सिनेमा हमारी रग – रग में बसा है…। जिन्दगी की हर घटना और हर एक क्षण में हिन्दी फिल्मों…उसके नायकों और नायिकाओं का एक हिस्सा जरूर होता है…हम हर बात में उनका जिक्र करते हैं और वह हमारी उपमा में मौजूद रहते हैं और हमारी कसौटी पर खरा उतरने के लिए सितारे भी बहुत मेहनत करते हैं। अपना व्यक्तित्व भूलकर वे वह बन जाते हैं जैसा हम उनको देखना चाहते हैं। वह हमारे दिल में रहना चाहते हैं और वहाँ उनकी जगह कोई न ले सके, इसके लिए वह अपनी जान पर खेल जाते हैं या अप्राकृतिक तरीके अपनाते हैं…समय को थाम लेने और उसे रोक लेने का असम्भव प्रयास करते हैं। श्रीदेवी ने भी यही किया….तमाम नायिकायें यही करती हैं और सामान्य और साधारण औरतें भी यही करती हैं। परदे पर यह मजबूरी असुरक्षा के कारण होती है…खो जाने का डर…कद्र खत्म हो जाने का डर…शो बिजनेस में ही नहीं….आम जिन्दगी में लड़कियाँ और औरतें…इसी डर के बीच जीती हैं क्योंकि उनको जो महत्व दिया जाता है या जिस दर्जे को हासिल करती हैं, वह उनकी खूबसूरती के कारण ही है..।
देखा जाये तो खूबसूरती को महत्व मिलना गलत नहीं है मगर जब यह पूरे व्यक्तित्व और सम्मान और जिन्दगी पर भारी पड़ जाये और हमारा आकलन बस इसके इर्द – गिर्द सिमट जाये तो यकीनन सशक्त होने की तमाम मजबूत दीवारें ढह जाती हैं। खूबसूरती आपको गर्व दे सकती है मगर वो भी क्षणिक है, वह आपको जीवन भर का स्वाभिमान नहीं दे सकती क्योंकि चेहरे तो ढलते हैं और हर रोज नये चेहरे आते हैं…स्वाभिमान तो उस काम से आता है जिसके लिए आपको याद किया जाये। दिक्कत यह है कि हम सशक्तीकरण की बात करते हैं मगर इसका दायरा जिस्मानी खूबसूरती, महँगे कपड़ों के चारों ओर समेट लेते हैं और इसे हर कीमत पर हासिल करने के लिए और नहीं खोने देने की जिद में असुरक्षा में जीते हैं। श्रीदेवी समेत अन्य नायिकायें और अधिकतर स्त्रियाँ इसी असुरक्षा में जीती हैं….खूबसूरत न रही तो शादी नहीं होगी, लोग मजाक उड़ायेंगे….नौकरी नहीं मिलेगी…..पति छिन जायेगा…लोग भूल जायेंगे..ऐसे न जाने कितने ही तमाम डर हैं जो आपको सामान्य होने ही नहीं देतें और आपको एक आवरण में लपेटकर जीती हैं। ये आवरण ही आपकी कमजोरी है…असली खूबसूरती आपकी शख्सियत में है। उन बातों में है जिनकी मदद से आप एक बेहतर दुनिया बना सकती हैं और खुद पर नाज कर सकती हैं। खूबसूरती उस ताकत में है जो आपको वह ताकत देती है जिससे आप कुछ बेहतर कर सकती हैं। झुर्रियाँ आपकी कमजोरी नहीं बन जातीं…वह आपका मापदंड भी नहीं हो सकती हैं…।
फिर भी खासकर शो बिजनेस से जुड़ी महिलाओं की जिन्दगी में ऐसा नहीं है। वे जाने कितनी बार प्लास्टिक सर्जरी करवाती हैं, एंटी एजिंग दवाएं खाती हैं…..मेकअप की परतें थोपती हैं और कपड़ों का स्टोर हाउस बनती हैं और उनको कोई नहीं रोकता…कोई नहीं बताता कि तुमको ये सब करने की कोई जरूरत नहीं…तुम जैसी हो…हमें वही चाहिए। सबको पता है कि बोनी कपूर श्रीदेवी की खूबसूरती के कायल थे।क्या उनको पता नहीं था कि श्रीदेवी सुन्दर बने रहने के लिए किस तरह के तरीके अपना रही हैं…उनको रोकना चाहिए…मगर कोई नहीं रोकता। इनकी नकल में आम औरतें भी अक्सर ऐसा ही करती देखी जाती हैं मगर ये जानना जरूरी है कि आपको किसी की परछाई बनने या किसी के जैसा होने की जरूरत नहीं है। आप अपनी पहचान आप हैं।
क्या सशक्त होने के लिए प्रकृति से लड़ना जरूरी है। अच्छा दिखना अच्छी बात है मगर यह आपके पूरे व्यक्तित्व के आकलन का मापदंड नहीं हो सकती। सबसे बड़ी बात यह है कि जो आपको आपकी तरह न जीने दे…उससे प्यार करने का कोई मतलब है? प्यार तो वह है जो आपको आपकी तरह स्वीकार करे। कुदरत ने जो जिन्दगी दी है, हमारा फर्ज है कि हम उसका सम्मान करें और नकली चेहरे को छोड़कर खुद से प्यार करें, वास्तविक सशक्तीकरण यही है। जिस दिन हम यह समझ गये…महिला सशक्तीकरण तो बस यूँ ही आ जायेगा। अलग से महिला दिवस नहीं मनाना पड़े या खूबसूरती की परिभाषा थोड़ी सार्थक हो…हम एक नकलीपन से निकलकर खुली साँस ले सकें…हमें इसी दिन का इंतजार है।