महिला सशक्तीकरण का प्राचीनतम उदाहरण इस घरा पर याज्ञसेनी द्रोपदी हैं जिन्होंने सबसे पहले प्रतिरोध का स्वर ऊंचा किया था। द्रोपदी वह नारी हैं जिन्होंने नारी के लिए निर्धारित मापदंडों को चुनौती दी और त्याग की आड़ में स्त्री जाति पर किए जाने वाले अत्याचारों का विरोध किया। परिवार की प्रतिष्ठा के नाम पर जब स्त्री को खिलौना समझा जा रहा था, जब उसे अग्नि पर चलवाया जा रहा था, ऐसी स्थिति में अपने पर हुए अत्याचारों का सार्वजनिक तौर पर प्रतिरोध द्रोपदी ने किया, पांडवों विशेषकर युधिष्ठिर से सवाल करना और वह भीषण प्रण….13 वर्षों तक खुले केश और और अपमानित हृदय को लेकर रहना, यह याज्ञसेनी ही कर सकती थीं। बहुत से लोग द्रोपदी को महाभारत के युद्ध का कारण मानते हैं मगर क्या यह युद्ध सिर्फ द्रोपदी के अपमान का था…? यह युद्ध तो वह ज्वालामुखी था जिसे फटना ही था…कल्पना कीजिए कि जब महारानी होते हुए द्रोपदी को ऐसा भीषण उत्पीड़न सहना पड़ा तो अगर इसे न रोका जाता तो संसार की सामान्य स्त्रियों का क्या होता ? इतिहास और समाज ने हमेशा सशक्त स्त्रियों की तुलना शांत, सहनशील स्त्रियों को पूजा है, उनकी पूजा की है जिन्होंने पितृसत्तात्मक समाज के अन्याय के आगे सिर झुकाया…..प्रमाण आप सीता में देखिए…और ऐसे असंख्य प्रमाण हैं मगर द्रोपदी सशक्त महिला थीं जिन्होंने स्त्री को सिर उठाकर जीना सिखाया। द्रोपदी से जुड़े स्थल और अनूठी परम्परा को आज हम जानेंगे क्योंकि उत्तर और दक्षिण, भारत के दोनों ओर याज्ञसेनी की पूजा की जाती है।
एक त्योहार ऐसा भी…जहां अंगारों पर चलकर की जाती है द्रौपदी के मान की रक्षा
भारत अपनी संस्कृति और सभ्यता के लिए जाना जाता है। यहां हर संप्रदाय की अपनी अलग अलग परंपराएं हैं। भारत के कई राज्यों में आज भी ऐसी प्रथाएं प्रचलित हैं, जिन्हें सुन आपको यकीन नहीं होगा। इन्हीं में से एक है तमिलनाडु का थिमिथि रिवाज. तमिलनाडु का थिमिथि रिवाज भारत की सबसे अजीब रीति-रिवाजों और परंपराओं में से एक है। इस रिवाज के अंतर्गत कुछ लोग अंगारों पर चलते हैं. आइए जानते हैं इस रिवाज के बारे में. –
द्रौपदी के मान की रक्षा का रिवाज- क्या कभी आपने असल में ऐसा देखा है? नहीं तो चलिए हम आपको बताते हैं ऐसी ही एक जगह के बारे में जहां आज भी ऐसा किया जाता है। तमिलनाडु के थिमिथि रिवाज के दौरान लोग अंगारों पर चलते हैं। यहां हर साल अक्टूबर से नवंबर के बीच लगातार पांच दिन इस त्योहार को मनाया जाता है। कहते हैं पांडवों की पत्नी द्रौपदी के मान की रक्षा के लिए ये त्योहार मनाया जाता है।
अंगारों पर चलने की रस्म- इस त्योहार के दौरान अंगारों पर चलने की परंपरा है. पांच के त्योहार में आग पर चलने वाली रस्म दीपावली के एक हफ्ते पहले की जाती है। इसे ऐपासी महीना कहते हैं।
कैसे मनाया जाता है थिमिथि रिवाज- ये त्योहार सिर्फ तमिलनाडु में ही नहीं बल्कि उन सभी जगहों पर मनाया जाता है जहां तमिलनाडु के लोग बहुतायत में हैं। वहीं इसे श्रीलंका, फीजी, सिंगापुर, मलेशिया, मॉरीशस जैसे देशों में भी मनाया जाता है। इस त्योहार को मनाने की तैयारी महीनों पहले शुरू कर दी जाती है। त्योहार को लेकर कुछ बड़े नियमों का पालन करना होता है, जैसे धर्म का पालन करना, पूजा-पाठ करना, मांस-मछली खाने पर निषेध आदि. त्योहार के दौरान नाटक के जरिए पांडवों और कौरवों के युद्ध के कई दृश्यों को दर्शाया जाता है। श्री मरिअम्मन मंदिर पर दिवाली के एक हफ्ते पहले एक झंडा फहराया जाता है, जो अर्जुन और हनुमान के आगमन को दर्शाता है।
अंगारों के लिए इस्तेमाल होती हैं चंदन की लकड़ी-थिमिथि त्योहार के दौरान सालों से अंगारों पर चलने की प्रथा चली आ रही है। इस दौरान अग्नि पर चलने के भी कई तरह के रिवाज होते हैं। अंगारे पर चलने के लिए चंदन की लकड़ियों का इस्तेमाल किया जाता है। इसके साथ ही अग्नि पर चलने वालों को पहले ही तैयार कर लिया जाता है. अंगारों पर चलने के दौरान व्यक्ति के हाथ पर हल्दी और नीम की पत्तियों को बांधा जाता है।
सबसे पहले अंगारों पर चलता है पुजारी – थिमिथि त्योहार को लेकर कई तरह के नियम होते हैं- जैसे इसकी शुरुआत मुख्य पुजारी से की जाती है। अंगारों पर चलते के दौरान पुजारी के सिर पर एक कलश रखा जाता है। पुजारी के बाद अन्य लोगों की बारी आती है और वो एक एक करके अंगारों पर चलते हैं। कुछ लोग इसे दैवीय शक्ति का प्रदर्शन मानते हैं, जिसके चलते वो ऐसा करते हैं।
द्रौपदी और अर्जुन के विवाह की परंपरा- इस त्योहार के दौरान एक और रिवाज की परंपरा है और वो है द्रौपदी और अर्जुन के विवाह की परंपरा। इसे मनाने का तरीका भी बिल्कुल अलग होता है। इस दौरान हिजड़ों की बलि (इसमें मानव बलि नहीं होती) दी जाती है। कहते हैं कि महाभारत युद्ध से पहले पांडवों की जीत को सुनिश्चि करने के लिए ऐसा किया गया था, जिसके चलते इसे आज भी किया जाता है।
चांदी के रथ के साथ निकलती है यात्रा- बताते हैं कि इस त्योहार के दो दिन पहले एक यात्रा निकाली जाती है। ये यात्रा चांदी के रथ के साथ निकाली जाती है। ये यात्रा पांडवों और कौरवों के बीच चले 18 दिन के युद्ध दर्शाती है।
क्यो मनाया जाता है ये त्योहार- तमिलनाडु में मां मरिअम्मन की पूजा की जाती है। माना जाता है कि द्रौपदी मां मरिअम्मन का ही अवतार थीं। ऐसे में द्रौपदी के मान की रक्षा के लिए लोग इस त्योहार को मनाते हैं।
द्रोपदी कूप : जहां दुःशासन के रक्त से पांचाली ने केश धोकर पूरी की प्रतिज्ञा
हमारी परम्परा, हमारा इतिहास बार – बार बताता रहा है कि उत्पीड़क का अंत भीषण होता है…महाभारत इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि उत्पीड़न करने वाले का परिणाम सर्वनाश होता है और स्त्री पर अत्याचार करने वालों का अंत भयावह होता है। युग बीत जाते हैं, लोग चले जाते हैं मगर इतिहास साक्षी देता रहता है, ऐसा प्रमाण बै कुरूक्षेत्र की भूमि। कहा जाता है कि द्रोपदी के श्राप के कारण आज तक यह नगरी विकास का चेहरा देख नहीं सकी। यहाँ महाभारतकालीन अनेक प्रमाण भरे पड़े हैं । ज्योतिसर और ब्रह्मसरोवर के आसपास कई प्राचीन मंदिर हैं। इन्हीं में से एक है द्रौपदी कूप। यह प्राचीन मंदिर द्रौपदी की कहानी आज भी बताता है. इसी मंदिर के अंदर एक कुआं है, जिसे द्रौपदी कूप कहते हैं। बताया जाता है कि द्रौपदी रोजाना इसी कुएं के जल से स्नान करती थी. महाभारत युद्ध में भीम द्वारा दुशासन को मारने के बाद द्रौपदी ने अपने खुले केश दुशासन के खून से रंगे थे और प्रतिज्ञा पूरी की थी. इसके बाद द्रौपदी ने अपने खुले केशों को इसी कूप में आकर धोया था. यही कारण है कि यह स्थान वर्तमान में द्रौपदी कूप के नाम से जाना जाता है।
प्राचीन कुआं भी है – कुरुक्षेत्र में महाभारत काल का प्राचीन कुआं आज भी देखा जा सकता है. माना जाता है कि इसी स्थान पर महाभारत युद्ध में द्रोणाचार्य ने चक्रव्यूह की रचना की थी और कर्ण ने यहीं पर अभिमन्यु को धोखे से मारा था, जिससे वह वीरगति को प्राप्त हुआ था। इसके बाद भीम ने इस कुएं का निर्माण किया, जहां द्रौपदी ने स्नान कर अभिमन्यु की मृत्यु का बदला लेने की शपथ अर्जुन को दिलाई थी।
बर्बरीक का मंदिर – यहां महाभारत युद्ध में निर्णायक की भूमिका निभाने को आतुर रहे बर्बरीक का मंदिर भी है। बताया जाता है कि यह वही स्थान है, जो महाभारत काल से पहले का है. यहां पर भीम पुत्र घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक की प्राचीन मूर्ति स्थापित है, जहां लोग पूजा करते हैं। मान्यता के अनुसार, बर्बरीक के पास ऐसी धनुर्विद्या थी, जिससे वह किसी भी सेना को अकेले ही जीत सकते थे. तब श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को वचनों में बांध कर उसका सिर मांग लिया था, लेकिन बर्बरीक ने कहा कि वह तो महाभारत का युद्ध देखना चाहते थे। कथा के अनुसार, तब श्रीकृष्ण ने कहा कि तुम महाभारत का पूरा युद्ध जरूर देख सकोगे. तुमने मुझे सम्मान स्वरूप अपना शीश भेंट किया है, इसलिए कुरुक्षेत्र की पावन धरा पर कलयुग में तुम्हारी भी पूजा होगी। यही कारण है कि आज भी श्रद्धालु जब द्रौपदी कूप को देखने आते हैं तो बर्बरीक की पूजा जरूर करते हैं। मंदिर के पुजारी का कहना है कि बर्बरीक को ही आज खाटू श्याम के नाम से जाना जाता है।