हमारी परम्परा…हमारे प्राचीन साहित्य में छिपी है..वह साहित्य, जिसे हम पुरातन समझते हैं और जिसे पीछे छोड़ आये हैं। हम सब जानते हैं कि संस्कृत देवभाषा है मगर संस्कृत को आज की भाषा बनाने की जरूरत है….विज्ञान और तकनीक से जोड़ने की जरूरत है औऱ हिन्दी को भी इसकी ही जरूरत है। हुआ यह कि इसे हमने सिर्फ ‘धार्मिक भाषा ‘समझकर छोड़ दिया जबकि इसमें हमारी जीवनशैली, इतिहास, समाज, उपलब्धि सब समाहित है। जब कोई भाषा किसी एक वर्ग की सम्पत्ति समझकर छोड़ दी जाती है तो जनता से वह दूर हो जाती है…और उसके बाद होती है उस भाषा के साहित्य और उसकी मूल चेतना से छेड़छाड़। गलत को सही बताने के लिए बहुत कुछ जोड़ दिया जाता है और बहुत कुछ सुनियोजित तरीके से छोड़ दिया जाता है जबकि परम्परा को तार्किक तरीके से देखा जाए और सही बातों को चुनकर रूढ़ियों को छोड़ा जाए तो यही भाषा और उस भाषा का साहित्य हमारी राह को आसान कर सकता है। अच्छी बात यह है कि संस्कृत साहित्य को सरल हिन्दी में समझाने के लिए कई संस्थान काम कर रहे हैं। वैदिक साहित्य को लेकर भी काम हो रहा है मगर चयन का आधार बगैर तर्क के नहीं हो सकता क्योंकि विश्वास का आधार अगर तर्क नहीं होगा तो संशय और भटकाव बने रहेंगे। हम वही लें जो आज के युग के अनुरूप हो…और वह खोजें जो कहीं छिपा या छिपाया गया है। यही कारण है कि शुभजिता उसी प्राचीन धरोहर को आपके सामने रखने जा रही है…वैदिक और संस्कृत साहित्य और इससे सम्बन्धित जानकारी। ऋषिका परम्परा…और ऐसा ही तथ्य हम आपके लिए खोजकर लाएँगे…हमारे केन्द्र में स्त्रियाँ रहेंगी क्योंकि बात उन पर भी होगी। पहली कड़ी में जानिए वेद औऱ वैदिक साहित्य के बारे में –
याज्ञवल्क्य स्मृति में ज्ञान के चौदह सूत्रों का उल्लेख है। वे हैं – वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद), वेदांग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष), पुराण, न्याय, मीमांस और धर्मशास्त्र।
पुराणन्यायमीमांसा धर्मशास्त्रांग मिश्रिता:। वेदा: स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश ॥
– याज्ञवल्क्य स्मृति
मुण्डकोपनिषद् में एक बहुत ही रोचकरूप में विद्या को दो प्रकारों में विभाजित किया है – परा और अपरा।
द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च ॥ 4॥
तत्रापरा, ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः
शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति ।
अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते ॥ 5॥
– मुण्डकोपनिषद्
ज्ञान अपरा विद्या के अन्तर्गत आता है। वेद शास्त्र हैं और वेदांग वैदिक-सहायक विज्ञान हैं जो ध्वन्यात्मक/स्वर विज्ञान से सम्बन्धित है। वैदिक शास्त्र चार भागों मे विभाजित हैं- संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद। प्रत्येक शाखा के लिए विशेष वैदिक व्याकरण का नियम हैं जिन्हें प्रातिशाख्य कहते हैं और उच्चारण से सम्बन्धित नियमों को शिक्षा के रूप में जानते हैं। मीमांसा सूत्र वैदिक पाठ की व्याख्या के लिए नियमों का वर्णन करता हैं, न्याय और वैशेषिक सूत्र (तर्क ,अस्तित्वता एवं ज्ञान मीमांसीय विषय सम्बन्धित), पुराण वेदों के संदेशों और शिक्षाओं का वर्णन करते है, धर्म सूत्र सार्वभौमिक सद्भाव के लिए आचार संहिता का वर्णन करता है।
वेद माननीय सभ्यता के अभिन्न ज्ञान -विज्ञान, परम्परा और संस्कृति का स्रोत है। यह प्राचीनकाल से विद्यमान लौकिक ज्ञान के आसुत ज्ञान का मौखिक संकलन है। इनका परिचय न केवल शास्त्र से है अपितु भारतीय संस्कृति और मानव सभ्यता के प्रमुख स्रोत के रूप में भी जाना जाता है।
1. ‘वेद’ शब्द का अर्थ
‘वेद’ शब्दका अर्थ ‘ज्ञान’ है। यह शब्द संस्कृत के मूल ‘विद्’ धातु से घञ् प्रत्यय करने पर निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ है ‘जानना’। यह किसी एक विशेष साहित्यिक कार्य का उल्लेख नहीं करता है, अपितु साहित्य के एक विशाल कोष को दर्शाता है, जो अनेकानेक शताब्दियों में अभिवृत हुआ और जिसे मौखिक रूप से एक पीढी से दूसरे पीढ़ी को हस्तान्तरित किया गया। वेद को ‘श्रुति’ कहते हैं अर्थात् ‘श्रवण’ करना होता है जहाँ कालोपरान्त प्रकट ऋषि रचित स्मृति वेदो का पुनः स्मरण करते हैं। यह मुख्य रूप से मौखिक-कर्ण विधि का उल्लेख करता है जो इसके लिए प्रयोग किया जाता था (और है)।
भारतीय पारम्परिक विचारों के अनुसार ‘वेद’ को प्रकट ग्रन्थ, स्व-साक्ष्य और आत्म प्रमाणित माना जाता है। यह किसी भी मानव द्वारा रचित नहीं है। वैदिक मन्त्र (सूक्त) या छन्द (मन्त्र) केवल ऋषियों (ऋषियों) द्वारा देखे और बोले गए हैं। ये द्रष्टा (ऋषि) न तो मंत्रों के लेखक हैं और न ही वे मंत्रों की विषय-वस्तु के लिए उत्तरदायी हैं। वेद के सबसे प्राचीन व्याख्याकार यास्क हैं जिन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि इन दृष्टाओं का पात्र केवल ज्ञान प्राप्ति मात्र ही है अथवा इनको ज्ञान अनुभूत हुआ। तत्पश्चात् मौखिक रूप से इस अनुभूत ज्ञान को वंशजों को सौंप दिया। महान वैदिक टीकाकार सायण ने वेद की एक परिभाषा दी है
‘इष्टप्राप्ति- अनिष्ट-परिहारयोः यो लौकिकम्-उपायं यो ग्रन्थो वेदयति स वेदः’
इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट का परिहार जिस ग्रन्थ के माध्यम से होता है वह वेद है। यह परिभाषा वेद के उद्देश्य को प्रस्तुत करती है। एक अन्य परिभाषा, ऋषि आपस्तम्भ के अनुसारवेद मंत्रों और ब्राम्हणों का सम्मिलित रूप है।
मंत्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्॥
यह परिभाषा ‘वेद’ के रूप का वर्णन करती है क्योंकि इसे मुख्य रूप से इन दो विशिष्ट भागों में विभाजित किया जा सकता है- मंत्र और ब्राह्मण। जिसके अनुसार, मंत्र भाग वेद का मुख्य भाग है और वेद के मंत्रहीन भाग ब्राम्हण भाग के अन्तर्गत आता है। यहां यह जानना रोचक है कि प्राचीन भारतीय ग्रंथों में वेद की कई प्राचीन परिभाषाएं, इसके महत्त्व, रूप या सामग्री को दर्शाती हैं। आम तौर पर ’वेद’ शब्द बोलना उच्चतम, पवित्र, शाश्वत और दिव्य ज्ञान के साथ-साथ उस ज्ञान को ग्रहण करने वाले ग्रंथों को दर्शाता है।
2. वेद का महत्त्व
वेद का महत्व बहुआयामी है
1. वेद उपलब्ध ग्रंथों में सबसे प्राचीन, सर्वप्रथम एवं सर्वस्वीकृत गन्थ है।
2. संस्कृत भाषा में गद्य और कविता के रूप में वेद को सर्वोपरि ज्ञान माना गया है। ऐसा प्रतीत होता हैकि इसका आधिपत्य कई युगोंसे निर्विवाद रहा है, और यह धार्मिक दार्शनिक या सामाजिक रीतियों के विवादों का अन्तिम निर्णायक है। ‘आस्तिक’ शब्द का उपयोग भारतीय दर्शन की उन प्रणालियों के लिए किया जाता है, जिनका वेद के अधिकार पर विश्वास है और ‘नास्तिक’ शब्दका उपयोग भारतीय दर्शन की उन प्रणालियों के लिए किया जाता है, जिनका वेद के अधिकार पर विश्वास नहीं है।
3. हिन्दुओं के धर्म एवं संस्कृति का मूल आधार वेद है। वर्तमान में भी उनकी पूजा आराधना विधि ,संस्कार एवं दृष्टिकोण वेद से प्रभावित है।
4. वेद में उच्चतम आध्यात्मिक ज्ञान (परा विद्या) के साथ-साथ दुनिया का ज्ञान (अपरा विद्या) भी शामिल है। अतः दर्शन के अतिरिक्त हमे इसमें विज्ञान,चिकित्सा, राजनीति विज्ञान, मनोविज्ञान, कृषि, काव्य, कला, संगीत इत्यादि अन्य विभिन्न विषयों का वर्णन हमें प्राप्त होता है।
5. वेद अपनी पवित्रता और निर्मलता में अद्वितीय है। वेद का पाठ सहस्रों वर्षों के पश्चात् भी किसी भी परिवर्तन या प्रक्षेप के बिना अपने शुद्ध और मूल रूप में संरक्षित है। वेद सच्चे ज्ञान का एकमात्र विशुद्ध अन्तर्धन है। इतना ही नहीं यूनेस्को ने भी इसे मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत का भाग घोषित किया है।
6. वैदिक भाषा शैली सूक्ष्म एवं संक्षिप्त अभिव्यक्ति की अवधारणा है। प्रायः इसमें गहरे गूढ़ अर्थ मिलते हैं जो रहस्यमयी सत्य का मार्ग प्रशस्त करते हैं| वैदिक द्रष्टाओं के तात्कालिक उत्तराधिकारियों से लेकर हमारे समय तक के ज्ञानियों का एक मात्र गहन अध्ययन वेद में गुप्त सर्वोत्तम सत्य का रहस्योद्घाटन रहा है। यही कारण है कि कई टीकाएँ और संदर्भ-पुस्तकें वेद और वैदिक अवधारणाओं को समझने के लिए प्राचीन और आधुनिक विद्वानों द्वारा लिखी गई हैं। यह विशाल संदर्भ सामग्री वैदिक ग्रंथों के प्रमुखत्त्व को पुनः रेखांकित करता है।
3. वेद का संरक्षण (वेद पाठ)
वेद के प्राचीनता के पश्चात् भी इसका वास्तविक रूप वर्तमान तक विशुद्ध एवं संरक्षित है। यहां तक कि एक प्रसिद्ध यूरोपीय विद्वान मैक्स मूलर ने भी माना है, “वेदों का पाठ हमें इतनी सटीकता और सावधानी के साथ सौंपा गया है कि शब्दों में यद्यपि ही कोई परिवर्तन हो, या पूरे वेदों में कोई अनिश्चित पहलू हो”।
इसका श्रेय वैदिक दृष्टाओं (ऋषियों) को जाता है, जिन्होंने अपने समस्त ज्ञान के द्वारा वेद के पाठ की रक्षा और संरक्षण के साधनों को विकसित किया। वैदिक मंत्रों में उच्चारणविधि (स्वर) होते हैं जो शब्द के मूल रूप को संरक्षित करते हैं-
मंत्रो को कण्ठस्थ करने हेतु निम्नलिखित तीन प्रकृति पाठ होते हैं:
1. संहिता-पाठ – जिस में मंत्र अपने वास्तविक रूप में रहता है।
2. पदपाठ- जिस में मंत्र के प्रत्येक शब्द का अलग से उच्चारण होता है।
3. क्रमपाठ- जिस में मंत्र के दो शब्दों को संयुक्तरूप से उच्चारण किया जाता है जैसे क-ख, ख-ग
वेद को कण्ठस्थ करने हेतु निम्नलिखित आठ विकृति पाठ हैं-
1. जटा पाठ
2. माला पाठ
3. शिखा पाठ
4. रेखा पाठ
5. ध्वज पाठ
6. दण्ड पाठ
7. रथ पाठ
8. घन पाठ
इन में घन पाठ सब से कठिन और सब से बडा है।
दूसरे चरण में ‘अनुक्रमाणि’ नामक ग्रंथ उत्पन्न हुए जिस में ऋषि, देवता, छंद के नाम का उल्लेख वेदों के प्रत्येक मंत्र के संदर्भ में किया गया। छन्दानुबन्ध से मंत्रो का संरक्षण होता है। ए. ए. मैकडोनेल ने अपने ‘हिस्ट्री ऑफ़ संस्कृत लिटरेचर’ में सही ढंग से यह बताया है- उस दूरस्थ समय से, इस तरह का देखभाल दिया गया कि वेदों के पाठ में कोई बदलाव नहीं हुआ है जो ऐतिहासिक रूप से अतुलनीय है।
4. वेद का अनन्त काल (अपौरूषेयता)
वेद किसी भी मनुष्य द्वारा रचित नहीं है, यह अपौरूषेय है। मीमांसा में कहा गया है कि अपौरूषेयं वाक्यं वेदः। वेद के ज्ञान को ऋषियों ने अंतश्चक्षुओं के द्वारा साक्षात् किया है, ऋषयोः मन्त्र द्रष्टारः। महान् प्रकाशकों की अन्य सभी रचनाएँ पौरुषेय की श्रेणी में आते हैं और इसीलिए उन्हें उनके सम्बन्धित नामों से जाना जाता है। ऋग्वेद में वेद को शाश्वत और अपौरुषेय के रूप में वर्णित किया गया है।
‘वाचा विरूपा नित्यता’ (ऋग्वेद 8.76.6)
इसी प्रकार उपनिषद् कहता है कि वेद उस ‘परम ब्रह्म’ के अवसान (नि:शवास) की समान ही है। वे परब्रह्म के बहिस्वास है, अतः वेद भी परब्रह्म के समान ही शाश्वत है।
वेदों की अपौरुषेयता एवं वाक् के विभिन्न स्तर_प्रो॰ हृदयरंजन शर्मा (MP3)
वैदिक भाषा का काल_प्रो॰ गयाचरण त्रिपाठी (MP3)
5. वेदों की काल गणना
अब किसी को संदेह नहीं है कि ऋग्वेद मानव का सबसे प्राचीनतम ग्रन्थ है, लेकिन ऋग्वेद या वेद की काल गणना निर्धारित करना सबसे कठिन कार्य है। इस पहलू की कई समस्याएं हैं, जैसे-
1. शिलालेख, मुद्रा आदि के रूप में कोई बाह्य प्रमाण की अनुपलब्धता।
2. वैदिक ग्रंथों में तिथियों का उल्लेख नहीं है।
3. अपौरूषेयता का सिद्धांत वेद को शाश्वत मानता है।
4. वेदों में उपलब्ध वैदिक खगोलीय गणनाएं बहुत स्पष्ट नहीं हैं।
5. भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों का दृष्टिकोण इस विषय पर भिन्न है।
वेद की काल गणना के प्रश्न पर, एकमात्र स्रोत जो बना हुआ है, वह साहित्यिक साक्ष्य है, जिस पर तथा कथित साहित्यिक या भाषा आधारित सिद्धांत हैं। अन्य सिद्धांत कुछ मान्यताओं पर आधारित हैं जिन्हें अभी तक निर्णायक रूप से सिद्ध नहीं किया जा सका है। मैक्स मूलर ने अपनी पुस्तक ‘फिजिकल रिलिजन’ (P.18) में कहा है, ” चाहे वैदिक मंत्र 1000 या 1500 या 2000 या 3000 ईसा पूर्व में रचे गए हों, प्रत्येक पर कोई शक्ति कभी भी ठीक नहीं हो सकती”, निश्चित रूप से वैदिक ज्ञान काल गणना एवं समय से परे है अतः शाश्वत एवं सार्वभौमिक है। जब हम वेदों की काल गणना की बात करते हैं, तो हमारा उदेद्श्य मुख्यतः वैदिक ग्रंथों की व्यवस्था और रचना की अवधि निर्धारित करना है। एशिया माइनर में पाए गए बोगज़्कोइ शिलालेख (1400 ई.पू.) में चार वैदिक देवताओं का उल्लेख है, इसलिए हम 1400 ईसा पूर्व वैदिक युग की नवीनतम सीमा पर विचार कर सकते हैं। परन्तु वेदों की काल गणना के बारे में अंतिम शब्द कहा जाना अभी शेष है।
इस विषय पर कुछ महत्वपूर्ण विचार समस्या की जटिलता को दिखाने के लिए एक तालिका में संक्षेप रूपसे प्रस्तुत किए गए हैं:
विद्वान् का नाम काल गणना का आधार वेद की काल गणना
1. स्वामी दयानन्द सरस्वती वेद मंत्र सृष्टि की शुरुआत से
2. दीनानाथ शास्त्री एस्ट्रोनॉमी 3 लाख साल पहले
3. अविनाश चंद्र दास जियोलॉजी 25000 ईसा पूर्व
4. बालगंगाधर तिलक एस्ट्रोनॉमी 6000 ईसा पूर्व
5. आर जी भण्डारकर वैदिक मंत्र 6000 ईसा पूर्व
6. शंकर बालकृष्ण दीक्षित एस्ट्रोनॉमी 3500 ईसा पूर्व
7. एच जैकोबी एस्ट्रोनॉमी 4500 ईसा पूर्व
8. एम विंटरनित्ज बोगज़कोइ 2500 ईसा पूर्व
9. एफ मैक्समूलर बुद्धिस्ट लिट्रेचर 1200 ईसा पूर्व
6. वैदिक साहित्य का वर्गीकरण
मुख्य रूप से वैदिक साहित्य (अपरा विद्या) को दो श्रेणियों में रखा गया है:
वेद
वेदांग
‘वेद’ चार वेदों को प्रदर्शित करने वाला एक सामूहिक शब्द है –
ऋग्वेद
यजुर्वेद
सामवेद
अथर्ववेद
इन चार विभिन्न वेदों के कारण, प्रायः वेद को बहुवचन में कहते हैं। चार वेदों में साहित्यिक कार्यों के चार विभिन्न वर्ग शामिल हैं। इनमें से प्रत्येक वर्ग के लिए अधिक या कम संख्या में विभिन्न कार्य हैं, जिनमें से कुछ को उनके वास्तविक रूप में संरक्षित किया गया है, लेकिन कई समय में विलुप्त हो गए हैं। ये चार वर्ग हैं:
संहिता
ब्राह्मण
अरण्यक
उपनिषद्
अरण्यकों और उपनिषदों को ब्राह्मण ग्रन्थों के अन्तर्गत माना जाता है अन्यथा ये भिन्न नहीं है।
वेद का गूढ रहस्य अर्थ ग्रहण हेतु वेदांगो में छः ज्ञान धाराएं सम्मिलित हैं –
शिक्षा
कल्प
व्याकरण
निरुक्त
छन्द
ज्योतिष
इसके अतिरिक्त, प्रत्येक वेद के उपवेद भी है जो वैदिक ज्ञान के स्रोत हैं-
ऋग्वेद > आयुर्वेद
यजुर्वेद > धनुर्वेद
सामवेद > गान्धर्ववेद
अथर्ववेद > अर्थशास्त्र
वेद मुख्य रूप से यज्ञ (आराधना पद्धति) करने के लिए है। जैसा उद्धृत किया गया है
वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ता कालानुपूर्व्याभिहिताश्च यज्ञाः I
तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिषं वेद स वेद यज्ञम् II
-वेदांग ज्योतिष
यज्ञों को दो प्रमुख वर्गों में विभाजित किया गया है-
हविर्यज्ञ और सोम यज्ञ
विशेष रूप से विज्ञान, गणित, चिकित्सा, खगोल विज्ञान, वास्तुकला, न्याय प्रणाली, धातुकर्म, पारस्परिक भाषा शास्त्र,पर्यावरण अध्ययन, विमान-विद्या, ज्योतिष, अनुष्ठान आदि के क्षेत्र में आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान की दृष्टि से वैदिक ज्ञान को समझने के उद्देश्य से एक प्रयास किया गया है।