नयी दिल्ली : फिल्म ‘चक दे इंडिया’ का वह दृश्य आपको याद होगा, जिसमें महिला हॉकी टीम के कोच बने शाहरूख खान अलग अलग राज्यों से आई लड़कियों को अपने संबद्ध राज्य की बजाय अपने नाम के साथ ‘इंडिया’ लगाने की नसीहत देते हैं। राष्ट्रीयता के उसी जज्बे से ओतप्रोत एक महिला ने देश में पहली बार बाकायदा ‘‘नो कास्ट नो रिलीजन’’ प्रमाणपत्र हासिल करके देश की पहली ‘‘भारतीय’’ नागरिक होने का गौरव हासिल किया है।
तमिलनाडु में वेल्लूर की रहने वाली स्नेहा ने तिरूपत्तूर के तहसीलदार टी एस सत्यमूर्ति से यह अनोखा प्रमाणपत्र हासिल किया है और वह यह प्रमाणपत्र हासिल करने वाली देश की पहली नागरिक हैं। अब आइंदा किसी भी सरकारी दस्तावेज में उन्हें अपनी जाति अथवा धर्म बताना अनिवार्य नहीं होगा। यह उन लोगों के लिए जवाब है, जिन्होंने स्नेहा द्वारा अपनी जाति और धर्म की जानकारी न देने को एक बहुत बड़ी कमी करार दिया था और यहां तक कह डाला था कि बिना जात की लड़की से शादी कौन करेगा।
यह सच है स्नेहा ने आज तक किसी को अपनी जाति या धर्म बताया भी नहीं है। उसके माता पिता ने इस अनोखी परंपरा की शुरूआत की। उन्होंने खुद कभी अपनी जाति और धर्म का खुलासा नहीं किया । वह अपने बच्चों के जन्म प्रमाण पत्र से लेकर उनके स्कूल में दाखिले तक का कोई भी फार्म या दस्तावेज भरते समय जाति एवं धर्म वाला कॉलम खाली छोड़ दिया करते थे। 35 वर्षीय स्नेहा ने बाकायदा ऐसा न करने का अधिकार अब सरकारी तौर पर हासिल कर लिया है।
पेशे से वकील स्नेहा ने वर्ष 2010 में इस सर्टिफिकेट के लिए आवेदन किया था। उनका कहना है कि शुरू में अधिकारी उसके आवेदन को टालते रहे, लेकिन वह अपने आवेदन पर डटी रहीं और संबद्ध विभागों में लगातार दस्तक देती रहीं। उनके प्रयासों का नतीजा था कि तिरूपत्तूर की उप जिलाधिकारी बी प्रियंका पंकजम ने सबसे पहले उनके जज्बे को समझा और उन्हें यह प्रमाणपत्र देने की प्रक्रिया शुरू हुई।
स्नेहा का सवाल था कि जाति और धर्म को मानने वाले लोगों को जब उनकी संबद्ध जाति का प्रमाणपत्र दिया जा सकता है तो उन्हें किसी जाति अथवा धर्म से संबद्ध न होने का प्रमाणपत्र क्यों नहीं दिया जा सकता। पेशे से वकील स्नेहा के अनुसार, उनके जन्म प्रमाणपत्र से लेकर स्कूल में दाखिले के फार्म और तमाम दस्तावेजों में जाति और धर्म वाले कॉलम में ‘भारतीय’ लिखा है। उन्हें यह प्रमाणपत्र देने से पहले उन तमाम दस्तावेजों की जांच की गई और उनके दावे को सही पाए जाने के बाद उन्हें ‘‘नो कास्ट नो रिलिजन’’ सर्टिफिकेट देने का फैसला किया गया।
एक अखबार के साथ बातचीत में तिरूपत्तूर की उप जिलाधिकारी बी प्रियंका पंकजम ने बताया कि वह चाहती थीं कि स्नेहा को इस बात का प्रमाणपत्र दिया जाए कि वह किसी जाति और किसी धर्म से संबद्ध नहीं हैं। हमने इस बात की पड़ताल की कि उनके दावे में कितनी सच्चाई है और उनके स्कूल कालेज के सभी दस्तावेजों की जांच की। हमें उनके तमाम प्रमाणपत्रों में जाति और धर्म के कॉलम खाली मिले। इसलिए ऐसी कोई प्रथा न होते हुए भी हमने उन्हें यह प्रमाणपत्र देने का फैसला किया।
स्नेहा का मानना है कि जाति और धर्म कुछ नहीं होता और हर इनसान को इन सब से अलग अपनी एक पहचान बनानी चाहिए। इससे देश से जात पांत की बुराई को समाप्त करने में मदद मिलेगी। उन्होंने कहा कि सरकार और देश की कई अदालतों ने कई मौकों पर यह व्यवस्था दी है कि किसी को भी अपनी जाति या धर्म बताने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता, लेकिन हमारे देश की सामाजिक व्यवस्था में व्यक्ति की जाति और धर्म को ही उसकी पहचान का सबसे बड़ा साधन बना दिया गया है।
स्नेहा के पति पार्थिब राजा तमिल प्रोफेसर हैं। उनका कहना है कि उन्होंने अपनी तीनों बेटियों के स्कूल में दाखिले के समय ‘‘धर्म’’ का कॉलम खाली छोड़ दिया। उन्होंने अपनी बेटियों के नाम भी ऐसे रखे हैं कि उससे उनके किसी धर्म विशेष से संबद्ध होने का पता नहीं चलता। उनकी बेटियों का नाम है अधिराई नसरीन, अधिला इरीन और आरिफा जेसी।
स्नेहा कहती हैं कि स्कूल से लेकर कॉलेज की पढ़ाई और अन्य कई मौकों पर उन्हें फार्म के धर्म और जाति का नाम लिखने के लिए बाध्य किया जाता था और न लिखने पर हलफनामा लाने को कहा जाता था। उन्हें खुशी है कि अब उन्हें सरकारी तौर पर ‘‘भारतीय’’ मान लिया गया है। ढेरों धर्मों, जातियों, समुदायों और वर्गों में बंटे समाज की वह पहली प्रामाणिक ‘‘भारतीय’’ नागरिक हैं।