समानता और अधिकार का सूर्य ही न्याय का प्रभात लाकर गढ़ सकता है स्वस्थ समाज

नया साल आ चुका है। बीते साल में बहुत से खट्टे – मीठे अनुभव हुए और कुछ मायनों में इतिहास भी बना। भारत के लिए यह वर्ष ऐतिहासिक रहा और जब महिलाओं की बात आती है तो इसने उपलब्धि दी, बहुप्रतीक्षित महिला आरक्षण बिल कानून बन चुका है। वहीं महिलाओं के साथ जब अपराध की बात आती है तो युग आज भी बर्बर है। श्रद्धा कांड ने झकझोरा और जब लिख रही हूँ तो महिला पहलवानों के उत्पीड़न और उनकी निराशा के बीच मन फंसा पड़ा है। अगर समाज अन्याय का साथ देता रहा और हर मोड़ पर बृजभूषण ही लड़कियों को मिलते रहे तो उनकी उपलब्धियों को रास्ता कैसे मिलेगा? हस्तिनापुर की द्यूत सभा में दुर्योधन मद में जंघा पीट रहा है और आज भी उसे रोकने वाला कोई नहीं, लड़कियों का मनोबल गिराने के लिए सब के सब खड़े हैं। घर – परिवार, समाज कोई भी स्त्री के सच का साथ नहीं देता और वह भी उस देश में जो महिषासुरमर्दिनी का देश है। स्त्री को देवी मत बनाइए मगर उसके हिस्से का सुख तो उसे मिलना ही चाहिए। आखिर माता – पिता कैसे अपनी बेटियों को अपने बेटों के रहमो करम पर छोड़ देते हैं। आखिर लड़कियां कब समझेंगी कि सुख का रास्ता आत्मसम्मान और अपने अधिकारों की रक्षा से होकर गुजरता है। भावनात्मक जाल में बहनें ही सबसे अधिक फंसी रहती हैं और उनकी भावुकता का लाभ उठाकर उनकी खुशियों पर परिवार कब्जा कर लेता है। सम्पत्ति के अधिकार को अदालत ने मान्यता दे दी मगर किसी भी सरकार में इतनी शक्ति नहीं है कि वह उसे लागू करे। तमाम सरकारी योजनाएं महिलाओं को लॉलीपॉप थमाने जैसी हैं। कभी मुफ्त बस का टिकट तो कभी बैंक खाते में 5-6 हजार रुपये भेज देना, कभी मुफ्त सिलिंडर दे देना और वह भी चुनाव आने पर…मगर स्त्री की पहचान, उसकी अस्मिता को मजबूत करने के लिए, परिवारों में उसकी स्थिति को सुदृढ़ बनाने के लिए उसकी सम्पत्ति प्राप्त करने के अधिकार को अधिकार मानने के लिए कोई भी कुछ नहीं कर रहा है। असमानता तो स्त्रियां बचपन से ही झेलती हैं और अधिकतर मामलों में अपनी ही मां के अन्याय का शिकार बनती हैं। माताओं की शह पर ही भाई बहनों की पढ़ाई छुड़वाने , नौकरी छीनने से लेकर उनके जीवन के हर फैसले में अजगर की भांति हावी होने का प्रयास करते हैं। अगर किसी स्त्री ने विवाह नहीं किया तो मान लिया जाता है कि उसे भाइयों पर निर्भर रहकर उनकी जूठन पर निर्भर रहना होगा, उनका टूटा – फूटा सामान रखना होगा और घरेलू सहायिका से बदतर जीवन गुजारना होगा। हम ननदों और बुआ पर मीम्स बनाते हैं, कहानियों में वह खलनायिका है मगर संयुक्त परिवार में जब आधे – अधूरे संबंधों को ही आपने तमाम अधिकार दे रखे हैं तो आप कैसे उम्मीद करते हैं कि बाकी रिश्ते जीवित रहेंगे? अगर भारतीय संयुक्त परिवार टूट रहे हैं और लोग एकल रहना पसन्द कर रहे हैं तो इसका दायित्व उन पर नहीं, बल्कि उस समाज पर है जो सच के साथ और पीड़ित के पास खड़ा नहीं होता। परिवारों में जो भी शक्तिशाली रहता है, उसने अपने लालच की पराकाष्ठा दिखाते हुए छोटे – भाई बहनों के तमाम अधिकारों पर कब्जा जमा रखा है और  आप उसे मान्यता भी देते हैं। आपको पीड़ित की चिन्ता नहीं है, उसके दुःखों से आपको कोई मतलब नहीं है, आपको चिन्ता है कि खोखले सम्मान की जो चादर आपने ओढ़ रखी है, उस पर आंच न आए…तो यह चादर तो एक दिन फटनी ही है। ऐसी स्थिति में परिवार का टूटना तय है। जब तक समाज सच और न्याय की जगह शक्ति के  नाम पर अहंकार को प्रश्रय देगा, तब तक वह आगे नहीं बढ़ सकता। समानता और अधिकार का सूर्य ही न्याय का प्रभात लाकर एक सुखी समाज गढ़ने की क्षमता रखता है।
बहरहाल, व्यस्तताओं के कारण दिसम्बर अंक निकाला नहीं जा सका। नववर्ष के इस अंक में हम बहुत नहीं तो तीन आमुख कथाओं के साथ इसे समाहित करने का प्रयास कर रहे हैं। यह चुनौतियों सुरंग से निकलकर नये न्याय के आलोक में नववर्ष का प्रभात लाने की यात्रा है। सुरंग से निकला है न्याय का नया सवेरा। यह मिशन उत्तरकाशी से लेकर नयी न्यायिक संहिता और नववर्ष की यात्रा है। हम विश्वास करना चाहते हैं कि नारी शक्ति को उसके हिस्से के सुख का सूरज मिले और अधर्मियों को दंड मिले। घोर निराशा के बीच भी हमें महिला पहलवानों के साथ न्याय की प्रतीक्षा है, हमें प्रतीक्षा है कि बहनों को उनकी सम्पत्ति और भावनात्मक दृढ़ता का अधिकार मिले। नववर्ष की हार्दिक मंगलकामनाओं के साथ आप सभी को शुभ नववर्ष ।

शुभजिता

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