में। डॉ. आनंदीबाई गोपालराव जोशी भारत की पहली महिला डॉक्टर थीं। उनका जन्म 31 मार्च 1865 को महाराष्ट्र के ठाणे जिले में जमींदार परिवार में हुआ था। मात्र 9 वर्ष की उम्र में उनका विवाह गोपालराव जोशी से हुआ। गोपालराव उनसे 16 साल बड़े थे। गोपाल राव ने आनंदीबाई को शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया।

आनंदीबाई की शिक्षा और संघर्ष – आनंदीबाई 14 वर्ष की आयु में मां बनीं लेकिन शिशु चिकित्सा सुविधा की कमी के कारण बन नहीं सका। इस घटना से आनंदीबाई बहुत दुखी हुईं और डॉक्टर बनने का निश्चय किया ताकि भविष्य में भारत में महिला स्वास्थ्य की दिशा में काम कर सकें और चिकित्सकीय कमी के कारण किसी बच्चे की जान न जाए। उन्होंने 1883 में अमेरिका के पेनसिल्वानिया में महिला मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिया। पढ़ने के लिए आनंदी ने अपने सारे गहने बेच दिए। पति गोपालराव और कई शुभचिंतकों ने भी आनंदी को सहयोग किया। 1886 में महज 19 साल की उम्र में आनंदीबेन ने डॉक्टर ऑफ मेडिसिन (M.D.) की डिग्री हासिल कर ली। आनंदीबाई पहली भारतीय महिला थीं, जिन्होंने एमडी की डिग्री प्राप्त की थी और देश की पहली महिला डॉक्टर बनीं उनकी इस उपलब्धि के लिए उन्हें क्वीन विक्टोरिया से भी सराहना मिली। स्वदेश वापसी के बाद उन्होंने कोल्हापुर रियासत के अल्बर्ट एडवर्ड अस्पताल के महिला वार्ड में प्रभारी चिकित्सक पद पर कार्य शुरू किया हालांकि महज 22 वर्ष की आयु में 26 फरवरी 1887 को टीबी की बीमारी से ग्रस्त होने के चलते आनंदीबाई का निधन हो गया।

महिला दिवस विशेष : भारत की पहली महिला वकील कॉर्नेलिया सोराबजी

वर्तमान में भारत ही न्यायालयों में जज से लेकर वकील तक महिलाओं की संख्या पुरुषों की तुलना में बेहद कम है। साल 2022 में बार काउंसिल ऑफ इंडिया की ओर से दी गई जानकारी के मुताबिक, देशभर में सिर्फ 15.3 फीसदी महिला वकील हैं। इसमें सबसे बड़े हाई कोर्ट यूपी में सबसे कम केवल 8.7 % महिला वकील हैं। मेघालय (59.3%) और मणिपुर (36.3%) में सबसे अधिक महिला वकील नामांकित हैं।
हालांकि कोर्ट रूम में स्त्रियों के लिए जगह बनाने का काम एक ऐसी महिला ने किया, जिन्होंने उस दौर में कानून की पढ़ाई की थी, जब महिलाओं के वकालत करने पर प्रतिबंध हुआ करता था। उन्होंने पहली महिला एडवोकेट बनकर भविष्य की नारी के लिए कोर्ट रूम के दरवाजे खोल दिए। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर भारत की पहली महिला वकील और वकालत के क्षेत्र में उनकी चुनौतियों के बारे में जानिए ताकि उनके योगदान के लिए उन्हें सम्मानित किया जा सके।
कौन हैं भारत की पहली महिला वकील – भारत की पहली महिला वकील कॉर्नेलिया सोराबजी है। उनका जन्म 15 नवंबर 1866 को महाराष्ट्र के नासिक जिले में हुआ था। उनके पिता एक पादरी थे, क्योंकि ईसाइयों पर पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव था, इस कारण ईसाई महिलाओं की शिक्षा पर प्रतिबंध नहीं था। हालांकि उच्च शिक्षा तो पहुंचने का रास्ता कोर्नेलिया के लिए भी आसान नहीं था। कोर्नेलिया की मां फ्रैंसिना फोर्ड की परवरिश एक अंग्रेज दम्पत्ति ने की थी, जिन्होंने उन्हें अच्छी शिक्षा दिलाई। फ्रैंसिना ने भी अपनी बेटी की पढ़ाई पर जोर देते हुए उन्हें यूनिवर्सिटी पढ़ने भेजा। कोर्नेलिया सोराबजी की शिक्षा- कोर्नेलिया पहली लड़की थीं, जिन्हें बाॅम्बे यूनिवर्सिटी में पढ़ने की इजाजत मिली। इसके पहले तक उस यूनिवर्सिटी में लड़कियों को दाखिले का अधिकार नहीं था। यहां से ग्रेजुएशन के बाद कोर्नेलिया आगे की पढ़ाई के लिए लंदन जाना चाहती थीं। हालांकि उनके परिवार के पास कोर्नेलिया को विदेश भेजने के पैसे नहीं थे लेकिन उनके पिता ने नेशनल इंडियन एसोसिएशन को पत्र लिखकर आगे की शिक्षा के लिए आर्थिक मदद मांगी। ब्रिटिश ननिहाल के कारण कोर्नेलिया को आसानी से आक्सफोर्ड जाने का मौका मिल गया।
वकालत की पढ़ाई करने वाली पहली भारतीय महिला – कोर्नेलिया सोराबजी ने आक्सफोर्ड के समरविल कॉलेज से सिविल लाॅ की डिग्री हासिल की और वकालत की पढ़ाई करने वाली पहली भारतीय महिला बन गईं। इसी के साथ उस कॉलेज से टाॅप करने वाली वह पहली भारतीय महिला थीं। भारत वापस आकर कोर्नेलिया ने 1897 में बॉम्बे यूनिवर्सिटी से एलएलबी की। डिग्री और योग्यता के बाद भी कोर्नेलिया वकील नहीं बन पाईं क्योंकि तब महिलाओं को वकालत करने का अधिकार नहीं था।
प्रैक्टिस के लिए किया संघर्ष – वह संघर्ष करती रहीं। विरोध का सामना किया और अंत में 1923 में कानून में बदलाव होते ही अगले वर्ष कोर्नेलिया सोराबजी को कोलकाता में बतौर एडवोकेट प्रैक्टिस का मौका मिला। हालांकि 1929 में 58 वर्ष की आयु में उन्हें हाईकोर्ट से रिटायरमेंट मिल गई।

महिला दिवस विशेष : सबसे बड़ी चुनौती पितृसत्तात्मक सोच वाली शातिर महिलाएं ही हैं

महिला दिवस को लेकर आज जब हम बात कर रहे हैं तो हमें चीजों को अलग तरीके से देखना होगा क्योंकि आज की परिस्थिति में और कल की परिस्थिति में बहुत नहीं तो थोड़ा अन्तर तो आया ही है।  महिला दिवस मेरे लिए आत्मविश्लेषण का अवसर है क्योंकि आज महिलाएं दो अलग छोर पर हैं, एक ऐसा वर्ग जो आज भी जूझ रहा है, जिसके पास बुनियादी अधिकार नहीं हैं, कुरीतियों और बंधनों से जकड़ी हैं…जीवन के हर कदम पर उनके लिए यातनाएं हैं, प्रताड़नाएं हैं। दूसरी तरफ एक वर्ग ऐसा है जो अल्ट्रा मॉर्डन है और उसे इतना अधिक मिल रहा है कि वह उसे बनाए रखने के लिए साजिशों पर साजिशें रच रहा है और दूसरी औरतों को सक्षम बनाने की जगह उनके साथ माइंड गेम खेल रहा है। उसे महिला होने की सुविधा चाहिए पर समानता को लेकर जो दायित्व हैं, उससे उसका सरोकार नहीं। पहले वर्ग पर बातें खूब हो रही हैं इसलिए आज मैं दूसरे वर्ग पर बात करना चाहूँगी। पितृसत्तात्मक सोच वाली ऐसी शातिर महिलाएं किचेन पॉलिटिक्स व ऑफिस पॉलिटिक्स में माहिर हैं। ऐसी औरतें हमारे घरों में हैं और दफ्तरों में हैं और इन सबका टारगेट हर वह संघर्ष कर रही महिला है जो प्रखर है, मुखर है, कहीं अधिक प्रतिभाशाली है और अपने दम पर आगे बढ़ने के लिए जूझ रही हैं और इन दोनों के बीच पिस रही है।

मेरा मानना है कि महिला हो या पुरुष, देवी या देवता जैसी चीज कभी नहीं रही। अच्छा और बुरा दोनों जगह रहा मगर चीजें आज जिस तरह से रूप ले रही हैं, मुझे लगता है कि घरेलू हिंसा के स्वरूप और दायरे को लेकर फिर से सोचने की जरूरत है। समानता के अर्थ को लेकर विचार करने की जरूरत है । यह सरासर हिप्पोक्रेसी है जब घरेलू हिंसा को सिर्फ ससुराल में की गयी हिंसा से ही जोड़कर देखा जाता है क्योंकि घरेलू हिंसा तो लड़कियां जन्म से ही झेलती हैं जब कन्या भ्रूण हत्या होती है। नियंत्रित तो बचपन से ही उनको किया जाता है, मां उनके हिस्से की रोटी से लेकर सम्पत्ति तक सब अपने बेटों को सौंप देती है..जीवनसाथी चुनने पर ऑनर किलिंग आज भी होती है। आप मुझे एक बात बताइए कि कितनी लड़कियों ने इसलिए घर छोड़ दिया और अपने घरवालों से मुआवजा मांगा या एफआईआर दर्ज करवायी कि उनके पिता शराबी हैं, भाई मारपीट करता है, मां पक्षपात करती है, भाभियां या रिश्तेदार ताने मारते हैं…आज तक आपने सुना है..अपवाद तो सब जगह होते हैं..आप हर एक गलत सहकर हर कीमत पर अपने मां-बाप की कमियां छुपाती हैं, मायके वालों से रिश्ते निभाती हैं। महान बनकर अपनी सम्पत्ति तक छोड़ देती हैं जो कि वाकई आपकी है क्योंकि आपका जन्म वहीं हुआ है। वहीं यह सारी बातें ससुराल में होती हैं तो आप क्रांति करने लगती हैं। अगर आप एक अनजान घर में अपना सब कुछ छोड़कर जा रही हैं तो वह घर भी आपके लिए अपने सालों पुराने कायदे बदल रहा है। अगर आप दलील देती हैं कि आप सब कुछ छोड़कर आ रही हैं और एक मां और बहन ने भी अपने बेटे पर से अधिकार आपको सौंपे हैं.। मां –बाप दहेज देते हैं तो अपनी बेटी के लिए और कई बार स्टेटस के लिए भी देते हैं और लड़के वाले लेते समय यह नहीं सोचते कि अगर वह कुछ ले रहे हैं तो इसके लिए उनको बहुत सी चीजों से समझौता करना पड़ेगा। अपनी सास और अपने ससुर को आप माता – पिता नहीं मानतीं…पति के भाई –बहन आपके लिए जान भी निकालकर रख दें तो भी वे आपके भाई बहन नहीं हैं तो आपको इतनी उम्मीद क्यों है।  आज तक क्या किसी लड़की ने अपने पिता या भाई से एलिमनी की तरह मुआवजा मांगा है। महिलाएं आज के समाज में दो छोर पर खड़ी हैं…एक जो बहुत सशक्त है और दूसरी जो अभी भी जूझ रही है। महिलाओं की किचेन पॉलिटिक्स ऐसा मेंटल ट्रॉमा है जो न जाने कब से चला आ रहा है..राजमहलों में क्या षड्यंत्रकारियों में महिलाएं नहीं होती थीं। महिलाओं को खुद महिलाओं ने पीछे खींचा है…महिलाओं के साथ सबसे ज्यादा राजनीति खुद महिलाएं ही करती हैं। आप हर बात के लिए पितृसत्ता को दोष देकर पीछा नहीं छुड़ा सकते क्योंकि पितृसत्ता तो है मगर उसे पालने वाली महिलाएं ही हैं । अगर सम्पत्ति के अधिकारों की बात करूँ तो ससुराल में उनका अधिकार उतना ही होना चाहिए जितना उनके पति का है…मगर बहुएं अपना ही नहीं..घर के बाकी सदस्यों का हिस्सा हड़प रही हैं। घर में राशन छिपाना, आर्थिक तौर पर कमजोर सदस्य को प्रताड़ित करना, उसे नीचा दिखाना, ताने मारना…यह काम घर की औरतें ही करती हैं। सब कुछ मुझे चाहिए…मायके में वह घर जोड़ती हैं और ससुराल में हर चीज तहस-नहस कर रही हैं। मायके में इनको बेटी का अधिकार चाहिए मगर जिम्मेदारी नहीं निभानी तो दूरी का बहाना बनाती हैं और ससुराल में खुद को पराया कहकर बार – बार विक्टिम कार्ड खेलती हैं और घर की  बेटी को ही बहिरागत बनाकर रख देती हैं। क्या हम ऐसी औरतों की पूजा करें? अपने पति को उसके परिवार से छीनकर अलग करने वाली महिलाओं को घर जोड़ने वाली लड़की कहां से मिलेगी? आप घर छोड़कर आईं और बदले में आपने अपने पति का घर छीन लिया । जिन रिश्तों को जी रहा था, आप उसके बीच में आ गयीं। बच्चे ने कभी वह रिश्ते देखे ही नहीं तो निभाएगा कैसे? आपने नहीं अपनाया तो कोई आपको क्यों अपनाएं?

आप दहेज मत दीजिए मगर एलिमनी भी मत लीजिए । समानता और निर्भर होना, यह दोनों एक साथ नहीं चल सकते। बस की सीट चाहिए तो भी महिला होने का फायदा उठाइए और दफ्तर में छुट्टी चाहिए तो भी आप महिला बनकर लाभ उठाइए…अतुल सुभाष जैसे मामले जिस तरह से सामने आ रहे हैं..जिस तरह करोड़ों की एलिमनी एक आत्मनिर्भर व सक्षम महिलाएं ले रही हैं…वह महिलाओं को कहीं से सशक्त नहीं करने जा रहा। अभी एक फिल्म आई है मिसेज… सहमत भी हूँ…किरदार से पर एक सवाल..कमियां तो आपके पिता..भाई- बहन या माँ भी निकालते हैं..ताने भी मारते हैं..उत्पीड़न भी करते हैं..आपमें से कितनी महिलाओं ने उनके मुँह पर गंदा पानी फेंका है या विरोध किया है या कर रही हैं..अपने मायके को शराबी पिता या भाई के और उनकी घरेलू हिंसा कारण छोड़ देने की हिम्मत दिखाई है? वहाँ तो सब ओके ही है… मेरा आशय यह है कि हिंसा तो हिंसा है..वो तो कहीं भी अस्वीकार्य है तो फिर मायके में चलता है और ससुराल में नहीं सहेंगे और क्रांति…! ये दोहरा रवैया या यूं कहें दोगलापन क्यों????? महिला दिवस बाजार का दिवस बनकर रह गया है। अगर आप महिला हैं तो इसमें आपका कमाल क्या है और कोई पुरुष है तो उसमें उसका दोष क्या है…अगर आप सशक्त हैं तो दूसरों को सशक्त बनाइए। समानता का मतलब एक को कमजोर करना या हुकूमत चलाना नहीं है..। घर सिर्फ स्त्रियों के ही नहीं होते, पुरुषों के भी होते हैं…कभी उनको भी कहिए आज मैं सम्भाल लूंगी…इन्जॉय करो।

जश्न ए अजहर रंग संवाद में प्रताप सहगल के नाटकों पर चर्चा

कोलकाता । कलकत्ते की सुप्रसिद्ध संस्था लिटिल थेस्पियन का 14वा राष्ट्रीय नाट्य उत्सव जश्न -ए -अज़हर का चौथा दिन ज्ञान मंच के प्रांगण में संपन्न हुआ। संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार के सहयोग से आयोजित इस नाट्य उत्सव के चौथे दिन का प्रथम सत्र, संवाद सत्र था जिसका केंद्रीय विषय था प्रताप सहगल के नाटकों में मानवीय अस्तित्व की खोज। इस संवाद सत्र में मंच पर वक्त के रूप में उपस्थित थे ,डॉ. शुभ्रा उपाध्याय (कोलकाता) ,डॉ. ईतू सिंह (कोलकाता), डॉ. रेशमी पांडा मुखर्जी (कोलकाता), डॉ. कृष्ण कृष्ण श्रीवास्तव (आसनसोल) ,श्री अशरफ अली (दिल्ली), गौरव दास (कोलकाता)।
इतू सिंह ने इस विषय पर अपनी बात रखते हुए कहा कि मानवीय संवेदना के बिना साहित्य नहीं लिखा जा सकता।नाटक पढ़ने से अधिक देखने में समझ आता है यही रंगमंच की सबसे बड़ी उपलब्धि है । प्रताप सहगल अपने नाटकों में मानवीय मूल्यों को केंद्र में रखते है। डॉ शुभ्रा उपाध्याय ने रामायण के उदाहरण से अपनी बात शुरू करते हुए बोलती है कि मानवीय अस्मिता मनुष्य होने की पहचान है। रंगबसंती पर बात करते हु कहा कि पात्र भगत सिंह के भीतर मानवीय मूल्यों को बचाने की चाह नज़र आती है। अन्वेषक और तीन गुमशुदा लोग पर भी अपनी बात रखी।
कृष्ण कुमार श्रीवास्तव अंतराल, कोई ओर रास्ता, फैसला इन नाटकों की स्त्री पात्र पर अपनी बात रखी और स्त्री के भीतर की संवेदना को मुख्य रूप से रेखांकित करते है। अशरफ़ अली ने तीन गुमशुदा नाटक पर टिप्पणी करते हुए लेखक और निर्देशक के विचारों की समन्वय पर अपनी बात रखी और रंगमंच के तथ्यों को रेखांकित करते है। डॉ गौरव दास ने कहा कि प्रताप सहगल के सभी नाटक संवेदनाओं से भरपूर है । दूसरे सत्र में खुर्शीद एकराम मन्ना को उनके नाटक में योगदान के लिए सम्मानित किया गया। तीसरे सत्र में प्रताप सहगल का नाटक ‘ तीन गुमशुदा लोग ‘ का मंचन अशरफ अली के निर्देशन में अनुरागना थिएटर ग्रुप द्वारा प्रस्तुत किया गया। नाटक ‘तीन गुमशुदा लोग’, तीन कहानियों – ‘जुगलबंदी’, ‘क्रॉस रोड्स’, और ‘मछली मछली कितना पानी’ का एक आकर्षक और विविध संग्रह है, जो प्रतिष्ठित डॉ. प्रताप सेहगल द्वारा लिखा गया है। अशरफ अली के निर्देशन में, ये तीन स्वतंत्र कथाएं एक एकीकृत, आत्मा-स्पर्शी रंगमंचीय अनुभव में मिल जाती हैं। यह मर्मस्पर्शी नाटक जीवन के अस्तित्ववादी संकटों की एक विचारोत्तेजक खोज है, जो शांत रूप से दर्शकों को अपने भीतर एक आत्म-निरीक्षण यात्रा पर निकलने के लिए प्रेरित करती है।

तीसरे दिन  प्रथम सत्र में नाटककार प्रताप सहगल के नाटक ‘ बच्चे बड़े हो रहे हैं ‘ का मंचन हुआ जिसके निर्देशक गौरव दास, नाट्य संस्था संतोषपुर अनुचिंतन के द्वारा प्रस्तुत किया गया। “बच्चे बड़े हो रहे हैं” एक ऐसा नाटक है जो प्रताप सहगल की कविता के माध्यम से कोलकाता के पेयराबागान की झुग्गी-झोपड़ी क्षेत्रों के बच्चों के जीवन पर प्रकाश डालता है। यह नाटक पेयराबागान की झुग्गी-झोपड़ी से एक समूह के बच्चों के किशोरावस्था में प्रवेश करने की एक आउट-ऑफ-द-वर्ल्ड कहानी सुनाता है। जश्न- ए- अज़हर के तीसरे दिन रंगमंच की प्रसिद्ध रंगकर्मी, अभिनेत्री सीमा घोष को उनके नाटक में योगदान के लिए सम्मानित किया गया। दूसरे सत्र में नाटक अंतराल का मंचन गौरी देवल नाट्य संस्था यूनिकॉर्न एक्टर्स स्टूडियो, दिल्ली के निर्देशन में हुआ जिसके नाटककार प्रताप सेहगल है। अंतराल, एक ऐसा नाटक है जो मूल्यों की हमेशा बदलती प्रकृति से संबंधित है। यह नाटक एक खोजी गई मान्यता पर आधारित है, कि मूल्य, चाहे वे कितने भी उच्च या निर्दोष क्यों न हों, धीरे-धीरे अपने गौरव में एक अवधि के दौरान फीके पड़ जाते हैं। यह अवधि, यह अंतराल जो लोगों के मन और जीवन के बीच मौजूद है और यह कि प्रत्येक व्यक्तिगत जीवन एक ही तरह के मूल्यों द्वारा शासित नहीं हो सकता है। मंजू एक बुद्धिमान महिला है जो त्रासदी से आकारित हुई है।

सीढ़ियों का सहारा लीजिए..इस्तेमाल मत कीजिए

पेशेवर जीवन के दो दशक से अधिक का समय बीत चला है तो आज कई बातें उन महत्वाकांक्षी युवाओं और अवसरवादी संस्थानों से कहने का मन हो रहा है जो अपने संस्थानों के विश्वसनीय एवं निष्ठावान पुराने कर्मचारियों की भावनाओं के साथ शतरंज खेलते हैं । कर्मचारी जो रसोई में तेजपत्ते की तरह होते है, पहले उनको चढ़ाया जाता है, नींबू की तरह निचोड़ा जाता है और फिर जब वह सीनियर बनते हैं तो दूध में मक्खी की तरह निकालकर फेंक दिया जाता है। आजकल सबकी शिकायत रहती है कि निष्ठावान लोग नहीं मिलते। जो नये लोग मिलते हैं..वह संस्थान को प्रशिक्षण संस्थान समझकर सीखते हैं और चल देते हैं। एक बार आइने में खड़े होकर देखिए और आपको पता चल जाएगा कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है। सबसे बड़ी बात यह है कि मालिकों को अब खुद से पूछना चाहिए कि क्या वह इस लायक हैं कि उनको कोई समर्पित कर्मचारी मिले जो उनके संस्थान के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दे। कॉरपोरेट जगत वकालत कर रहा है कि कर्मचारियों को 70 घंटे काम करना चाहिए..सवाल है क्यों करना चाहिए…और सबसे बड़ी बात आखिर इसके बाद कर्मचारियों को क्या मिलना है? क्या जिन्दगी में पैसा ही सब कुछ है और चंद रुपये अगर मिल भी जाएं तो क्या आप गारंटी देते हैं कि ऐसे कर्मचारियों को कभी काम से नहीं निकाला जाएगा? अगर आप खुद वफादार नहीं हैं तो आपको वफादारी की उम्मीद क्यों होनी चाहिए। .ऐसे लोगों को कर्मचारी नहीं…वफादार कुत्तों की जरूत है..दिमागी तौर पर बीमार लोग हैं ये।
आजकल एक मुहावरा चला है कि अंधा अपनी देख पाने पर लाठी फेंक देता है…आधी बात हम पूरी करते हैं..दरअसल लाठी अंधे को बेबस समझकर तब अपना उल्लू सीधा करने लगती है…उसका सहारा नहीं रह जाती..वो उसे हांकने लगती है…अंधे की मजबूरी का फायदा उठाने लगती है..उसे लगता है कि अंधे तो हज़ार हैं..कोई न कोई मिल ही जाएगा और जब वो मिल जाए तो कल तक वो जिसका सहारा थी उसके सर पर बजने भी लगती है तो अंधे को अपनी जान बचाने के लिए मजबूर होकर लाठी छोड़नी पड़ती है…वो गिरने का जोखिम उठा रहा होता है कि ईश्वर दूसरी और कहीं बेहतर लाठी भेज देते हैं..मगर गिरने नहीं देते
इसी तरह संस्थान अपने पुराने कर्मियों के साथ गेम खेलते हैं…नए चेहरे लाकर उनको बेइज्जत किया जाता है…नए लोगों को मौका देने के नाम पर पुराने लोगों से हर चीज़ छीनी जाती है…जिसने पूरा जीवन दे दिया आपके संस्थान को चमकाने में…वो आपके लिए दूध की मक्खी हो जाता है..आप अपना वेतन और सुविधाओं के साथ समझौते नहीं चाहते मगर पुराने लोगों की पदोन्नति और वेतन आपको चुभते हैं…नए लोग आपकी शह पाकर पुराने लोगों के साथ खेलते हैं..और आप पुराने लोगों पर ईर्ष्या का टैग लगा देते हैं…फिर मानसिक और आर्थिक उत्पीड़न शुरू होता है और मजबूरन आपके संस्थान की नींव की ईंट बना वो व्यक्ति आपकी बेईमानी की आग में खत्म होकर रह जाने से बेहतर आपको छोड़ना समझता है…
एक बात जो नए लोग शॉर्टकट में इस गेम का हिस्सा बन रहे हैं..वो जान लें कि पुराने तो आप भी होंगे..धक्का आपको भी दिया जाएगा..सफ़लता सीढ़ियों से चढ़कर आएगी तो गिरेंगे तो भी सीढ़ी सम्भाल लेगी..शॉर्टकट लिफ्ट है…बीच में ही रुकेगी तो दम घुट भी सकता है और गिरे तो सीधे खत्म हो जाएंगे…वो सीढ़ी…कोई और नहीं आपके वही सीनियर हैं…जिनको अपमानित कर आप खुद को विजेता समझ रहे हैं..ऊंचाई कभी किसी की नहीं होती…कितने भी बड़े हों एक दिन उतरना ही पड़ेगा और तब आपको सहारे की जरूरत पड़ेगी तब क्या करेंगे? जिनको आप पायदान समझ रहे हैं…वो तब आपके साथ क्यों रहेंगे…इतनी हड़बड़ी क्यों है? धोखेबाज आप दोनों हैं पुराने लोग नहीं।
सीनियर किसी नदी का पत्थर नहीं होते जो आपको अपनी पीठ दें कि आप उन पर चढ़कर कॅरियर की नदी पार करें, वह सीढ़ी भी नहीं होते कि आप उनकी पीठ को पायदान बनाकर चापलूसी का सहारा लेकर सफलता की सीढ़ियां चढ़ते जाएं। मत भूलिए कि आप भी एक दिन वरिष्ठ होंगे और आज आप जिनकी चापलूसी के लिए तलवे चाटने में लगे हैं, वही कल आपको धक्के मारकर निकाल देंगे और पहचानेंगे तक नहीं। एक दिन आएगा जब आपकी चालाकियां पकड़ी जाएंगी और आपको भी वैसे ही धक्के मारकर निकाला जाएगा जैसे आपने अपने सहकर्मियों को निकलवाया था, उनको अपमानित करवाया था । लालच की लिफ्ट पर चढ़कर आप इतने अंधे हो गये कि जिस मकान ने आपको आसरा दिया…आप उसी को गिराने की साजिशें रचने लगे? अगर इतना ही सामर्थ्य है तो अपनी इच्छा शक्ति से अपनी मेहनत से अपने लिए स्थान बनाइए…आप जो कर रहे हैं या आपने जो किया..उसे ही विश्वासघात कहते हैं…जब आप किसी के न हुए तो अपने लिए इतनी उम्मीदें क्यों?
अगर अगर आप पैकेज के पीछे कुत्तों की तरह भाग रहे हैं तो कॉरपोरेट में कुत्तों की तरह ट्रीटमेंट पाने के लिए तैयार रहिए क्योंकि कोई भी आपको करोड़ों का पैकेज आपका चेहरा देखने के लिए नहीं देगा। जो लोग पैकेज की वकालत करते हैं, वह भूल जाते हैं कि कार्यास्थल का परिवेश, अच्छे सहकर्मी, सीखने का माहौल..भी बहुत जरूरी है। ऐसी जगह जहां आप काम करने के साथ सांस ले सकें…खुलकर जी सकें…बहुत जरूरी है….। पैकेज पर ध्यान देना जरूरी है…मगर इसके साथ जरूरी है कि आपको एक सुरक्षित परिवेश भी मिले। बाकी राजनीति तो हर जगह है, यह आप पर है कि आप कितना सीखते हैं, और किस तरह आगे जाते हैं। जहां भी दीजिए शत -प्रतिशत दीजिए..नहीं दे सकते तो जगह खाली कीजिए..ब्रेक लीजिए और फिर आगे बढ़िए।
बहुत से युवा और वरिष्ठ भी एक कम्पनी से दूसरी कम्पनी, एक संस्थान से दूसरे संस्थान बस भागते ही रहते हैं…इससे होता क्या है कि आपकी क्षमता और आपकी जवाबदेही के साथ आपके गुडविल पर भी सवाल खड़े होते हैं । जब काम छोड़ें तो एक वाजिब कारण तो होना ही चाहिए। अपने निजी अनुभव से कह रही हूँ..जब कोई आप पर विश्वास करता है और आप उसे छोड़कर कहीं और जाते हैं और बताए बगैर जाते हैं तो बहुत तकलीफदेह होता है। इसकी पीड़ा भी किसी रिश्ते के छन से टूटने जैसी होती है । अगर आपको जाना ही है और आपका संस्थान बहुत अच्छा है, सहयोग करता है तो इसका आदर कीजिए। समय लीजिए और सबसे पहले अपना बैकअप तैयार कीजिए..अपना विकल्प तैयार कीजिए..मानसिक रूप से तैयार कीजिए और बहुत अच्छे वातावरण को बनाए रखकर आगे बढ़िए…बगैर किसी शिकायत के…और अपने रिश्ते बरकरार रखिए..यही चीजें काम आती हैं अंत में। आप देखेंगे…आपके कठिन से कठिन दौर में आपके सहकर्मी, आपके सहयोगी..आपके सीनियर आपके साथ होंगे…तब भी जब आपके अपने आपके साथ न हों..।
मेरा सुझाव यह है कि कहीं भी नौकरी से पहले यह जरूर देखें कि उस दफ्तर में सीनियर लोगों के साथ कैसा बर्ताव होता है क्योंकि सीनियर तो काम करते हुए आप भी होंगे। माना कि कॉरपोरेट में रिश्ते नहीं बनते या हमें अपने काम से काम रखना चाहिए मगर दफ्तर में हम मशीन बनकर तो काम नहीं कर सकते। मुझे तो लगता है कि कार्यस्थल पर ही कई बार अच्छे दोस्त मिल जाते हैं, अच्छे सीनियर मिल जाते हैं जो कई बार सिर पर छत की तरह बन जाते हैं । अच्छे मेंटर का मिलना, अच्छा सीनियर मिलना भाग्य की नहीं, सौभाग्य की बात है, उनका आदर कीजिए…सीखिए मगर इस्तेमाल मत कीजिए क्योंकि हम औऱ आप जो करते हैं,,,वही कर्म लौटकर आता है।

“मेरी जापान यात्रा: दुआओं का कबूलनामा” का लोकार्पण

कोलकाता । गत दो मार्च रविवार को विचार मंच के तत्वावधान में, पारसमल कांकरिया सभागार में डॉ. किरण सिपनी के यात्रा संस्मरण “मेरी जापान यात्रा: दुआओं का कबूलनामा” का लोकार्पण हुआ।  कार्यक्रम का शुभारंभ श्रीमती लीला शाह के मंगलाचरण से हुआ। पूजा मूंधड़ा ने तिलक लगाकर अतिथियों का स्वागत किया। विचार मंच के मंत्री प्रदीप पटवा जी ने संस्था का संक्षिप्त परिचय देते हुए अतिथियों का स्वागत किया। संस्था के अध्यक्ष श्री सरदार मल जी कांकरिया ने संस्था की गतिविधियों पर प्रकाश डालते हुए किरण सिपानी को बधाई दी।
प्रमुख वक्ता प्रमोद शाह ने कहा कि यह कबूलनामा दोनों तरफ से है- जापान की ओर से भी और हमारी ओर से भी। भाई साहब के कारण जापान से यह रिश्ता बना जिसे भाभीजी ने पूरे समर्पण से निभाया। किरण जी ने संस्मरण -पुस्तक में यात्राओं का खूबसूरती से वर्णन किया है। जापान का वर्णन पूरी बारीकी से करते हुए आधिकारिक ढंग से जापान के इतिहास पर बात की है। इसमें आत्मीयता की छुअन है। अपनी बेटी और दामाद के प्रति कृतज्ञता भी है जिन्होंने इस यात्रा को सरस और सुगम बनाते में बड़ी भूमिका अदा की।
किरण बादल जी ने कहा कि किरण सिपानी जी ने बड़े सहज सरल शब्दों में सरसता से अपने अनुभवों को शब्दबद्ध किया है। इसे पढ़ते हुए आत्मकथा, संस्मरण, यात्रा वर्णन, कथा आदि कई विधाओं को पढ़ने का आनंद मिलता है।
अपने लेखकीय वक्तव्य में किरण सिपानी जी ने कहा कि हम कोई भी काम करें- दिल दिमाग और हाथों को साथ लेकर काम करें, तभी समाज का उत्थान होगा। साहित्य के पुरोधाओं ने मेरे लेखन को प्रभावित किया। समाज की विसंगतियों एवं ज्वलंत विषयों को अपनी लेखनी के माध्यम से उठाने की कोशिश की है। मैं अपने शहर कलकत्ता के प्रति बहुत आभारी हूँ। जापान के अनुशासन और देश के प्रति निभाई जाने वाली जिम्मेदारी ने मुझे प्रभावित किया । हिरोशिमा को देखने की बचपन से इच्छा थी। व्हीलचेयर पर तीन तल्लों में फैले म्यूजियम को घूमकर देखते हुए लगा कि शरीर में रक्त नहीं दर्द बह रहा है।
मंगत बादल ने कहा कि दीदी के साथ मेरा हृदय का संबंध है। आज समाज को सिर्फ कलम के माध्यम से बदला जा सकता है। हमारे यहाँ ऋषि परंपरा का लेखन रहा है और उन्हीं के निर्देशन में हमारी लेखन परंपरा आगे बढ़ी है। जापानी लोगों के ज्ञान एवं गुणों को अपनाकर भारत सिरमौर बन सकता है। यह पुस्तक नवयुवकों के लिए पुस्तक प्रेरणास्रोत है।
मंगत बादल जी, किरण बादल जी, सरदार मल कांकरिया जी एवं प्रदीप पटवा जी ने किरण सिपानी जी का सम्मान किया।
राज बिसारिया ने नारी शक्ति को समर्पित एक सुमधुर गीत का गायन किया।
धन्यवाद ज्ञापन- विचार मंच के उपाध्यक्ष प्रेम शंकर त्रिपाठी जी ने किया। उन्होंने कहा कि तमाम संघर्षों के बीच किरण दी लिखती रहती हैं, हमें प्रेरित करती रहती हैं। सफरनामा लिखना बहुत कठिन काम है। किरण दी ने इस चुनौती को स्वीकार किया। कार्यक्रम का कुशल संचालन गीता दूबे ने किया। इस पूरे आयोजन को सफल बनाने में अरुण बच्छावत का विशेष योगदान रहा।

आईएएस के लिए हो प्रायोगिक  प्रशिक्षणः डॉ. राजाराम त्रिपाठी

-प्रो. एसबी राय ने दिया साहित्य के छात्रों के लिए इंटर्नशिप पर जोर

– पैरोकार पत्रिका व इबराड ने आयोजित की दो दिवसीय संगोष्ठी व प्रतियोगिता

कोलकाता । प्रख्यात जैविक कृषि वैज्ञानिक डॉ. राजाराम त्रिपाठी ने कहा है कि उच्च शिक्षा के सभी छात्र-छात्राओं समेत साहित्य के विद्यराथी  के लिए प्रायोगिक प्रशिक्षण( इंटर्नशिप) जरूरी है। यहां तक कि आइएएस के लिए भी प्रायोगिक प्रशिक्षण होना चाहिए। परिश्रम से करके कुछ युवा आईएएस अधिकारी बन जाते हैं। लेकिन पहली बार कलेक्टर के पोस्ट पर आसीन होने के बाद उन्हें बहुत कुछ सीखने की जरूरत पड़ती है। पहले से प्रायोगिक प्रशिक्षण लेने के बाद आइएएस अधिकारी कहीं भी पहली बार पदासीन होने पर बेहतर काम करेंगे और सरकारी योजनाओं को दक्षता के साथ मूर्त रूप दे सकेंगे। डॉ. त्रिपाठी ने पैरोकार पत्रिका और इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ सोशल-बायो साइंस रिचर्स एंड डेवलपमेंट( इबराड) की ओऱ से नई शिक्षा नीतिः हिंदी साहित्य में प्रायोयिग प्रशिक्षण का महत्व विषय पर आयोजित राष्ट्रीय सेमिनार में बतौर प्रधान अतिथि यह बातें कही। उन्होंने कहा कि हिंदी साहित्य में भी प्रायोगिक प्रशिक्षण का महत्व है। वैश्वीक बाजार का व्यापक विस्तर होने के साथ हिंदी का महत्व बढ़ा है। चीन जैसे देश में हिंदी की पढ़ाई हो रही है। भाषांतर और अनुवाद के लिए कृतिम मेधा(एआई) और कंप्यूटर आधारित तकनीक का विकास हुआ है। कृतिम मेधा हमारे लिए जोखिम भी पैदा करेगा। इसलिए तकनीक के प्रयोग के साथ साहित्य के क्षेत्र में भी अब प्रायोगिक प्रशिक्षण जरूरी हो गया है। अपने अध्यक्षीय भाषण में इबराड के चेयरमैन प्रो. एसबी राय ने कहा कि साहित्य में इंटर्नशीप के महत्व को समझाने के लिए स्कूली स्तर पर शिक्षकों के लिए कार्यशालाएं आयोजित करने की जरूरत है। सेमिनार में बतौर वक्ता रेशमी पांडा मुखर्जी (एसोसिएट प्रो. गोखले मेमोरियल गर्ल्स कॉलेज) ने साहित्य के विभिन्न क्षेत्रों में इंटर्नशिप के हमत्व को विस्तार से रेखांकित किया। विद्यासागर कॉलेज फार वुमेन के सहायक प्राध्यापक अभिजीत सिंह ने पीपीटी के माध्यम से अनुवाद से लेकर सामग्री लेखन, फिल्म लेखन और दक्षता विकास में साहित्य में इंटर्नशिप के महत्व पर प्रकाश डाला। योगेशचंद्र चौधरी कॉलेज की सहायक प्रध्यपिका ममता त्रिवेदी ने कहा कि साहित्य में इंटर्शनशिप को सिर्फ रोजगार प्राप्त करने से जोड़कर ही नहीं देखा जाना चाहिए। इस मौके पर डिजिटल युग में सामाजिक संबंधों के नए रूप शीर्ष से हिंदी निबंध प्रतियोगिता आयोजित की गई जिसमें 36 छात्र-छात्राओं ने भाग लिया। निबंध प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त करने वाले अभिषेक कोहार, द्वितीय स्थान प्राप्त करनेवाली शालिनी पांडेय और तृतीय स्थान प्राप्त करनेवाली नंदिनी कुमारी को इबराड की ओर से प्रमाण पत्र और स्मृति चिन्ह देकर पुरस्कृत किया गया। कार्यक्रम का संचालन पैरोकार के प्रधान संपादक अनवर हुसैन और पत्रकार राजेश ने किया। धन्यवाद ज्ञापन बिमल शर्मा ने किया। यह सेमिनार दो दिवसीय 25-26 फरवरी को पैरोकार साहित्य महोत्सव के समापन के मौके पर किया गया। महोत्सव में छत्तीसगढ़ के डॉ. राजाराम त्रिपाठी को पैरोकार साहित्य शिखर सम्मान से, युवा नाटककार डॉ. मोहम्मद आसिफ आलम को पैरोकार नाट्य सम्मान से, शंकर जालान को पैरोकार पत्रकारिता सम्मान और सीमा गुप्ता को पैरोकार काव्य सम्मान से नवाजा गया। उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता ताजा टीवी व छपते छपते के प्रधान संपादक विश्वम्भर नेवर और समापन सत्र की अध्यक्षता इबराड के चेयरमैन प्रो. एसबी राय ने की। दो दिवसीय पैरोकार साहित्य महोत्सव पैरोकार के विशेषांक का लोकार्पण, आज की साहित्यिक पत्रकारिता पर संगोष्ठी, कवि सम्मेलन और राष्ट्रीय सेमिनार के सफल आयोजन के साथ संपन्न हुआ।