Monday, July 28, 2025
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केदारनाथ मंदिर के पूरे गर्भगृह में चढ़ाई गई सोने की परत

महाराष्ट्र के एक शख्स ने दान में दिया है पूरा सोना

देहरादून । उत्तराखंड में प्रसिद्ध केदारनाथ मंदिर के पवित्र गर्भगृह पर सोने की परत चढ़ाने का काम बुधवार को पूरा हो गया। यह काम मंदिर के शीतकाल के लिए छह माह तक बंद किए जाने से एक दिन पहले पूरा हो गया। केदारनाथ मंदिर के गर्भगृह की दीवारों और छतों पर सोने की परतें चढायी गई है। गर्भगृह में सोने की परतें चढाने में करीब तीन दिन का समय लगा।
धनतेरस के अवसर पर शुरू हुए काम में अलग-अलग माप की 560-565 सोने की परतों का इस्तेमाल हुआ। ऐसे में गर्भगृह की दीवारें, छत, छत्र, शिवलिंग की चौखट, सब कुछ स्वर्णमंडित हो गया है। इससे पहले, केदारनाथ मंदिर में गर्भगृह की दीवारों पर चांदी परतें लगी हुई थीं। ​यह काम 2017 में किया गया था और इसमें 230 किलो चांदी का इस्तेमाल हुआ था।
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार चांदी की जगह सोने की परतें लगाने के लिए पूरा सोना महाराष्ट्र के एक परिवार की ओर से दान किया गया है। इस दानकर्ता के नाम का खुलासा नहीं किया गया है। समिति ने उत्तराखंड सरकार की अनुमति लेने के बाद सोने की परत लगाने के प्रस्ताव को मंजूरी दी थी।
इसके बाद गर्भगृह का आवश्यक माप इत्यादि लेकर उसके अनुरूप दिल्ली में सोने की परतें तैयार की गयीं और उन्हें ट्रक में भरकर भारी सुरक्षा व्यवस्था के बीच केदारनाथ के आधारशिविर गौरीकुंड तक लाया गया। माप लेने आदि की प्रक्रिया करीब डेढ़ महीने पहले पूरी की गई थी।
18 खच्चरों पर लाद कर सोने की परतें लाई गई
श्री बदरीनाथ – केदारनाथ मंदिर समिति के अध्यक्ष अजेंद्र अजय ने बताया कि गौरीकुंड से 18 खच्चरों पर लाद कर सोने की परतों को केदारनाथ पहुंचाया गया और मंदिर के गर्भगृह में लगाया गया। समिति के अध्यक्ष ने बताया कि गर्भगृह में सोने की परतें चढ़ाने के मामले में धार्मिक मान्यताओं, परंपराओं और पुरातत्व विशेषज्ञों की सलाह का पूरा पालन किया गया।
उन्होंने बताया कि गर्भगृह में सोने की परत चढाने से पहले भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) और रूड़की स्थित केंद्रीय भवन अनुसंधान संस्थान (सीबीआरआई) के विशेषज्ञों के दल ने परियोजना का अध्ययन किया । उन्होंने कहा कि तीन दिन तक चले कार्य के दौरान एएसआई के दो अधिकारी मौके पर लगातार मौजूद रहे ।
शुरुआत में जब सोने की परत लगाने की पूरी प्रक्रिया शुरू हुई थी तो कुछ पुजारियों ने इस कदम का विरोध करते हुए कहा था कि यह परंपरा के खिलाफ है और सदियों पुरानी संरचना के साथ छेड़छाड़ की गई है।

छठ पूजा विशेष…स्मृतियों के झरोखों से बिहार के चकिया का वह छठ घाट !

 

मौमिता भट्टाचार्य

10 साल हो गए… उस जगह को छोड़े जहां मेरा बचपन बिता.. वो कहते है ना.. मेरी हर पहली चीज इस शहर को पता है। चकिया…बिहार में है यह जगह ।
मेरा स्कूल, मेरा कॉलेज…सब कुछ। जब भी घर से कॉलेज जाना होता था, तब 2-3 किमी पैदल चलकर जाना और आना। शाम को घर आने के बाद भी कोई थकान नहीं। होगी भी क्यों… मौसम ही इतना सुहाना होता।
और छठ… अपने घर में नहीं होती थी पूजा… पर घर में तो होती थी। पड़ोस वाली अन्टी जब गेंहू सुखाती तो मां हमें डांटती कि उधर मत जा, छठ का गेंहू सुख रहा है। फिर शाम वाला अर्घ्य… बुढी गंडक का किनारा… हल्की – हल्की पड़ रही सर्दी और पटाखे। नदी के घाट पर जब पटाखे फूटते है… तो दूर से सुनकर ऐसा लगता है जैसे हांडी के अंदर किसी ने पटाखे रखकर फोड़ा है। मैं कभी भी भोर में नहीं जागती हूं पर भोर घाट वाले दिन मां बस एक बार बुलाती और आँखें मलते हुए मैं उठ बैठती। भोर वाले अर्घ्य के लिए अंधेरा रहते हुए ही घर से निकलना… साल में शायद वो एक दिन होता था, जब सूरज को उगते हुए देखती थी। सूरज निकलने के बाद गंडक में छपछप करना और Naturally गरम पानी का वो अहसास… फिर आता था the best part of chhath… ठेकुआ…. Missing everything.

ओह बताना तो भूल ही गयी… Sir के घर से खरना वाली शाम को जब प्रसाद आता था… उसमें मेरी फेवरिट होती थी लकड़ी के चूल्हे पर बनी रोटी और गुड़ वाली खीर। Ah…heaven. आज भी वो taste ढूंढती हूं… पर कहीं मिलती ही नहीं। तस्वीर 8 साल पुरानी है जब चकिया गयी थी ।

(फेसबुक से साभार ली गयी पोस्ट। मौमिता पत्रकार हैं और कई वर्षों से हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हैं)

छठ पूजा विशेष – महापर्व पर विशेष महत्व रखते हैं यह प्रसाद

 आस्था के महापर्व छठ में प्राकृतिक वस्तुओं का विशेष महत्व है. छठ पूजा के प्रसाद में प्राकृतिक वस्तुओं, मौसमी फल चढ़ाए जाते हैं। इन्हें बहुत शुभ माना जाता है – 

 महापर्व छठ की शुरुआत आज से हो चुकी । लोक आस्था का पर्व का आज पहला दिन है और यह चार दिन चलेगा । पहले दिन नहाय-खाय, दूसरे दिन खरना, तीसरे दिन शाम में सूर्य अर्घ्य से चौथे दिन सुबह अर्घ्य पर समापन होता है । छठ पूजा में प्रसाद और अलग-अलग फलों को चढ़ाने की मान्यता है । माना जाता है कि छठी मईया को ये सारे फल बहुत ज्यादा पसंद है । इनका भोग लगाने से मईया सबसे ज्यादा प्रसन्न होगी । आइए जानते हैं इन फलों के बारे में –

ठेकुआ

छठ पूजा में कई प्रसाद चढ़ाए जाते हैं लेकिन उसमें सबसे मुख्य ठेकुए का प्रसाद होता है । इसे गुड़ और आटे से बनाया जाता है । छठ की पूजा ठेकुआ के बिना अधूरी मानी जाती है । छठ के साथ सर्दी की शुरुआत होने लगती है । ऐसे में सेहत को ठीक रखने के लिए गुड़ बेहद फायदेमंद होता है ।

केला

केला छठी मईया को बहुत पसंद है । माना जाता है कि केला भगवान विष्णु का भी प्रिय फल है । इसमें विष्णुजी वास करते हैं । केला शुद्ध फल माना जाता है । छठी मईया को प्रसन्न करने के लिए लोग कच्चा केला भी चढ़ाते हैं । पूजा में कच्चे केले को घर लाकर पकाया जाता है ताकि फल जूठा न हो जाये।

डाभ नींबू

डाभ नींबू सामान्य नींबू से बड़ा होता है । इसका स्वाद खट्टा-मीठा होता है । इसका आकार बहुत बड़ा होता है, जिस कारण पशु-पक्षी खा नहीं पाते हैं । छठी मईया को प्रसाद के रूप में यह नींबू भी चढ़ाना चाहिए ।

नारियल

छठ के त्योहार में नारियल चढ़ाने का महत्व है । छठ पर्व में पवित्रता का बहुत महत्व है । नारियल चढ़ाने से घर में लक्ष्मी आती है । कुछ लोग नारियल चढ़ाने की मनौती मांगते हैं । कुछ के डाले में कई नारियल होते हैं ।

गन्ना

छठ पूजा में नारियल की तरह गन्ने का भी महत्व है । छठ पूजा में गन्ने से बने गुड़ का इस्तेमाल भी प्रसाद में किया जाता है । मान्यता है कि छठी मईया घर में सुख-समृद्धि लाती है. छठी मईया को गन्ना बहुत प्रिय है ।

सुथनी

सुथनी मिट्टी से निकलता है, इसलिए इसे शुद्ध माना जाता है । सुथनी का इस्तेमाल छठ पूजा में होता है । इसमें कई औषधीय गुण होते हैं । सुथनी खाने में शकरकंदी की तरह होता है । यह फल बहुत शुद्ध माना जाता है इसलिए छठ पूजा में इस्तेमाल होता है ।

सुपारी
हिंदू धर्म की किसी भी पूजा में सुपारी का खास महत्व है । किसी भी पूजा का संकल्प बिना पान सुपारी नहीं होता है. सुपारी पर देवी लक्ष्मी का प्रभाव माना जाता है ।

सिंघाड़ा

पानी में रहने के कारण जल सिंघाड़ा सख्त हो जाता है, इसलिए पशु-पक्षी जूठा नहीं कर पाते है । यह लक्ष्मी का प्रिय फल माना जाता है । साथ ही इस फल में बहुत से औषधीय गुण मौजूद होते हैं ।

छठ पूजा विशेष – बिहार का सीताचरण मंदिर, जहाँ हैं देवी सीता के चरण चिह्न

देवी सीता ने भी किया था छठ

वाल्मीकि व आनंद रामायण के साथ मुंगेर गजेटियर में भी है इसका उल्‍लेख

लोक आस्था का महापर्व छठ शुक्रवार से शुरू हो गया है। 28 अक्टूबर को नहाय-खाय व 29 को खरना है। 30 को संध्याकालीन अर्घ्य है और 31 अक्टूबर को सुबह का अर्घ्य है। इस महापर्व की शुरुआत मुंगेर की धरती से हुई थी। लंका से विजयी प्राप्त कर लौटने के समय माता सीता भगवान श्रीराम और लक्ष्मण के साथ मुंगेर में रुकी थीं। यहां माता सीता ने महापर्व छठ का अनुष्ठान किया था। इसका वर्णन वाल्मीकि व आनंद रामायण में भी है। माता सीता के आज भी पवित्र चरण चिह्न मौजूद हैं। अब यह स्थान सीताचरण (जाफर नगर) के नाम से जाना जाता है। यहां मंदिर का निर्माण 1974 में हुआ है।
वाल्मीकि रामायण के अनुसार जब भगवान राम वनवास के लिए निकले थे, तब वे मां सीता और लक्ष्मण के साथ स्थानीय मुद्गल ऋषि के आश्रम आए थे। उस वक्त मां सीता ने गंगा मां से वनवास काल सकुशल बीत जाने की प्रार्थना की थी। वनवास व लंका विजय के बाद भगवान राम व मां सीता फिर से मुद्गल ऋषि के आश्रम आए थे। वहां ऋषि ने माता सीता को सूर्य उपासना की सलाह दी थी। उन्हीं के कहने पर मां सीता ने वहीं गंगा नदी में एक टीले पर छठ व्रत किया था। माता सीता ने (वर्तमान) सीता कुंड में स्नान भी किया था।

कैसे पहुंचे मंदिर

सीताचरण मंदिर जाने के लिए नाव ही एकमात्र सहारा
गर्मी के दिनों में गंगा में पानी कम होने की वजह से पानी नहीं होता है। ऐसे में जाफरनगर से पैदल पहुंच सकते हैं।
हर वर्ष सात से आठ माह यह मंदिर पानी में डूबा रहता है। दूसरे रास्ते से जाना चाहे तो करीब सड़क मार्ग से बेगूसराय जिले के बलिया होते हुए रास्ता है।
मुंगेर गजेटियर में भी उल्लेख
सीताचरण मंदिर गंगा के बीच एक शिलाखंड पर स्थित है। इस शिलाखंड पर चरणों के निशान है, इसे माता सीता का चरण माना जाता है।दोनों स्थानों के चरण चिन्ह के अग्रभाग में चक्र के निशान हैं। इसका उल्लेख 1926 में प्रकाशित मुंगेर गजेटियर में भी किया गया है। सीता चरण की दूरी कष्टहरनी घाट से नजदीक है। मुंगेर किला से से करीब दो मील की दूरी पर गंगा बीच स्थित है। गजेटियर के अनुसार पत्थर में दो चरणों का निशान है, जिसे सीता मां का चरण माना जाता है। यह पत्थर 250 मीटर लंबा और 30 मीटर चौड़ा है। यह जनपद पहले ऋषि मुद्गल के नाम पर मुद्गलपुर था। बाद में इसी के अपभ्रंश का नाम मुंगेर पड़ा।

 

छठ पूजा विशेष – भगवान विश्वकर्मा ने नौ लाख वर्ष पूर्व देव सूर्य मंदिर का किया निर्माण

देश का ऐतिहासिक देव सूर्य मंदिर बिहार की विरासत है। मंदिर के इतिहास पर नजर डालें तो मंदिर का निर्माण नागर शैली में हुआ है। काले पत्थरों को तरासकर मंदिर का निर्माण कराया गया है। देश में भगवान सूर्य के कई प्रख्यात मंदिर हैं परंतु देव में छठ करने का अलग महत्व है। मंदिर को लेकर कई किंवदंती है। औरंगाबाद से 18 किलोमीटर दूर देव सूर्य मंदिर करीब 100 फीट ऊंचा है। मान्यता है कि मंदिर का निर्माण त्रेता युग में नौ लाख वर्ष पहले भगवान विश्वकर्मा ने स्वयं किया था। मंदिर के मुख्य पुजारी सच्चिदानंद पाठक मंदिर को त्रेतायुगीन बताते हैं। मंदिर विश्व धरोहर में शामिल होने के कतार में है।
सूर्यकुंड तालाब है कुष्ठ निवारक
त्रेतायुग में राजा एल थे। वे इलाहाबाद के राजा थे। जंगल में शिकार खेलते देव पहुंचे। शिकार खेलने के दौरान राजा को प्यास लगी। देव स्थित तालाब का जल ग्रहण किया। राजा कुष्ठ रोग से ग्रसित थे। राजा के हाथ में जहां-जहां जल का स्पर्श हुआ वहां का कुष्ठ ठीक हो गया था। राजा गड्ढे में कूद गए जिस कारण उनके शरीर का कुष्ठ रोग ठीक हो गया। रात में जब राजा विश्राम कर रहे थे तभी सपना आया कि जिस गड्ढा में उसने स्नान किया था उस गड्ढा के अंदर तीन मूर्ति दबे पड़े हैं। राजा ने जब गड्ढा खोदा तो ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश की मूर्ति मिली जिसे मंदिर में स्थापित किया। इस सूर्यकुंड तालाब को कुष्ठ निवारक तालाब कहा जाता है।
तीन स्वरूपों में विराजमान हैं भगवान सूर्य
देव में छठ करने का अलग महत्व है। यहां भगवान सूर्य तीन स्वरूपों में विराजमान हैं। मंदिर के गर्भगृह में भगवान सूर्य, ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश के रूप में है। मंदिर में स्थापित प्रतिमा प्राचीन है। सर्वाधिक आकर्षक भाग गर्भगृह के उपर बना गुंबद है जिस पर चढ़ पाना असंभव है। गर्भगृह के मुख्य द्वार पर बाईं ओर भगवान सूर्य की प्रतिमा और दाईं ओर भगवान शंकर की गोद में बैठे मां पार्वती की प्रतिमा है। ऐसी प्रतिमा सूर्य के अन्य मंदिरों में नहीं देखा गया। गर्भगृह में रथ पर बैठे भगवान सूर्य की अद्भुत प्रतिमा है। मंदिर के मुख्य द्वारा पर रथ पर बैठे भगवान सूर्य की प्रतिमा आकर्षक है।

पश्चिमाभिमुखी है मंदिर का मुख्य द्वार
देशभर में स्थित सूर्य मंदिरों का मुख्य द्वार पूरब होता है परंतु देव सूर्य मंदिर का द्वार पिश्चमाभिमुख है। कहा जाता है कि औरंगजेब अपने शासनकाल में अनेक मूर्तियों को तोड़ते हुए देव पहुंचा। मंदिर तोड़ने की योजना बना रहा था तभी लोगों की भीड़ एकत्रित हो गई। लोगों ने ऐसा करने से मना किया परंतु वह इससे सहमत नहीं हुआ। औरंगजेब ने कहा कि अगर तुम्हारे देवता में इतनी ही शक्ति है तो मंदिर का द्वार पूरब से पश्चिम हो जाए हम इस मंदिर को छोड़ देंगे। ऐसा ही हुआ। सुबह में लोगों ने देखा तो मंदिर का प्रवेश द्वार पूरब से पश्चिम हो गया था।

देव में माता अदिति ने की थी पूजा
देवासुर संग्राम में जब असुरों के हाथों देवता हार गए थे तब देव माता अदिति ने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य में छठी मैया की अराधना की थी। प्रसन्न होकर छठी मइया ने उन्हें सर्वगुण संपन्न तेजस्वी पुत्र होने का वरदान दिया था। इसके बाद अदिति के पुत्र त्रिदेव रूपेण आदित्य भगवान जिन्होंने असुरों पर देवताओं को विजय दिलायी। कहते हैं कि उस समय सेना षष्ठी देवी के नाम पर इस धाम का नाम देव हो गया और छठ का चलन प्रारंभ हुआ।

स्नान के बाद चंदन लगाते हैं भगवान सूर्य

देव सूर्य मंदिर में विराजमान भगवान सूर्य प्रत्येक दिन स्नान कर चंदन लगाते हैं। नया वस्त्र धारण करते हैं। आदिकाल से यह परंपरा चलती आ रही है। प्रत्येक दिन सुबह चार बजे भगवान को घंटी बजाकर जगाया जाता है। जब भगवान जग जाते हैं तो भगवान स्नान करते हैं। भगवान के ललाट पर चंदन लगाते हैं। फूल-माला चढ़ाने के बाद खुश होने के लिए आरती दिखाई जाती हैं। भगवान को आदित्य हृदय स्रोत का पाठ सुनाया जाता है। भगवान को तैयार होने में 45 मिनट का समय लगता है। जब भगवान तैयार हो जाते हैं तो पांच बजे श्रद्धालुओं के दर्शन के लिए पट खोल दिए जाते हैं। रात नौ बजे तक भगवान श्रद्धालुओं के लिए गर्भगृह के आसन पर विराजमान रहते हैं। रात नौ के बाद भगवान का पट बंद कर दिया जाता है।

श्रद्धालुओं की उमड़ती है भीड़
कार्तिक एवं चैत छठ में लाखों की संख्या में श्रद्धालु व्रत करने पहुंचते हैं। छोटा सा कस्बा भक्तों की संख्या से पट जाता है। यहां लाखों श्रद्धालु छठ करने झारखंड, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, छतीसगढ़, महाराष्ट्र समेत देश के अन्य राज्यों से आते हैं। मान्यता है कि जो भक्त यहां भगवान सूर्य की आराधना करते हैं उनकी मनोकामना पूर्ण होती है।

(साभार – दैनिक जागरण)

शुभजिता दीपोत्सव – पटाखे चलाएं मगर सावधानी से

दीपावली हर किसी को खुशियां, मस्ती और जश्न मनाने के ढेरों मौके देती है, लेकिन कई बार छोटी-छोटी लापरवाहियों से त्योहार की सारी खुशियों पर नजर लग जाती है। कई बच्चे दौड़-भाग में गिर जाते हैं, जिससे हाथों-पैरों में चोट लग जाती है। कुछ बच्चे बड़े-बड़े बम, रॉकेट बिना बड़ों की उपस्थिति में जलाने लगते हैं, जिससे हाथ-पैर जलने की संभावना बढ़ जाती है। दिवाली के दिन इस तरह की दुर्घटनाएं आम हैं। ऐसे में पटाखे जलाते समय जरूरी है कुछ सेफ्टी टिप्स और फर्स्ट एड के बारे में जान लेना, ताकि समय रहते सही उपचार

हाथ-पैर जलने पर क्या करें
बच्चों के हाथ-पैर यदि पटाखे जलाते समय जल जाएं, तो 10 मिनट तक नल के नीचे हाथ-पैर पर पानी डालें। इससे जलन कम होगी।त्वचा को ठंडक मिलेगी।
जले हुए जगह को कपड़े या तौलिए से रगड़ें नहीं, बल्कि उसके ऊपर जल्दी से कोई एंटीसेप्टिक क्रीम लगाएं। इससे जली हुई त्वचा को आराम मिल जाएगा।
उसके बाद मेडिकल पट्टी से जली हुई त्वचा को कवर कर दें, ताकि धूल-मिट्टी घाव पर ना चिपके। घाव खुला छोड़ने से संक्रमण होने का खतरा बढ़ जाता है।
यदि ज्यादा जल गया है, तो डॉक्टर से जरूर मिल लें
हो सकता है जलने पर डॉक्टर टेटनस का इंजेक्शन लगाने की सलाह दे। इससे शरीर में संक्रमण नहीं फैलता।

हाथ-पैर जलने पर क्या ना करें
जलने पर बर्फ ना लगाएं। इससे त्वचा छिल सकती है।
कुछ लोग घरेलू उपचार में जले हुए स्थान पर टूथपेस्ट लगाने के लिए कहते हैं, आप भूलकर भी ऐसा ना करें।
त्वचा पर छाले हो जाएं, तो उन्हें नाखून से छेड़ें नहीं, इससे जलन होने के साथ ही इंफेक्शन भी हो सकता है।

शुभजिता दीपोत्सव – देवी लक्ष्मी के साथ गणपति और सरस्वती की पूजा

 दीपावली का पर्व हर साल कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है। इस बार ये तिथि 24 अक्टूबर, सोमवार को है। इस पर्व से जुड़ी कई परंपराएं पुरातन समय से चली आ रही है। हालांकि इन परंपराओं में आंशिक परिवर्तन जरूर आया है, लेकिन फिर ये आज भी अपना अस्तित्व बचाए हुए है। आज हम आपको दीपावली से जुड़ी कुछ ऐसी ही परंपराओं के बारे में बता रहे हैं और उनमें छिपे कारणों को भी.

देवी लक्ष्मी के साथ गणपति और सरस्वती की पूजा क्यों?
दीपावली पर देवी लक्ष्मी के साथ बुद्धि के देवता भगवान श्रीगणेश और ज्ञान की देवी सरस्वती की पूजा भी जरूर की जाती है। कारण ये है कि जब देवी लक्ष्मी धन लेकर आए तो उसे संभालने का ज्ञान भी हमारे पास होना चाहिए, ये ज्ञान हमें देवी सरस्वती से प्राप्त होता है और बुद्धि के उपयोग से उसे निवेश करना भी हमें आना चाहिए। ये बुद्धि हमें श्रीगणेश प्रदान करते हैं। इसलिए देवी लक्ष्मी के साथ श्रीगणेश और सरस्वती का विधान बनाया गया।

क्यों देवी लक्ष्मी को चढ़ाते हैं खील?
दीपावली पूजा में देवी लक्ष्मी को खील यानी धान का लावा विशेष रूप से चढ़ाया जाता है। खील चावल से बनती है और उत्तर भारत का प्रमुख अन्न भी है। फसल के रूप में इसे देवी लक्ष्मी को चढ़ाया जाता है। शुक्र ग्रह का प्रमुख धान्य भी चावल ही होता है। शुक्र ग्रह से शुभ फल पाने के लिए भी देवी लक्ष्मी को खील का भोग लगाया जाता है।

क्यों करते हैं दीपदान?
दीपावली के पांच दिनों में दीपदान की परंपरा भी प्रमुख है। इसके पीछे कारण है कि हम प्रकृति के निकट जाएं और उसे समझें। नदी का किनारा पितरों का स्थान माना गया है। यहां दीपक लगाने से पितृ प्रसन्न होते हैं और उनकी कृपा हम पर बनी रहती है। पवित्र नदियों या सरोवर में दीपदान करने से अशुभ ग्रह भी शांत होते हैं और हमें शुभ फलों की प्राप्ति होती है।

क्यों करते हैं झाड़ू की पूजा?
दीपावली पर लक्ष्मी पूजा के दौरान झाड़ू की पूजा भी जरूर की जाती है। इसके पीछे मनोवैज्ञानिक कारण है। झाड़ू से ही हम सुबह-शाम अपने घर को साफ करते हैं और गंदगी को बाहर निकालते हैं। झाड़ू से ही हमारे घर में साफ-सफाई बनी रहती है। जो वस्तु हमारे घर को साफ करने में सहायक होती है, दीपावली पर उसकी पूजा कर उसे धन्यवाद प्रेषित किया जाता है।

अदभुत रामायण में है सीता के काली रूप में अवतार की चर्चा

स्त्री के अपहरण और उसके काली रूप की चर्चा सनातन धर्म के कई ग्रंथों में मिलता है। इसी प्रसंग में बहुत महत्त्वपूर्ण कथा आयी है सीता का काली के रूप में अवतार का। अद्भुत रामायण में यह कथा आयी है। अद्भुत रामायण वर्णित कथा के अनुसार रावण के वध के बाद राज्याभिषेक के उपरान्त सीता ने कहा कि कैकसी से दो पुत्र हुए थे, एक दस सिर वाला और दूसरा सहस्र सिर वाला। अब तक केवल दस सिर वाला रावण ही मारा गया है। वह तो छोटा था. सहस्र सिर वाला रावण पुष्कर द्वीप में रहा करता है। हे राम उसे मारने पर आपकी बड़ाई होगी।

सहस्रबाहु रावण से राम का हुआ था युद्ध

राम ने सीता का प्रस्ताव स्वीकार किया और पुष्पक विमान से पुष्कर क्षेत्र की ओर चल पड़े. विमान पर सीताजी भी साथ थीं। राम की सारी सेनाएं गयी। युद्ध आरंभ होने के पूर्व ही सहस्रमुख रावण ने ऐसा वायव्यास्त्र चलाया कि सारी सेना अपने अपने घर लौटकर राम और सीता की चिन्ता करने लगी। सहस्रबाहु के साथ राम का भीषण युद्ध चला, जिसमें राम मूर्च्छित हो गये।

ब्रह्मा से भी सीता का उग्र काली रूप न हो सका शांत

यह देखकर सीता ने काली का रूप विकराल रूप धारण किया और सहस्रमुख रावण के सभी सिरों को काटकर उन्हें गेंद बना कर खेलने लगीं। उनका यह भयंकर रूप सान्त नहीं हो रहा था। सीता के इस काली रूप को देखकर सभी देवता दौड़ पड़े। ब्रह्माजी ने राम की मूर्छा दूर कर दी, लेकिन सीता का वह विशाल काली रूप उनसे शान्त नहीं हो पाया। तब अंत में सभी देवताओं ने भगवान शिव से प्रार्थना की।

सीता के काली रूप को शांत करने को आये महादेव

देवताओं ने कहा कि आप ही अब इनके रूप को शान्त करें नहीं तो सृष्टि समाप्त हो जायेगी। भगवान शिव ने देवों की प्रार्थना स्वीकार की और वे पृथ्वी पर लेट गये। काली के रूप में सीता का पैर जब भगवान शिव के हृदय पर पड़ा, तो वह लज्जा के कारण शान्त हो गयीं और उनका सौम्य रूप प्रकट हुआ। फिर वह आद्या शक्ति के रूप में राम से जा मिलीं. इस प्रकार अदभुत रामायण की कथा कहती है कि रावण का वध सीता ने काली का रूप धारण कर खुद किया।

सनातन धर्म की पांच शाखाएं विकसित हुई

साक्त संप्रदाय के जानकार पंडित भवनाथ झा कहते हैं कि इस कथा में हम जिस साम्प्रदायिक समन्वय की भावना देखते हैं, उसने बाद में समाज को एकजुट करने का कार्य किया। इसी के तहत पुराणों में विभिन्न प्रकार की कथाएँ कही गयीं तथा उसी परम देव ब्रह्म के अनेक रूपों में मानवीकरण हुआ। इस पद्धति में पाँच शाखाएँ विकसित हुई- सौर, गाणपत्य, शैव, शाक्त एवं वैष्णव. एक छठी शाखा शाखा भी थी, जो आग्नेय शाखा कहलाती थी। इसमें अग्नि को भी मुख्य देवता माना गया। बाद में चलकर सूर्य तथा गणेश से सम्बन्धित शाखा विलुप्त हो गयी. शेष तीन बचे, जिनमें प्रत्येक शाखा के ग्रन्थ अपनी परम्परा को सबसे ऊपर मानने लगेय़

आगम पद्धति से सनातन की सभी संप्रदायों का समन्वय हुआ

वैदिक काल में सभी लोग वेद के मन्त्रों से परिचित थेय़ लोग उपासना में उन मन्त्रों का व्यवहार करते थे लेकिन धीरे-धीरे जब जनसंख्या बढ़ी और जनता अपने अपने कौलिक धंधे में लग गयी तो वेद मन्त्रों से दूर हुई। अतः उन्हें देवता की उपासना जोड़ने के लिए आगम पद्धति का विकास हुआ। इस आगम पद्धति में पौराणिक तथा तान्त्रिक शाखाएँ हुईं। यह सभी लोगों के लिए पद्धति थी। विगत 1000 वर्षों में सबके समन्वय की भावना आयी। इसके तहत शिव तथा शक्ति का समन्वय स्थापित किया गया, फिर शिव के साथ विष्णु की एकात्मकता के सूत्र खोजे गये।

 

(साभार – प्रभात खबर)

शुभादि दीपोत्सव 2022

यह चित्र श्री जैन विद्यालय, हावड़ा की चौथी कक्षा के छात्र अनुराग साव ने बनाया है।

उत्तर प्रदेश के गाजीपुर स्थित जमानिया के जेआईएफएम स्कूल के बच्चों की बनायी आकर्षक रंगोली। इसे बनाने में स्कूल की शिक्षिकाओं निष्ठा तिवारी, वंदना पांडेय. पूजा यादव एवं शबीना का मार्गदर्शन रहा।

 

उत्तर प्रदेश से प्रतिष्ठा तिवारी द्वारा बनायी गयी रंगोली

शुभजिता दीपोत्सव – धनतेरस पर निवेश और सकारात्मकता लाता है स्वर्ण

 धनतेरस भारत में दिवाली के पहले दिन मनाया जाता है। हिंदू मान्यताओं के अनुसार इस दिन सोना और चांदी खरीदना शुभ माना जाता है. इस बार धनतेरस 22 अक्टूबर यानी आज शनिवार को मनाया जा रहा है। भारत दुनिया में सोने और चांदी के सबसे बड़े उपभोक्ताओं में से एक है. सोना परंपरागत रूप से भारत में निवेश के सबसे सुरक्षित तरीकों में से एक माना जाता रहा है। मान्यता है कि इस धनतेरस पर सोने की खरीदारी करने से आसपास सकारात्मकता बढ़ती है।

धनतेरस पर लोग क्यों खरीदते हैं सोना-चांदी

धनतेरस दिवाली उत्सव की शुरुआत का प्रतीक है. इस त्योहार को “धनत्रयोदशी” या “धन्वंतरि त्रयोदशी” भी कहा जाता है।  इस दिन, भक्तों द्वारा भगवान धन्वंतरि की पूजा की जाती है।

भगवान धन्वंतरि की पूजा की क्या है मान्यता

धन्वंतरि चिकित्सा के हिंदू देवता और भगवान विष्णु का अवतार हैं। पुराणों में उनका उल्लेख आयुर्वेद के देवता के रूप में मिलता है. भक्त धन्वंतरि से अपने और दूसरों के लिए विशेष रूप से धनतेरस या धन्वंतरि त्रयोदशी पर अच्छे स्वास्थ्य के लिए उनका आशीर्वाद लेने के लिए प्रार्थना करते हैं। यह भी माना जाता है कि भगवान धन्वंतरि समुद्र मंथन के दौरान अमृत के घड़े के साथ निकले थे, जब देवताओं और राक्षसों ने मेरु पर्वत को हिलाया था। कहने की जरूरत नहीं है कि भगवान कुबेर और देवी लक्ष्मी का आशीर्वाद पाने के लिए लोग साल के इस शुभ समय के दौरान सोने में निवेश करते हैं, ताकि आने वाले वर्ष में भगवान से आशीर्वाद और जीवन में समृद्धि प्राप्त हो सके।