90 साल की उम्र में जताई अपने पैसे कमाने की चाह, आज हाथों-हाथ बिकती है इनकी बर्फियां!

चंडीगढ़ :  93 साल की हरभजन कौर अपने हाथों से बनाई बेसन बर्फी जब चंडीगढ़ के साप्‍ताहिक ऑर्गेनिक मार्केट में भेजती हैं तो मिठास का वो ज़ायका हाथों-हाथ बिक जाता है। बमुश्किल तीन साल पहले उन्‍होंने बर्फी बेचकर अपनी जिंदगी की ‘पहली कमाई’ की थी और उससे हासिल खुशियों ने उन्‍हें रसोई के रास्‍ते सुख की एक अनदेखी, अनजानी डगर पर डाल दिया। हरभजन कौर अमृतसर के नज़दीक तरन-तारन में जन्‍मी थी। फिर शादी के बाद अमृतसर, लुधियाना रही और करीब दस साल पहले पति की मौत के बाद वे कुछ समय से अपनी बेटी के साथ चंडीगढ़ में रहने लगी। एक रोज़ बेटी ने यों ही उनके दिल की थाह लेनी चाही और पूछ लिया – ”कोई मलाल तो नहीं न है आपको, कोई चाहत तो बाकी नहीं, कहीं आने-जाने या कुछ करने-देखने की इच्‍छा बाकी हो तो बताओ। जैसे वे इस सवाल का इंतज़ार ही कर रही थी। ”बस, एक ही मलाल है … मैंने इतनी लंबी उम्र गुज़ार दी और एक पैसा भी नहीं कमाया। माँ का मन टटोलने के बाद इस बेटी ने अगला सवाल दागा – ”आप क्या कर सकती हो, कैसे कमाना चाहोगी वो पहला रुपय्या?”
इस सवाल का जवाब नब्‍बे बरस की मां ने जो दिया उसे दोहराते हुए बेटी का गला आज भी भर आता है। आंखों में उतर आए सैलाब को किसी तरह संभालते हुए वह बताती हैं कि माँ ने उस रोज़ अपना ‘बिज़नेस प्‍लान’ बताया – ”मैं बेसन की बर्फी बना सकती हूँ। घर में धीमी आंच पर भुने बेसन की मेरे हाथ की बर्फी को कोई तो ख़रीददार मिल ही जाएगा …. ”
नज़दीकी सैक्‍टर 18 के ऑर्गेनिक बाज़ार से परिवार वालों ने संपर्क साधा और वहां से मिला 5 किलो बेसन बर्फी का पहला ऑर्डर। बर्फी तो हाथों-हाथ बिक गई और हरभजन ने अपनी उस बेशकीमती पहली कमाई को मुट्ठी में महसूस करते हुए बस इतना ही कहा था – ”अपने कमाए पैसे की बात ही कुछ और होती है।” फिर उस कमाई को उन्‍होंने अपनी तीनों बेटियों में बराबर बांट दिया।
घरवालों ने सोचा माँ को तसल्ली हो गई होगी। लेकिन वो तो अब अपने इस ‘हुनर‘ को आगे बढ़ाने की इच्छा पाल बैठी थी। देखते-देखते मुहल्ले-पड़ोस, परिचितों तक बर्फी की शोहरत पहुंचने लगी और हरभजन कौर ‘ऑर्डर’ पर अपने घर की रसोई में और कई चीज़ें भी बनाने लगी। बादाम का शरबत, लौकी की आइसक्रीम, टमाटर चटनी, दाल का हलवा, अचार वगैरह भी अब इस जुनूनी माँ की ऑर्डर लिस्‍ट के रास्‍ते सप्‍लाई होने लगे। हालांकि ऑर्डर पूरा करने की रफ्तार धीमी होती है, मगर जब ज़ायके में भरा हो अद्भुत स्‍वाद तो हर कोई इंतज़ार की लाइन में लगने को तैयार हो जाता है। वे खुद जुटती हैं अपने ऑर्डर निभाने। घर में काम के लिए आने वाली सहायिका या बेटियों-नातिन को कुछ भी छूने या हाथ बंटाने की भी छूट नहीं होती। मेवे-मगज बीनने, छांटने, धोने-सुखाने से लेकर खर्रामा-खर्रामा आंच पर स्‍वाद और सुगंध की कीमियागिरी चलती रहती है। जिस बेसन बर्फी के दम पर हरभजन ने इस पकी उम्र में यह निराला सफर शुरू किया है उसे बनाना उन्‍होंने अपने पिता से सीखा था, यानी करीब सौ साल पुरानी रेसिपी का स्‍वाद आज भी जिंदा है। अपनी कुछ रेसिपी वे अपने शैफ नाती को सौंप चुकी है, जो अपने रेस्‍टॉरेंट में पंजाब की इस खान-पीन विरासत को हमेशा के लिए सुरक्षित कर चुका है।
इस बीच, चंडीगढ़ की बेसन बर्फी वाली हरभरजन कौर के कद्रदान शहर में बढ़ने लगे हैं। शहर में रहने वाली एक आरजे खुश्‍बू, जो हर हफ्ते ऑर्गेनिक बाज़ार से अपनी किचन के लिए ख़रीददारी करती हैं, पिछली दफा बर्फी खरीदने के बाद बोली ”सब्जियों, फलों, दालों, शहद और तेल के साथ-साथ इस बार बर्फी लेकर जाते हुए मुझे अहसास हुआ है उस जज्‍़बे, जुनून, उस दीवानगी और गरमाइश का, जो इन तमाम उत्‍पादों में समायी होती है। और बर्फी का तो क्‍या कहना, सीधे दादी-माँ का खज़ाना है।”हरभजन कौर की नातिन को नानी के जुनून पर इतना फख्र है कि उसने बाकायदा ‘हरभजन’ ब्रांड नाम उनके व्‍यंजनों को सुझाया है और एक खूबसूरत-सी टैगलाइन भी सोच ली है – ”बचपन की याद आ जाए।”
अब जब नानी बढ़ चली हों ‘ऑन्‍ट्रप्रेन्‍योरशिप’ की राह पर, तो नातिन भी कहां पीछे रहने वाली है। जल्‍द उसकी शादी है और वो खास मेहमानों को हलवाई की मिठाई नहीं बल्कि नानी के हाथ की बर्फी देने की ठान चुकी है। और उनकी रसोई से उठती महक बता रही है कि नानी अपनी लाडली की इस फरमाइश को पूरा करने में जुट चुकी हैं। उन्हें कुछ साबित भी नहीं करना। वे तो उन छोटी-छोटी इच्छाओं को पूरा करने की दास्तान हैं जो अक्सर हमारे सीनों में कहीं अटकी रह जाती हैं।
उनकी कहानी पकी उम्र में स्वाभिमान, आत्मसम्मान और अनंत ख़ुशियों को हासिल करने की तरकीब सिखाती है। हरभजन कौर की इस कहानी को जानने-सुनने के बाद कुछ लोगों ने ऐसा ही कुछ अपने पेरेंट्स के लिए भी करने की इच्‍छा जतायी है। उन्‍हें लगता है यह उस उम्र में बुजुर्गों को सशक्‍त और समर्थ बनाने का एक तरीका हो सकता है जब वे खाली रहते-रहते कभी खुद से ही नाराज़ हो जाते हैं तो कभी चिड़चिड़े बन जाते हैं, या और कुछ नहीं तो अपनी बीमारियों को ही जीने लगते हैं। लेकिन इस तरह उन्‍हें ‘एम्‍पावर्ड’ बनाकर समाज के लिए उपयोगी बने रहने की भावना से भरा जा सकता है।

(साभार – द बेटर इंडिया)

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