नहीं मालूम मैंने जन्म क्यों लिया

वसुन्धरा मिश्र

मुझे नहीं मालूम मैने जन्म क्यों लिया
मुझे नहीं मालूम स्त्री जन्म क्यों लिया
मुझसे ही पुरुष ने जन्म क्यों लिया
मैं प्रकृति की कामना ही क्यों बनी
आकाश की विराट बांहों में भी सुरक्षित नहीं
पुरुष स्त्री की सहयात्री क्यों नहीं बनी
उस रेत की धरती में न जाने कितनों को दबाया गया
कितनों की श्वास को दबोचा गया
चीखना चिल्लाना भी मना था
मुंह को कपड़े से बंद कर दिया
कैसे-कहूं भावनाओं के कुचलने का कोई प्रमाण न मिला
आंसुओं की कोई नदी नहीं मिली
दबी-कुचली चीख का कोई गीत न मिला
सब कुछ सहने के निशान किसी मोहनजोदडो़ की खुदाई में नहीं मिले
कोई कुछ कहता है कोई कुछ
दस मुंह बीस बातें
मेरा अस्तित्व मिटा, मेरी पहचान गई
कुछ बच गया था पर वह मेरी अस्मिता का फैला हुआ खून था
मुझे नहीं मालूम जीवित होकर भी कौन-सा पहाड़ बनाना है
सदियों से वस्तु बनी
सृष्टि की सबसे सुंदर कृति बनी
दुर्गा तो लगता है एक ही बनी थी
दूसरी-तीसरी हम जैसी थीं
मुझे नहीं मालूम कि मैं कैसे बनी
पुरुष की स्त्री लगता है मर चुकी है
स्त्री सिर्फ पृथ्वी पर भटक रही है
कभी मरती है तो कभी पुरुष के भीतर के शैतानों को जगाती है
वह खूंखार पशु की तरह नोच खसोट कर फेंक दिया करता है
मुझे नहीं पता वह दूसरी-तीसरी की तलाश क्यों करता रहता है
मुझे नहीं मालूम – -मुझे सच में नहीं मालूम मुझे नहीं मालूम

शुभजिता

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