तिरुवनंतपुरम । शाकाहारी मगरमच्छ बाबिया दुनिया को छोड़ चला है। बीते रविवार को बाबिया की मौत हो गई थी। बाबिया नाम का मगरमच्छ दुनिया का पहला ऐसा मगरमच्छ था, जो कि शाकाहारी था। बाबिया की उम्र करीब 70 साल बताई जाती है। बाबिया केरल के कासरगोड जिले स्थित श्री अनंतपद्मनाभ स्वामी मंदिर परिसर में बने तालाब में रहता था। जब बाबिया की अंतिम यात्रा निकाली गई तो हर किसी की आंखे नम दिखीं। इसके पीछे की वजह बाबिया की भगवान के प्रति अद्भुत भक्ति को माना जाता था।
भगवान विष्णु का अनन्य भक्त था बाबिया
बाबिया श्री अनंतपद्मनाभ स्वामी मंदिर परिसर में बने तालाब में ही रहा करता था। बाबिया को भगवान विष्णु का अनन्य भक्त बताया जाता था। वह दिन में दो बार तालाब से बाहर निकलकर आता था और मंदिर में जाकर दर्शन करता था। वहीं आने-जाने के दौरान बाबिया ने कभी किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। इसके साथ ही वह खाने में वही प्रसाद खाता था, जो कि भगवान विष्णु को भोग लगाया जाता था।
बाबिया को देखने जुट जाती थी भक्तों की भीड़
बाबिया नाम के मगरमच्छ को लेकर कहा जाता है कि पूरी जिंदगी में उसने कभी भी किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया। तालाब में रहने के बावजूद वहां रहने वाली मछलियों तक को कभी बाबिया ने जरा सा परेशान तक नहीं किया। वह भक्तों के बीच कौतुहल का विषय था। जब भक्त मंदिर में आकर भगवान को भोग लगाते थे और मन्नत मांगते थे तो कोई ऐसा नहीं होता था जो दिल से बाबिया के दर्शन की चाह न रखता हो। सुबह और दोपहर की पूजा के बाद बाबिया को भोजन दिया जाता था, जो कि केवल प्रसाद ही खाता था।
1945 में तालाब में प्रकट हुआ था बाबिया
दुनिया के पहले शाकाहारी मगरमच्छ बाबिया के जन्म की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। उसके जन्म को लेकर बताया जाता है कि बाबिया साल 1945 में तालाब में प्रकट हुआ था। कहा जाता है कि साल 1945 में एक ब्रिटिश सैनिक ने मंदिर में मगरमच्छ को गोली मार दी थी। इसी के कुछ दिन बाद मंदिर के तालाब में बाबिया अपने आप ही प्रकट हो गया था।
दुनिया छोड़ चला विष्णु भक्त मगरमच्छ ‘बाबिया
बाढ़ ने बढ़ाई मुसीबत, ग्रामीणों ने खुद ही डाली पुलिया
बहराइच । यूपी में बहराइच जनपद में आई भीषण बाढ़ ने न सिर्फ खेत, मकान और झोपड़ियों को अपने आगोश में ले लिया है। बल्कि तमाम रास्ते भी खराब हो गए हैं। नानपारा से मिहीपुरवा मार्ग के बीच काफी बड़ी पुलिया में दरारें आ गई है, जिससे कई दिन से मुख्य मार्ग बन्द है। इसी तरह बढैय्या और मान पुरवा के बीच बनी पुलिया भी बाढ़ की भेंट चढ़ गई। लगभग 25 गांव की लाखों की आबादी प्रभावित हुई है। सामुदायिक सहयोग से गांव के लोंगों ने बना लिया है।
बढैय्या, रामपुर, अग्घरा, दलजीत पुरवा, कोडरी, खाले पुरवा, टेपरा, ऐरनवा व बैबाही आदि गाव के लोग इस पुलिया से होकर ही अपने घर जाते थे। इस पुलिया के टूट जाने से नज़दीक की मुख्य बाज़ार मिहीपुरवा और नानपारा के सारे रास्ते बंद हो गए थे।
मुख्य बाजारों से आवागमन बन्द होने के कारण बाढ़ पीड़ित ग्रामीणों को बहुत परेशानी उठानी पड़ रही थी। तब बढैय्या के लोगो ने गांव में एक सामूहिक बैठक की और यह निर्णय लिया गया कि दान में लकड़ी के पटरे और बल्ली बटोर कर पुलिया का निर्माण कर दिया जाए।
गांव वालो की योजना सफल हुई और पटरे-बल्ली इकट्ठा हो गए तथा श्रम दान से पुलिया बन गई। पुलिया बनने से पैदल, सायकिल और मोटरसाइकिल यात्रियों की समस्याओं का निदान हो गया। कोई गाड़ी मोटर तो नहीं निकल सकती पुलिया से लेकिन आम आदमी को पहले जैसी सुविधा का अनुभव हो रहा है।
इस सम्बंध में उपजिलाधिकारी ज्ञान प्रकाश त्रिपाठी से जब पूछा गया तो उन्होंने कहा कि मैंने अभी पुलिया तो नहीं देखी है, लेकिन सामुहिक योगदान से अगर कोई विकास कार्य होता है तो इसमें कोई बुराई नहीं। उन्होंने यह भी कहा कि समीक्षा की जा रही जो भी सड़क या पुलिया क्षतिग्रस्त हुई हैं उन्हें शीघ्र ही ठीक करा दिया जाएगा।
नहीं रहे अभिनेता जितेंद्र शास्त्री
कोलकाता । ब्लैक फ्राइडे’, ‘अशोका’ और ‘राजमा चावल’ जैसी फिल्मों का हिस्सा रहे एक्टर जितेंद्र शास्त्री का निधन हो गया है। जितेंद्र शास्त्री के निधन की खबर दोस्त संजय मिश्रा ने ट्विटर पर शेयर की और शोक जताया।
संजय मिश्रा ने जितेंद्र शास्त्री उर्फ जीतू शास्त्री को याद करते हुए अपने ट्विटर हैंडल पर लिखा, ‘जीतू भाई आप होते तो आप कुछ ऐसे बोलते-मिश्रा कभी-कभी क्या होता ना, मोबाइल में नाम रह जाता है और इंसान नेटवर्क से आउट हो जाता है।’ तुम इस दुनिया से दूर चले गए। लेकिन मेरे दिल और दिमाग के नेटवर्क में हमेशा रहोगे। ओम शांति।’
सिने एंड टीवी आर्टिस्ट्स एसोसिएशन ने भी जीतेंद्र शास्त्री के निधन पर शोक जताते हुए उन्हें श्रद्धांजलि दी है।
जितेंद्र शास्त्री ने सिर्फ फिल्मों में ही काम नहीं किया था, बल्कि थिएटर की दुनिया में भी खूब नाम कमाया। वह ‘लज्जा’, ‘चरस’ और ‘दौर’ जैसी कई फिल्मों में नजर आए। साल 2019 में रिलीज हुई फिल्म ‘इंडियाज मोस्ट वॉन्टेड’ में जितेंद्र शास्त्री एक खबरी का रोल निभाया था जिसमें उन्हें खूब सराहा गया था।
अचार बेचकर पूनम ने बदल दी बमनिया गाँव की तस्वीर
मुरादाबाद । मुरादाबाद की रामगंगा नदी पार स्थित गांव, ऐसा गांव जहाँ कभी ऐसी स्थिति कि लोग अपने बेटियों को रिश्ता इस गांव में करने से कतराते थे। बामुश्किल रिश्ते आ पाते थे। कोई इन स्थितियों को बदलने के लिए कदम उठाने की जहमत नहीं उठाना चाहता था। ऐसे में पूनम देवी यहां ब्याह कर आईं। ठाकुरद्वारा के सूरजनगर से आई पूनम ने इस स्थिति को देखा तो रामगंगा नदी के शांत पानी में पत्थर मारकर हलचल पैदा करने की ठान ली। रुकावटों की परवाह कहां थी। घूंघट छोड़ा और आत्मनिर्भरता की इबारत लिख डाली।
मुरादाबाद का जो गांव बमनिया पट्टी कभी बाढ़ की विभीषिका के कारण चर्चा के केंद्र में रहता था, यहां की विकास योजनाओं को लेकर चर्चा में आ गया है। इसके पीछे पूनम रानी की मेहनत को हर कोई मान रहा है। पूनम रानी करीब 20 साल पहले ठाकुरद्वारा के सूरजननगर से शादी के बाद बमनिया पट्टी गांव आई थीं। यहां की स्थिति को देखने के बाद पूनम ने घूंघट को छोड़ा और आत्मनिर्भरता को अपनाने का निर्णय लिया। पूनम आगे बढ़ीं तो उन्हें 10 अन्य महिलाओं का साथ मिला। स्वरोजगार से जुड़ीं। इसके बाद सफलता की कहानी लिखी जानी शुरू हो गई।
15 हजार से शुरुआत, 75 हजार पहुंचा टर्नओवर
पूनम रानी ने अपने 10 साथियों के साथ मिलकर वर्ष 2019 में सहारा अश्व कल्याण स्वयं सहायता समूह का गठन किया। इस सेल्फ हेल्प ग्रुप 15 हजार रुपये की लागत से अचार बनाने का काम शुरू किया। आज के समय में इस एसएचजी का टर्नओवर 75 हजार रुपये पहुंच गया है। उन्होंने अपने अचार की कीमत 200 रुपये किलो रखी है। इससे करीब 25 हजार रुपये की आमदनी उन्हें हो जाती है। पति खिलेंद्र सिंह भी पूनम का हर कदम पर साथ दे रहे हैं।
कोरोना काल में हुआ नुकसान
15 हजार रुपये से बिजनेस स्टार्ट किया तो ऑर्डर आने लगे। काम को बढ़ाना था। लागत राशि कम पड़ रही थी। इस कारण बैंक से लोन लेना पड़ा। उन्होंने एक लाख रुपये का कर्ज लिया। एक साल के भीतर ही देश में कोरोना का आगमन हो गया। इस महामारी देश के अन्य व्यवसाय की तरह उनके स्वरोजगार को भी खासा नुकसान पहुंचाया। काम चौपट हो गया था। लेकिन, फिर साहस बटोरा। महामारी की लहर गुजरी तो उन्होंने अपने व्यवसाय को ऑनलाइन शुरू किया। अब धीरे-धीरे चीजें पटरी पर आने लगी हैं।
पूनम के प्रयास और उनके प्रोडक्ट की तारीफ सोशल मीडिया पर हो रही है। खिलेंद्र सिंह ने अपनी पहुंच का फायदा उठाकर क्षेत्र के दुकानों पर अचार रखवा दिया है। उनकी मार्केटिंग ने पूनम के बिजनेस को स्थापित करने में भूमिका निभाई है। दुकानों पर अचार बिकने के बाद नए ऑर्डर आने लगे हैं। इसके लिए उन्होंने दुकानदारों का वॉट्सऐप ग्रुप तैयार किया है। ऑर्डर को यहां पर लिया जाता है और इसके आधार पर सप्लाई होती है।
पूनम रानी कहती हैं कि हर माह करीब 25 हजार रुपये का कारोबार हो जाता है। इसमें से 10 हजार रुपये मजदूरी में जाते हैं और 15 हजार रुपये की आमदनी हो जाती है। स्थिति बदलेगी तो कारोबार और बढ़ेगा। लोकल को वोकल बनाने का प्रयास जारी है। काम को आगे बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं, सफलता तो मिलेगी ही।
बच्चों को दे रही हैं बेहतर शिक्षा
पूनम ने अपने सेल्फ हेल्प ग्रुप के जरिए आम, आंवला, अदरक, मूली, गाजर, सब्जी और करेला का अचार बनाना शुरू किया। मांग के अनुरूप यहां पर अचारों को तैयार कराया जाता है। इससे आमदनी ने उनके जीवन को बदला है। गांव की महिलाओं के भी। उनके बच्चे भी इससे लाभान्वित हुए हैं। पूनम की बेटी वर्निता बीएससी की पढ़ाई कर रही हैं। वहीं, बेटा जतिन बीफॉर्मा का कोर्स कर रहा है। पति इलेक्ट्रिक गुड्स की दुकान चलाते है। पूनत अपने साथ-साथ गांव की अन्य महिलाओं को स्वरोजगार से जोड़ने का काम कर रही हैं। यह बदलाव की एक शुरुआत मान सकते हैं।
उम्र 14 साल, फिजिक्स में पीएचडी कर रहा है इलियट
नयी दिल्ली । 14 साल की उम्र में बच्चे सिर्फ खेलने-कूदने की बात करते हैं। वे हाईस्कूल भी नहीं पास कर पाते हैं। कॉलेज और यूनिवर्सिटी तो दूर की बात है। लेकिन, इसी उम्र में एक बच्चा पीएचडी कर रहा है। वो भी फिजिक्स जैसे मुश्किल सब्जेक्ट में। इस किशोर बच्चे का नाम इलियट टैनर है। इलियट यूनिवर्सिटी ऑफ मिनेसोटा से अपनी डिग्री पूरी कर रहा है। यूनिवर्सिटी में इलियट के साथी कम ही हैं। जो हैं वो इलियट से उम्र और तजुर्बे में काफी बड़े हैं। उनका इसी साल पीएचडी के लिए यूनिवर्सिटी में दाखिला हुआ है। इलियट के लिए इससे बड़ी खुशी की और कोई बात नहीं है। परिवार को पूत के पांव पालने में ही दिखने लगे थे। स्कूल से कॉलेज और इसके बाद यूनिवर्सिटी तक की सीढ़ियां इलियट ने दनदनाते हुए पार की हैं। 13 साल की उम्र में इलियट ने ग्रेजुएशन पूरा कर लिया था।
इलियट ने अपने कॉलेज कॅरियर की शुरुआत सिर्फ 9 साल की उम्र में की। तब उन्होंने मिनेसोटा के ब्लूमिंगटन में अपने स्थानीय सामुदायिक कॉलेज में क्लासेज लेना शुरू किया। शुरू में अपने साथ क्लास में इलियट को देखकर दूसरे छात्र चौंक गए थे। उन्हें लगा कि यह बच्चा उनकी क्लास में क्या करने चला आया है। हालांकि, धीरे-धीरे उन्हें यह एहसास हुआ कि भले इलियट की उम्र बहुत कम है। लेकिन, योग्यता में वह उनसे कहीं भारी है।
क्लास में घुसने पर देखते रह जाते थे दूसरे विद्यार्थी
इलियट कई बार इस अनुभव को शेयर कर चुके हैं। वह बताया करते हैं कि एक दो हफ्ते तक तो स्टूडेंट सिर्फ उन्हें निहारते रह जाते। उन्हें यकीन नहीं होता कि कोई इतनी छोटी उम्र में भला कॉलेज में कैसे पहुंच सकता है। धीरे-धीरे उनकी इलियट को क्लास में देखने की आदत सी बन गई। इसके बाद सब कुछ नॉर्मल हो गया। जब शुरू में वो क्लास में एंट्री करते तो लोग वाह-वाह करते थे।
इलियट के परिवार को पता है कि यह बच्चा अलग है। उसे कुदरत से ही तोहफा मिला है। वह बहुत छोटी उम्र से ही मुश्किल गणित के सवाल हल कर देता था। इलियट की उम्र जब सिर्फ 6 साल थी तो वह मेंसा इंटरनेशनल का मेंबर बन गया। लेकिन, दुनिया की नजर में इलियट तब आया जब 13 साल की उम्र में उसने इस साल की शुरुआत में फिजिक्स से अपनी बैचलर्स डिग्री पूरी की। इसके बाद इलियट मीडिया की सुर्खियों में आ गया।
जहां तक इलियट का सवाल है तो वह एक शानदार वैज्ञानिक बनना चाहते हैं। यूनिवर्सिटी के प्रतिष्ठित पीएचडी प्रोग्राम में दाखिला पाना इलियट और उनके माता-पिता के लिए बेहद खुशी का पल था। हालांकि, वो इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे कि उनका बच्चा इतनी फटाफट पीएचडी प्रोग्राम तक पहुंच जाएगा। इलियट की मां मिशेल के अनुसार, बेटे के दाखिले के लिए 20 हजार डॉलर की रकम जुटाना बड़ी चुनौती थी। उन्होंने ग्रांट्स और स्कॉलरशिप के विकल्प तलाशने शुरू कर दिए। लेकिन, कोई फायदा नहीं हुआ। इसके बाद परिवार ने अंतिम प्रयास के तहत फंड रेज करने की अपील की। उन्हें शानदार प्रतिक्रिया मिली। कई अनजान लोगों ने इलियट की पढ़ाई के लिए पैसे दे दिए।
जहां थे चपरासी, उसी विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर बने बिहार के कमल किशोर
भागलपुर । ‘जहां चाह है, वहां राह है’ यह साबित कर दिखाया है बिहार के भागलपुर जिले के रहने वाले 42 वर्षीय कमल किशोर मंडल ने। कमल किशोर मंडल जिस विश्वविद्यालय में नाइट गार्ड की नौकरी करते थे, आज उसी विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर बन गए हैं। कमल किशोर की सफलता पर उनसे मिलने के लिए हर दिन कई लोग आ रहे हैं। कमल किशोर मंडल ने घर की विपरीत परिस्थितियों में पढ़ाई के लिए जबरदस्त इच्छा शक्ति दिखाई और सहायक प्रोफेसर बनकर सफलता पाई।
भागलपुर कस्बे के मुंडीचक इलाके के रहने वाले कमल किशोर मंडल ने 23 साल की उम्र में 2003 में मुंगेर के आरडी एंड डीजे कॉलेज में नाइट गार्ड के रूप नौकरी शुरू की थी। उस समय कमल किशोर ने पॉलिटिकल साइंस से बीए किया था। लेकिन घर का आर्थिक स्थिति और पैसों की जरूरत के चलते कमल किशोर ने नाइड गार्ड की नौकरी कर ली। लेकिन इससे कमल की पढ़ने में रुचि कम नहीं हुई।
नाइड गार्ड के रूप में शुरू की नौकरी
नाइट गार्ड की नौकरी करते हुए कमल किशोर को अभी बमुश्किल एक महीना बीता होगा कि उनका ट्रांसफर तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय (टीएमबीयू) के अंबेडकर विचार और सामाजिक कार्य विभाग (स्नातकोत्तर) में कर दिया। 2008 में उनका पद बदलकर चपरासी कर दिया गया। चपरासी की नौकरी करते हुए कमल किशोर ने विश्वविद्यालय में छात्र-छात्रों को पढ़ते देखा तो उनके मन में भी आगे पढ़ने का विचार उठने लगा।
चपरासी की नौकरी करते हुए पढ़ाई फिर शुरू की
कमल किशोर मंडल ने बताया कि, ‘मैंने अपनी पढ़ाई आगे शुरू करने के लिए विभाग से अनुमति देने का अनुरोध किया तो विभाग ने पढ़ाई की इजाजत दे दी। जल्द ही, मैंने फिर से अपनी पढ़ाई शुरू की और शुरू 2009 में एमए (अंबेडकर विचार और सामाजिक कार्य में) कर लिया।’ कमल किशोर ने 2009 में पीएचडी करने की अनुमति मांगी लेकिन विभाग ने तीन साल बाद 2012 में कमल को पीएचडी करने की सहमति दे दी।
2019 में कमल किशोर ने की पीएचडी
कमल किशोर ने 2013 में पीएचडी शुरू की और 2017 में कॉलेज में थीसिस जमा कर दी। उन्हें 2019 में पीएचडी की डिग्री से सम्मानित किया गया। इस बीच, उन्होंने प्रोफेसर के लिए होने वाले एग्जाम राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट) भी पास की और नौकरियों की तलाश जारी रखी। आखिर में 2020 में किशोर मंडल का इंतजार खत्म हुआ।
2022 में सहायक प्रोफेसर का रिजल्ट हुआ घोषित
बिहार राज्य विश्वविद्यालय सेवा आयोग (बीएसयूएससी) ने टीएमबीयू में संबंधित विभाग में सहायक प्रोफेसर के चार पदों के लिए रिक्तियों का विज्ञापन किया। 12 उम्मीदवारों को इंटरव्यू के लिए बुलाया गया था, लेकिन किशोर मंडल भाग्यशाली थे कि उन्हें टीएमबीयू के उसी अंबेडकर विचार और सामाजिक कार्य विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर नियुक्त किया गया, जहां उन्होंने एक चपरासी के रूप में कार्य किया। उनके चयन का परिणाम 19 मई, 2022 को घोषित किया गया था।
पिता टी स्टॉल पर बेचते हैं चाय
कमल किशोर मंडल के पिता गोपाल मंडल अपना परिवार चलाने के लिए सड़क किनारे एक टी स्टॉल पर चाय बेचते हैं। बेटे की सफलता पर गोपाल मंडल खुश हैं। कमल मंडल ने अपनी सफलता को अपने विभाग के अधिकारियों और शिक्षकों को समर्पित करते हैं, जिन्होंने उन्हें आगे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। कमल किशोर ने बताया, ‘मैंने कभी भी अपने अध्ययन के रास्ते में गरीबी और पारिवारिक समस्याओं को नहीं आने दिया। मैंने सुबह क्लास अटेंड की और दोपहर में ड्यूटी की। रात के समय कई घंटे पढ़ाई करता था।’
कैंसर की दवाओं पर हजारों गुना मुनाफा कमा रहे अस्पताल – रिपोर्ट
225 की दवा 2600 में बिक रही
नयी दिल्ली । कैंसर जैसी गंभीर बीमारी अब आम बनती जा रही है। आप भी अपने आस-पास कई ऐसे लोगों को जानते होंगे, जिन्हें कैंसर है। भारत में कैंसर के मरीज काफी बढ़ रहे हैं। इस साल भारत में कैंसर के दर्ज मरीजों की संख्या 19 से 20 लाख रहने का अनुमान है। हालांकि, फिक्की एवं ईवाई की एक रिपोर्ट के अनुसार, कैंसर के मरीजों की वास्तविक संख्या रिपोर्ट हुए मामलों से 1.5 से 3 गुना अधिक हो सकती है। कैंसर जितना आम हुआ है, इसका इलाज उतना ही पहुंच से दूर होता जा रहा है। अगर मरीज गरीब परिवार से है, तो पहले तो पूरा इलाज ही नहीं मिल पाता। अगर इलाज कराया भी जाए, तो उस पर आने वाले खर्च से परिवार कई वर्षों के लिए कर्ज में डूब जाएगा।
पहुंच से दूर हो रहा निजी अस्पतालों में इलाज
बात निजी अस्पतालों की करें, तो वहां के खर्चे परिजनों की धड़कने बढ़ा देते हैं। कैंसर के महंगे इलाज के पीछे एक बड़ा कारण दवाओं की भारी-भरकम कीमते हैं। अस्पताल इन दवाओं को एमआरपी पर बेचकर भारी मार्जिन कमा रहे हैं। यह मार्जिन इतना है कि आप सुनकर चौंक जाएंगे। हिंदुस्तान की एक रिपोर्ट के अनुसार, निजी अस्पताल द्वारा बेची गई दवाओं पर ट्रेड मार्जिन 2,000 फीसदी से भी अधिक होता है। कई मामलों में यह 5,000 फीसदी तक भी होता है। यहां बताते चलें कि जो दवाएं आवश्यक दवाओं की लिस्ट में शामिल होती हैं, उनकी कीमतें सरकार ड्रग प्राइस कंट्रोल ऑर्डर (डीपीसीओ) के माध्यम से तय करती है।
जमकर फीस वसूल रहे अस्पताल
निजी अस्पताल जिस तरह से मरीजों से भारी-भरकम फीस वसूलते हैं, उससे कोई भी यह समझ सकता है कि वे जमकर मलाई लूट रहे हैं। एलायंस ऑफ डॉक्टर्स फॉर एथिकल हेल्थकेयर से जुड़े डॉ. जीएस ग्रेवाल ने दवाओं पर अस्पतालों एवं केमिस्ट को हासिल होने वाले ट्रेड मार्जिन को लेकर एनपीपीए को हाल में एक दस्तावेज सौंपा है। इस दस्तावेज में दो दर्जन दवाओं का ब्योरा दिया गया है। इन दवाओं की वास्तविक कीमत और एमआरपी में भारी अंतर है। निजी अस्पताल इन दवाओं को एमआरपी पर मरीजों को बेच रहे हैं और भारी मुनाफा कमा रहे हैं।
225 की दवा 2600 में बेच रहे
रिपोर्ट के अनुसार, जो दस्तावेज पेश किये गए हैं, वे दवाओं की वास्तविक कीमत और एमआरपी में 2,000 फीसदी तक का अंतर बता रहे हैं। जैसे- हेपेटाइटिस सी के इलाज में काम आने वाली दवा एल्बुमिन अस्पतालों को 3900 रुपये की पड़ती है। लेकिन इस दवा पर एमआरपी 6605 रुपये लिखी हुई है। अस्पताल मरीजों को एमआरपी पर ही यह दवा बेचते हैं। हेपेटाइटिस सी की ही दूसरी और भी दवाएं हैं, जिनमें अस्पताल भयंकर ट्रेड मार्जिन कमा रहे हैं। रेटलान इंजेक्शन अस्पताल को 225 रुपये में सप्लाई होता है और इसकी एमआरपी 2600 रुपये है। यह इंजेक्शन ब्लीडिंग रोकने में काम आता है। माइहेप ऑल की बात करें, तो यह अस्पतालों को 6800 रुपये में मिलती है। अस्पताल इस दवा को 17,500 रुपये एमआरपी पर बेचते हैं। माइहेप इंजेक्शन अस्पतालों को 2150 रुपये में मिलता है। इसकी एमआरपी 12000 रुपये है। मायडेक्ला जो अस्पतालों को 750 रुपये में सप्लाई होती है, उसकी एमआरपी 5000 रुपये है।
2000 फीसदी का मुनाफा
अस्पताल कई दवाओं पर 2,000 फीसदी का मुनाफा कमा रहे हैं। एनपीपीए को सौंपे दस्तावेज में बताया गया कि कैंसर में काम आने वाली जेमसेटाबीन 1जीएम को अस्पताल 900 रुपये में खरीदते हैं और 6597 रुपये में बेचते हैं। इसके अलावा अस्पतालों को 1350 रुपये में मिलने वाले एंटी कैंसर इंजेक्शन पीसिलिटैक्स 260 एमजी का एमआरपी 11946 रुपये है। इसी तरह ऑक्सीप्लाटीन 100 इंजेक्शन 1090 में खरीदा जाता है और 5210 रुपये एमआरपी पर बेचा जाता है। इसी तरह कई दूसरी दवाओं पर अस्पताल 2,000 फीसदी तक का मुनाफा कमा रहे हैं।
(साभार – नवभारत टाइम्स)
आधार बनवाए 10 साल हो गए? एक बार अपडेट करा लें
नयी दिल्ली । अगर आपने 10 साल से पहले आधार बनवाया था तो उसे अपडेट करा लें। भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई ) ने यह अपील की है। यूआईडीएआई ने उन लोगों से अपने दस्तावेजों एवं जानकारियों को अद्यतन (अपडेट) कराने का आग्रह किया है जिन्होंने अपना आधार दस साल से पहले बनवाया था और उसके बाद कभी अपडेट नहीं कराया है। यूआईडीएआई ने एक बयान में कहा कि सूचनाएं अद्यतन करने का काम ऑनलाइन या आधार केंद्रों पर जाकर दोनों तरीकों से किया जा सकता है। हालांकि उसने इसे अनिवार्य नहीं बताया है। उसने कहा, ‘ऐसे व्यक्ति जिन्होंने अपना आधार दस साल पहले बनवाया था एवं उसके बाद इन सालों में कभी अपडेट नहीं करवाया है, ऐसे आधार नंबर धारकों से दस्तावेज अपडेट करवाने का आग्रह किया जाता है।’
निकाय ने कहा कि यूआईडीएआइई ने इस संबंध में आधार धारकों को दस्तावेज अपडेट की सुविधा निर्धारित शुल्क के साथ प्रदान की है और आधार धारक व्यक्तिगत पहचान प्रमाण और पते के प्रमाण से जुड़े दस्तावेजों को आधार डाटा में अपडेट कर सकता है।
बयान में कहा गया है कि इन दस साल के दौरान, आधार संख्या किसी व्यक्ति की पहचान के प्रमाण के रूप में उभरी है और आधार संख्या का उपयोग विभिन्न सरकारी योजनाओं एवं सेवाओं का लाभ उठाने के लिए किया जा रहा है। यूआईडीएआइई ने कहा कि इन योजनाओं एवं सेवाओं का लाभ उठाने के लिए, लोगों को व्यक्तिगत नवीनतम विवरण से आधार डाटा को अपडेट रखना है ताकि आधार प्रमाणीकरण व सत्यापन में कोई असुविधा नहीं हो।
यूआईडीएआइई ने कहा कि इन योजनाओं एवं सेवाओं का लाभ उठाने के लिए, लोगों को व्यक्तिगत नवीनतम विवरण से आधार डाटा को अपडेट रखना है ताकि आधार प्रमाणीकरण व सत्यापन में कोई असुविधा नहीं हो।
विदेशी कंपनी की नौकरी का ऑफर ठुकराकर ड्रैगन फ्रूट्स की खेती से कमा रहे लाखों
कौशांबी । सिराथू तहसील के युवा किसान रवींद्र पांडेय ने खेती को मुनाफे का सौदा करके दिखाया है। कैक्टस प्रजाति के पौधे ड्रैगन फ्रूट्स की खेती ने किसान की जिंदगी बदल दी है। 62 हजार रुपये की लागत लगा कर युवा किसान मौजूदा समय में 4 लाख रुपये सालाना कमा रहे हैं। गणित विषय से स्नातक रवींद्र ने विदेशी कंपनियों के ऑफर छोड़ कृषि को अपना कॅरियर बना कर बेरोजगार युवाओं के लिए मिसाल बन गए है। टेगाई गांव निवासी सुरेश चंद्र पांडेय पेशे से किसान है, उनके 3 बेटे है। बड़ा बेटा प्रवीण कुमार नौसेना में सैनिक है।
रवींद्र कुमार ने स्नातक की पढ़ाई गणित विषय से कर मल्टी नेशनल कंपनी में काम करने का सपना संजोया था। सबसे छोटा बेटा अवनीश पांडेय अभी प्रयागराज से पढ़ाई कर रहा है। रवींद्र पांडेय ने बताया कि बीएससी की पढ़ाई पूरी कर वह नौकरी की तैयारी कर रहे थे। इसी दौरान 7 साल पहले कृषि गोष्ठी में उनकी मुलाकात तत्कालीन डीएम अखंड प्रताप सिंह ने हुई। जिन्होंने उन्हें कैक्टस प्रजाति के पौधे ड्रैगन फ्रूट्स के बारे में बताया। पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर उसने 10 बिस्वा खेत में ड्रैगन फ्रूट्स की नर्सरी तैयार कराई। इसके बाद उनके जीवन में बदलाव का नया सवेरा लेकर आया। अब वह उन्नतशील खेती कर ड्रैगन फ्रूट्स और पौध बेच कर 4 लाख सालाना कमा रहे है।
विदेशी विशेषज्ञों से सीखा तरीका
रवींद्र पांडेय के मुताबिक पिता सुरेश चंद्र पांडेय के मदद से उन्होंने 62 हजार रुपये खर्च कर 400 पौध ड्रैगन फ्रूट्स की पौध रोपित की। पहले चरण के 2 वर्ष में रासायनिक खाद का प्रयोग करने के चलते पौध में अपेक्षा कृत फल नहीं आए, जिसको लेकर वह काफी निराश हुए। रवींद्र ने उसका हल खोजने के लिए इंटरनेट पर विदेशों में ड्रैगन फ्रूट्स की खेती करने वाले किसानों से संपर्क किया। जिन्होंने उन्हें खेत में रासायनिक खाद का प्रयोग बंद कर जैविक खाद का प्रयोग में लाने की सलाह दी। इसके प्रयोग के बाद उन्हें उम्मीद से अधिक अच्छे परिणाम मिले। मौजूदा समय में खेत में फल लगने का खरीददार इंतजार करते है। इसके अलावा ड्रैगन फ्रूट्स के पौधे गैर जनपद से आकर किसान खरीद कर ले जाते है, जो अच्छी आमदनी का जरिया है।
डेंगू के मरीज के लिए भी है ड्रैगन फ्रूट्स फायदेमंद
कृषि वैज्ञानिक मनोज सिंह ने बताया कि ड्रैगन फ्रूट्स में एंटीऑक्सीडेंट भरपूर मात्रा में होता है। इसके अलावा इसमें कई अन्य गुण जैसे फेनोलिक एसिड, फाइभर, फ्लेवोनोइड पाया जाता है, जो डायबिटीज को कंट्रोल करने में प्रभावी है। ड्रैगन फ्रूट्स डायबिटीज के साथ-साथ दिल को हेल्दी बनाए रखने में मदद करता है। डेंगू मरीज के लिए यह फल राम बाण औषधि के रूप के प्रयोग में लाइ जाती है।
रिपोर्ट – अशोक विश्वकर्मा
(साभार – नवभारत टाइम्स)