सबसे ज्यादा पापा की याद आती है

  • रेखा श्रीवास्तव

फादर्स डे यानी पापा दिवस की चर्चा आते ही आँखों में पापा की छवि बन गयी है। उनकी यादें आने लगी है। 14 साल पहले 3 सितंबर 2002 को अचानक पापा को मैंने खो दिया। पापा को खोना मेरे जीवन का पहला झटका था, अर्थात् उसके पहले मैंने मौत को इतने पास से महसूस नहीं किया था। सबसे बड़ी बात है कि वह बीमार भी नहीं थे, अचानक उन्हें ब्रेन हैमरेज का अटैक हुआ। जिस दिन उन्हें अटैक आया उस दिन मैं महानगर कार्यालय से हावड़ा वाले घर गई थी।  जैसे ही घर पहुँची कि बड़े भैया का फोन आया कि पापा की तबियत बहुत खराब हो गई है, जल्दी से तुम लोग चली जाओ। और जब तक वहाँ पहुँचे वह बेहोश हो चुके थे और उन्हें अस्पताल ले जाने की तैयारी चल रही थी। अस्पताल में दो दिन रहने के बाद वह हमलोगों को छोड़ कर इस दुनिया से चले गये। मुझे उनसे अंतिम बार बात करने का मौका भी नहीं मिला। इसलिए मुझे काफी तकलीफ पहुँची और उनके जाने के बाद मैं बहुत बीमार पड़ गई। मैं अपने पापा की ज्यादा खास नहीं थी। माँ की दुलारी थी। फिर भी पापा और मेरा रिश्ता बहुत प्यारा था।  बचपन से ही हमलोगों को पापा काफी घुमाने ले जाते थे। मामा के यहाँ ले जाते थे। वह न जाने कैसे मेरी जरूरत बिना बोले ही, समझ लेते थे। मुझे बहुत दुख है कि उन्होंने न मेरी शादी देखी और न ही बच्चे तक उनसे मिल पाये और उनका आशीर्वाद ले पाये। मुझे पत्रकारिता से जोड़ने वाले भी मेरे पापा है। पापा ही महानगर न्यूजपेपर ले आये थे, जिसमें डीटीपी ऑपरेटर के लिए आवेदन निकला था और मैं उनके साथ ही महानगर कार्यालय में गई थी और वहाँ ज्वाइन की थी। उनका मुस्कुराता चेहरा आज भी आँखों के सामने आ जाता है। सबसे बड़ी बात है कि मैं उन्हें कभी गु्स्सा करते नहीं देखा, उत्तेजित होते नहीं देखा।  सबसे प्यार से बातें करते थे। आर्थिक समस्या होने के बावजूद वह कभी खींझते नहीं थे। आज इतने वर्षों के बाद भी जब मैं बहुत दुखी या परेशान होती हूँ, तो सबसे ज्यादा पापा को ही याद करती हूँ और न जाने कहाँ से  मेरे अंदर अचानक ताकत आ जाती है। पापा की एक बात मुझे हमेशा याद रहती है कि वह कहते थे, कि जब तक जियो, बिजी रहो। काम करते रहो । एक पल भी जायज न करो। और मैं कोशिश करती हूँ कि उनकी बातों पर अमल कर सकूँ।

(यह संस्मरण है और लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं)

 

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