होली के रंगों में छिपे हैं संस्कृति के रंग

होली रंगों का त्योहार है। होली के संदर्भ में कहा जाता है कि…

वंदितासि सुरेंद्रेण शंकरेण च। अतस्त्वं पाहिं नो देवि, भूते भूतिप्रदा भव।।

यानी इंद्र, ब्रह्मदेव, शंकर ने आपको वंदन किया है। हे देवी, आप ही हमारा रक्षण कर, हमें ऐश्वर्य प्रदान करें। इस मंत्र का जाप कर होली के दिन रंगोत्सव मनाने की प्रक्रिया को शुरू करना चाहिए।

गुलाल लगाना

आज्ञाचक्र (मस्तिष्क) पर गुलाल लगाना, पिंड बीज के शिव को शक्ति तत्व का योग देने का प्रतीक है। गुलाल से आने वाली तरंगे, रंगों के रूप में आती हैं जो शरीर की सात्विक तरंगों के रूप में कार्य करने की क्षमता बढ़ाती है। मस्तिष्क से ग्रहण होने वाला शक्तिरूपी चैतन्य संपूर्ण देह में संक्रमित होता है। इससे वायुमंडल में भ्रमण करने वाली चैतन्य तरंगें ग्रहण करने की क्षमता बढ़ जाती है। इस विधि द्वारा जीव चैतन्य के स्तर पर अधिक संस्कारक्षम बनता है।

होली में नारियल डालना

नारियल के माध्यम से वायुमंडल के कष्टदायक स्पंदनों को खींचकर, उसके बाद उसे होली की अग्नि में डाला जाता है। इस कारण नारियल में संक्रमित हुए कष्टदायक स्पंदन होली की तेजोमय शक्ति की सहायता से नष्ट होते हैं और वायुमंडल की शुद्धि होती है।

त्रेतायुग के प्रारंभ में श्रीविष्णु ने धूलिवंदन (रंगों से होली खेलना) किया। इसका अर्थ है कि उस युग में श्री विष्णु ने अगल-अलग तेजमय रंगों से अवतार कार्य का आरंभ किया।

धूलिवंदन यानि धुलेंडी

होली के दूसरे दिन अर्थात धूलिवंदन के दिन कई स्थानों पर एक-दूसरे के शरीर पर गुलाल डालकर रंग खेला जाता है। होली के दिन प्रदीप्त हुई अग्नि से वायुमंडल के रज-तम कणों का विघटन होता है। इस दिन हर तरफ आनंद होता है।

इस दिन रंगों से खेली जाने वाली होली से आपसी वैमनस्यता, आपसी मतभेद दूर होते हैं और खुशियां, आपसी सद्भाव का आगाज होता है ।

होली के संदर्भ में कुछ अन्य जानकारी

भविष्य पुराण के अनुसार, ढुण्ढा नामक राक्षसी गांव-गांव जाकर बालकों को कष्ट देती थी। उन्हें कई तरह के रोगों से ग्रस्त कर देती थी। उसे गांव से बहार भगाने के लिए कई लोगों ने प्रयास किए, किंतु वे सभी विफल रहे। अंत में उसे गालियां और शाप दिए गए। इस पर वह प्रसन्न होकर गांव से भाग गई और लोगों ने एक दूसरे पर रंग डालकर खुशियां मनाईं। उत्तर भारत में ढुण्ढा राक्षसी की अपेक्षा पूतना को होली की रात जलाते हैं।

 

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