कल ही की तो है बात
धुंधले प्रकाश की पाठिका
चल निकली मंजिल पाने
स्वयं बनी खुद की सहायिका।
अनगढ़ रास्ते, बेड़ियां बंधनो की,
समाज की पैनी नजरों की धार।
बुनती थी नई गीतिका के छंद,
साथ ही पाबंदियां करती दरकिनार।
कभी गिरती, कभी टूटती सी, बढ़ती
थामे आत्मविश्वास की दृढ पतवार।
लहरों के थपेड़े, गति रोकते अक्सर
पर हलचल मचाती, चलती लगातार।
अविरल एवम अथाह साहस उसका
भरता हृदय में दिव्य ओज,
बढ़ती रही, चलती रही, गढ़ती रही,
बदलती रही सड़ी गली सोच।