सरलीकृत शिक्षा ने किया बेड़ा गर्क, फारसी पढ़कर तेल बेचना गलत नहीं

अपराजिता फीचर डेस्क
इन दिनों बेरोजगारी की खूब चर्चा है जो आँकड़ों के मुताबिक सबसे ऊँचे स्तर पर जा पहुँची है मगर सच तो यह है कि बेरोजगारी का मामला शिक्षा और हमारी सोच को बदले बगैर सुलझने वाला नहीं है। हमने शिक्षा को सरल बनाने के नाम पर न सिर्फ शिक्षा का बेड़ा गर्क किया है बल्कि बच्चों को ही ऐसा पंगु बना दिया है कि वे जब युवा बनते हैं तो जीवन की चुनौतियों का सामना कर ही नहीं पाते हैं।
हम हर बार यहकहा जाता है कि शिक्षा का आधार योग्यता, जानकारी और मेधा होती है मगर इन दिनों हर चीज का आधार अंक हैं। इसी आधार पर दाखिला होता है और इसी आधार पर मिलती है नौकरी। नतीजा यह है आज शिक्षा का आधार ज्ञान या जानकारी प्राप्त करना नहीं बल्कि येन – केन प्रकारेण नौकरी के लिए अंकों का जुगाड़ करना है। अंकों को लेकर प्रतिस्पर्द्धा का आलम यह है कि अपने बोर्ड की सफलता का प्रतिशत अधिक से अधिक दिखाने के लिए बोर्ड सबसे अधिक जोर किसी तरह पास प्रतिशत बढ़ाने में लगाते हैं। नतीजा यह है कि 90 या 97 प्रतिशत परिणाम होता तो है मगर जब बात योग्यता की होती है तो सारे सितारे खो जाते हैं। हर साल मेधातालिका में टॉपर्स के नम्बर बढ़ते हैं मगर वे कितने कुशल हैं, जीवन की आने वाली चुनौतियों का सामना करने में कितने सक्षम हैं, व्यावहारिक तौर पर अपनी सूचना और जानकारी को जीवन में किस कदर उतार पाते हैं, ये ऐसे यक्ष प्रश्न हैं जिनसे भागने की कोशिश ही करते हुए तमाम बड़े दिग्गजों को देखा गया है। स्थिति यह है कि साहित्य जैसे विषय में शत – प्रतिशत अंक आ रहे हैं मगर यह कितना समीचीन है, यह सोचने की जरूरत है। नेशनल स्टेटिस्टिक्स ऑफिस (एनएसओ) की ओर से हाल ही में जारी आंकड़ें बताते हैं कि साल 2017-18 में शिक्षित पुरूषों में बेरोजगारी निरक्षर पुरूषों की तुलना में कई गुना ज्यादा थी. साल 2017-18 में जहां 2.1 फीसदी निरक्षर पुरूष बेरोजगार थे, वहीं माध्यमिक स्कूल पास पुरूष में ये दर 9.1 फीसदी रही। ट्यूशन पर निर्भरता चिन्ता का एक बड़ा कारण है। आप किसी भी बोर्ड के अव्वल विद्यार्थी से पूछ लीजिए, वह अपनी सफलता का श्रेय अपने ट्यूशन या कोचिंग शिक्षक को देना नहीं भूलता। यह जमीनी धरातल पर हमारी स्कूली शिक्षा व्यवस्था पर सवाल खड़े करता है। हाल ही में किये गये शिक्षा सम्बन्धी एक वैश्विक सर्वे में भारत के बच्‍चों को लेकर एक चौंकाने वाली जानकारी सामने आयी है। इसमें बताया गया है कि दुनिया में सबसे ज्यादा ट्यूशन भारत के बच्चे पढ़ते हैं. भारत में 74 फीसदी बच्चे ट्यूशन पढ़ते हैं। इनमें अधिकांश गणित विषय में सहायता लेते हैं। इतनी बड़ी संख्या में बच्चों का ट्यूशन पढ़ना चिंताजनक है मगर आज दिक्कत यह है कि बच्चों के लिए अगर यह बैसाखी बन गया है तो अभिभावकों के लिए भी स्टेटस सिम्बल ही है। यह सर्वे कैंब्रिज विश्वविद्यालय की सहयोगी संस्था द्वारा कराया गया है।सर्वेक्षण में दुनियाभर के 20 हजार शिक्षकों और विद्यार्थियों से सवाल पूछे गये। इसमें से 4400 शिक्षक और 3800 छात्र भारत के थे।इसके जरिये यह पता लगाने की कोशिश की गयी कि दुनियाभर के स्कूली बच्चों और शिक्षकों की प्राथमिकताएं क्या है? भारत में कॅरियर के मामले में इंजीनियरिंग और मेडिकल सबसे लोकप्रिय क्षेत्र हैं।

भारत में 16 फीसदी छात्र और सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनना चाहते हैं और 8 फीसदी वैज्ञानिक।भाषाओं के मामले में भारतीय छात्रों की पहली पसन्द अंग्रेजी है। 84.7 फीसदी छात्र अंग्रेजी पढ़ना चाहते हैं।गणित और विज्ञान पर भारतीय छात्रों का ज्यादा जोर है। 78 फीसदी छात्रों की गणित पढ़ने में दिलचस्पी है। उसके बाद भौतिक विज्ञान 73.1 और रसायन विज्ञान 71.8 फीसदी का नंबर आता है, जबकि 47.8 फीसदी बच्‍चे कंप्‍यूटर साइंस पढ़ना चाहते हैं। अब यह सोचने वाली बात है कि क्या यह सम्भव है कि जरा भी गलती शिक्षकों को न मिले..यह सरलीकरण शिक्षा व्यवस्था को कहाँ ले जाकर छोड़ेगा..। निजी स्कूलों में वर्क एडुकेशन के नाम पर जो सिखाया जाता है, उसमें से अधिकतर तो बच्चे बाजार से खरीदते हैं, कई बार बच्चों की जगह अभिभावक ये सारे सामान बनाते हैं…सवाल यह है कि बच्चे ने क्या सीखा..कई बार यह भी शिकायत मिलती है कि शिक्षिका सीधे वह सामान बनाकर लाने को कह देती है…बच्चा न बना पाया तो अभिभावक बना देते हैं। आजकल तो बच्चों के प्रोजेक्ट पूरे करना भी एक व्यवसाय बन गया है..इस स्थिति में बच्चे क्या सीखेंगे? आज लगभग हर स्कूल समग्र शिक्षा की बात करता है, बैग का वजन बढ़ रहा है, अंक भी बढ़ रहे हैं मगर उतनी ही तेजी से बच्चों की दुनिया सिमट रही है। अधिकतर हिन्दी माध्यम स्कूलों में तो खेल के मैदान ही नहीं हैं..शारीरिक गतिविधि की कोई जगह नहीं है और जिन स्कूलों में हैं, उन स्कूलों के बच्चों के पास तो फुरसत ही नहीं है। पहले हम नोट्स लिखा करते थे तो इसी क्रम में न सिर्फ लिखावट सुधरती थी, लिखने की गति तेज होती थी बल्कि वह पाठ हमें थोड़ा -बहुत याद भी हो जाया करता था। आज जेरॉक्स कल्चर ने शिक्षा को ही जेरॉक्स बनाकर छोड़ दिया है। पहले बाजार में जब किसी प्रोजेक्ट से जुड़ी तस्वीर नहीं मिलती थी तो हम बाकायदा हाथ से बनाते थे, नतीजा यह हुआ कि थोड़ी – बहुत चित्रकला भी आ गयी थी, आज सीधे प्रिंट का जमाना है। यह न सिर्फ खर्चीला है बल्कि बच्चों की प्रतिभा को कुन्द कर कर रहा है। बच्चे बोलना नहीं सीख पा रहे, बहुत से बच्चों में अंक कम होने के कारण आत्महीनता भी आ रही है और द्वेष भी पनप रहा है। सिर्फ और सिर्फ अच्छे अंक पाने वाले बच्चों का प्रतिशत तो कम है तो जो बच्चे अंक अच्छे नहीं ला पाये…वह कहाँ जाए..? एक समय था जब परीक्षा पद्धति सख्त थी। शिक्षकों से डाँट भी पड़ती थी। बुरा लगता था मगर कभी इस बात को दिल पर नहीं लिया क्योंकि हमें यही सिखाया गया था कि शिक्षक ने अगर डाँटा है तो कुछ सोच – समझकर किया होगा..आज स्थिति यह है कि खुद अभिभावक प्रदर्शन करने लगते हैं। बच्चा क्या सीखेगा और वह शिक्षकों का आदर ही क्यों करेगा..? कॉलेजों में शिक्षकों से जिस तरह की बदसलूकी हो जाती है..वह इसी का परिणाम है।

पहले की तुलना में देखा जाए तो आज के बच्चे ज्यादा अवसादग्रस्त और हार मानने वाले हैं। अब सुना जा रहा है कि उच्च माध्यमिक की परीक्षा में उत्तर पुस्तिकाओं की परम्परा भी खत्म करने का प्रस्ताव है। प्रश्नपत्र में सीमित जगह में उत्तर लिखने होंगे। अगर प्रश्न का एक हिस्सा ऐसा होता…तब समझा जा सकता था मगर पूरे प्रश्नपत्र का संक्षिप्त कर देना तो बच्चों की बौद्धिकता और व्याख्या व लेखन शिक्षण प्रणाली पर कुठाराघात से अधिक कुछ नहीं है। हिन्दी माध्यम स्कूलों के बच्चों को अनूदित किताबों के सहारे छोड़ दिया गया है….नोट्स लिखा देने भर से शिक्षक गंगा नहा ले रहे हैं, पाठ्यक्रम भी समाप्त हो रहा है, बच्चे पास हो रहे हैं और दाखिला भी ले रहे हैं मगर इन सब के बीच जो शब्द गायब है, वह सीख पाना ही है। शिक्षा के जरिये अब न आचरण आ रहा न चरित्र, न मानवीय मूल्य, न नागरिक संस्कार, न राष्ट्रीय दायित्व एवं कर्तव्य बोध और न ही अधिकारों के प्रति चेतना। आज प्रत्येक वर्ग में शिक्षा के गिरते स्तर को लेकर चिंता जताई जा रही है। शिक्षा के गिरते स्तर पर लंबी-लंबी बहसे होती है। और अंत में उसके लिए शिक्षक को दोषी करार दिया जाता है। जो शिक्षक स्वयं उस शिक्षा का उत्पादन है और जहाँ तक संभव हो रहा है मूल्यों, आदर्शों व सामाजिक उत्तर दायित्व के बोध को छात्रों में बनाये रखने का प्रयत्न कर रहा है, तमाम राजनीतिक दबावों के बावजूद। बच्चों को पढ़ाने-लिखाने के साथ-साथ जनगणना, आर्थिक गणना, बालगणना, पशुगणना, पल्स पोलियो से लेकर मतदाता सूची तैयार करना, मतगणना करना और चुनाव ड्यूटी तक तमाम राष्ट्रीय कार्यक्रमों को पूरी कुशलता से करने वाला शिक्षक इतना अकर्मण्य और अयोग्य कैसे हो सकता है? पाठ्यक्रम आधा कर दिया गया, हिन्दी साहित्य का इतिहास आधा पढ़ाया जा रहा है, भाषा विज्ञान को समेट दिया गया…प्राचीन इतिहास को गायब कर दिया गया..अब किस तरह की पीढ़ी तैयार कर रहे हैं, हम. ये हमें सोचना चाहिए। द टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर बताती है कि पुरुषों की तुलना में शहरी बेरोजगार महिलाओं की संख्या और ज्यादा रही। रिपोर्ट बताती है कि 0.8 फीसदी शहरी अशिक्षित महिलाएं बेरोजगार थीं जबकि उच्च शिक्षा या उच्च माध्यमिक स्कूल पास महिलाओं में ये दर 20 फीसदी तक रही।  एनएसओ की ओर से आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) जारी किया गया था। सर्वेक्षण में श्रम बल में बेरोगाजार लोगों की संख्या के संबंध में जानकारी दी गई है। सर्वेक्षण के मुताबिक माध्यमिक और उच्च माध्यमिक शिक्षा या इससे ज्यादा शिक्षा प्राप्त शहरी महिलाओं में बेरोजगारी दर चार फीसदी तक बढ़ी है।

एनएसओ ने स्पष्ट किया है साल 2017-18 के आँकड़ों की गणना के लिए अलग तरीकों का इस्तेमाल किया गया है, ऐसे में इनकी तुलना पहले के आंकड़ों से नहीं की जानी चाहिए। एनएसओ चेतावनीको ध्यान में रखा भी जाए तो तमाम तथ्य बताते हैं कि बीते समय में शिक्षा के स्तर के साथ बेरोजगारी दर भी बढ़ी है। इसके साथ ही सांख्यिकी मंत्रालय की ओर से जारी आँकड़ों में बताया गया है कि वित्त वर्ष 2017-18 में देश में बेरोजगारी दर बढ़कर 6.1 प्रतिशत हो गयी। अगर साहित्य से सम्बन्धी शिक्षा और उससे जुड़े रोजगार पर बात की जाये तब भी सवाल वहीं हैं। साहित्य चाहे किसी भी भाषा का हो, अँग्रेजी हो, हिन्दी हो या बांग्ला हो, उसमें शॉर्ट कट के लिए कोई जगह नहीं होती, वह व्याख्या की माँग करता है। हर बच्चा पढ़कर प्रतियोगी परीक्षा में नहीं जाता, फिर इन विषयों में कट टू कट मार्क्स या संक्षिप्त उत्तर की व्यवस्था भर से कैसे काम चल सकता है। किसी तरह पास करवाने की व्यवस्था में वर्तनी से लेकर वाक्य में अशुद्धियों की भी छूट दी जा रही है। अगर विषय साहित्य से अलग हुआ तब तो जैसे वर्तनी और वाक्य की बात करना ही गुनाह हो जाता है। जरा सोचिए, ऐसे छात्र जब शिक्षक बनेंगे तो वे बच्चों को कैसी शिक्षा देंगे? आईसीएसई में 98.54 प्रतिशत और आईएससी में 96 प्रतिशत परिणाम रहा और आईएससी में तो जो टॉपर रहे, उनको शत प्रतिशत अंक मिले… आईएससी में कोलकाता के देवन कुमार अग्रवाल (साइंस) और बेंगलुरू की विभा स्वामिनाथन (मानवशास्त्र) के 100-100 फीसदी अंक आए हैं। भारतीय बच्चे गणित में भी रट्‌टा मार रहे हैं। चार अंकों तक के जोड़-घटाव तो वो 95 फीसदी तक सही कर लेते हैं, पर लाभ-हानि के प्रश्न हल करने में सटीकता 55 फीसदी ही है। सीबीएसई और आईसीएसई के विद्यार्थियों पर क्विज नेक्स्ट एप के एक सर्वे में यह बात सामने आई है।


अप्रैल 2019 में 70 शहरों के कक्षा 6 से 10 तक के 7,500 बच्चों पर यह सर्वे हुआ और इनसे जुटाए 1 लाख 20 हजार आँकड़ों को जाँचा। रिपोर्ट कहती है कि बच्चों में रट्‌टा मारने की आदत बढ़ रही है। क्विज नेक्स्ट के फाउंडर गुरु प्रसाद होरा ने भास्कर को बताया कि प्रश्न में की-वर्ड मिलने पर ही बच्चे सही जवाब दे पा रहे हैं। प्रश्न तार्किक हो तो समस्या और बढ़ जाती है।
सर्वे में की-वर्ड आधारित सवालों की सटीकता 86% रही। बिना की-वर्ड आधारित प्रश्नों को हल करने की सटीकता 63% रही। मार्च में दुनिया की सबसे बड़ी लर्निंग कम्युनिटी ब्रेनली ने मेट्रो शहरों के 5 हजार बच्चों पर सर्वे किया था। इसके अनुसार 55% विद्यार्थी गणित और विज्ञान की परीक्षा को लेकर चिंतित थे।  अब रही बात भाषा की, जिस पर कोहराम मचा है तो यह सही है कि पाँचवीं तक मातृभाषा में शिक्षा का पक्ष और तर्क, दोनों समझा जा सकता है मगर हिन्दी पढ़ने और सीखने में अहिन्दीभाषियों को क्या परेशानी हो सकती है। हिन्दी सिर्फ राजभाषा नहीं बल्कि देश को जोड़ने वाली सम्पर्क भाषा है और रोजगार की भाषा भी है। अँग्रेजी अब भी अमीरों की भाषा ही है और दूसरे स्थान पर ही है।

लोक फाउंडेशन और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने मिलकर सर्वे किया है। जिसकी जांच सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी ने की है। सर्वे के मुताबिक, भारत में अंग्रेजी बोलने वाला वर्ग धनी और शिक्षित है साथ ही ज्यादातर अगड़ी जाति का है। भूगोलीय स्थिति के आधार पर जारी आंकड़ों के अनुसार, देश में अंग्रेजी बोलने वालों का आंकड़ा कम हो सकता है। भारत में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा हिंदी ही है
सर्वे के मुताबिकअंग्रेजी बोलने वालों का सम्बंध धर्म और जाति से भी है। अंग्रेजी बोलने वालों में 15 फीसदी से अधिक लोग क्रिश्चियन, 6 फीसदी हिंदू और 4 फीसदी मुस्लिम हैं। अगड़ी जाति के लोग दूसरी जातियों के मुकाबले तीन गुना अधिक अंग्रेजी बोलते हैं। इनमें पुरुषों की संख्या ज्यादा है। बुजुर्गों के मुकाबले कम उम्र के लोग अंग्रेजी का अधिक इस्तेमाल करते हैं। हिन्दी के बाद देश में सबसे ज्यादा अंग्रेजी बोली जाती है। हिंदी भाषा में 50 से अधिक बोलियां जैसे भोजपुरी भी शामिल हैं जिसे 5 करोड़ लोग बोलते हैं। 52.8 करोड़ भारतीयों के लिए पहली और दूसरी भाषा हिंदी है।  सर्वे के अनुसार, 6 फीसदी लोगों ने कहा कि वे अंग्रेजी बोल सकते हैं। सामने आए नतीजे कहते हैं, अंग्रेजी अभी भी शहरी भाषा मानी जाती है। ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले मात्र 3 फीसदी लोग बोले कि वे अंग्रेजी बोल सकते हैं वहीं शहरी क्षेत्र में ये आँकड़ा 12 फीसदी है।
41 फीसदी अमीर वर्ग के लोग ही अंग्रेजी बोलते हैं वहीं गरीब तबके का मात्र 2 फीसदी ही ऐसा कर पाता है। अंग्रेजी बोलने वालों में ज्यादातर शिक्षित वर्ग है और ये ऐसे लोग हैं जो ग्रेजुएट हैं।

अंग्रेजी अलग-अलग भाषाई क्षेत्र के लोगों को संवाद स्थापित करने के लिए पुल की तरह काम करती है। दक्षिण के मुकाबले दक्षिण-पूर्व के राज्यों में अंग्रेजी अधिक बोली जाती है। दिल्ली और हरियाणा जैसे राज्यों के धनी और गोवा-मेघालय के क्रिश्चियन लोग इस भाषा का अधिक इस्तेमाल करते हैं। असम सबसे बड़ा अपवाद है, यहाँ कम आय और सीमित क्रिश्चियन लोगों की संख्या होने के बाद भी अंग्रेजी का अधिक प्रयोग किया जाता है। देश में दो भाषा बोलने वाले 37.5 फीसदी और तीन भाषा वाले 11 फीसदी लोग हैं। हिंदी के साथ दूसरी भाषा बोलने वालों में मराठी और गुजराती शामिल हैं। जनगणना 2011 के मुताबिक, 2 लाख 56 लोगों की पहली, 8.3 करोड़ लोगों की दूसरी और 4.6 करोड़ भारतीयों की तीसरी भाषा भी अंग्रेजी है। यहां दूसरी भाषा से मतलब ऐसे लोगों से है जो अन्य भाषा भी जानते हैं, लेकिन प्रमुखता से अंग्रेजी या हिंदी का प्रयोग करते हैं। जाहिर सी बात है कि जो हालात हैं, उसमें रोजगार और शिक्षा को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। देखा गया है कि अव्वल अंक पाने वाले जो पढ़ते हैं, वह उद्योग जगत या किसी भी क्षेत्र में व्यावहारिक तौर पर लागू करना मुश्किल है। युवाओं के पास प्लान बी न होना और सबका एक ही पेशे के पीछे भागना न सिर्फ अभाव का कारण है बल्कि मनचाही नौकरी न मिले तो वह अवसाद का कारण है। दरअसल, वक्त आ गया है कि पढ़े फारसी बेचे तेल की उक्ति को पलटा जाये…क्योंकि तेल भी हमारी दैनन्दिन जरूरत है। यहाँ फारसी को अगर अकादमिक शिक्षा से जोड़ा जाए और तेल को रोजगारपरक शिक्षा माना जाए और इसे छोटे – छोटे से स्तर पर ले जाया जाए, तब ही समाधान निकलेगा। सरकार क्या किसी के लिए सम्भव नहीं है कि हर एक को नौकरी मिले तो फिर हम उपलब्ध संसाधनों को विकसित कर अपनी आय का जरिया क्यों नहीं बना सकते? जो कर रहे हैं, वह बेहतर और उन्नत तरीके से करें, डिग्री हासिल करने के लिए अपने हाथ का हुनर छोड़ना जरूरी तो नहीं, बल्कि आप अपने ज्ञान से उसे और बेहतर बना सकते हैं। आप मूर्तियाँ, ताले, गलीचे, दरी, बर्तन से लेकर खेती और घर बनाने जैसे अनगिनत क्षेत्रों में काम कर सकते हैं। इस तरह आप न सिर्फ खुद आत्मनिर्भर होंगे..बल्कि रोजगार सृजन में सहायक भी होंगे। एमबीए पास अगर नल ठीक करने, बागवानी की एजेन्सी खोले तो क्या बुरा है। स्नातक की पढ़ाई के बाद अगर आप हाइजीनिक तरीके से गोलगप्पे बेचते हैं तो इसमें कोई बुराई नहीं, वह धीरे – धीरे आपका अपना एक कैफे बन सकता है। दरअसल, मानसिक जड़ता को तोड़े बगैर किसी भी समस्या का समाधान निकलना सम्भव नहीं है इसलिए फारसी पढ़कर भी तेल बेचने में ही फायदा है।

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