रथयात्रा विशेष : धरती का बैकुण्ठ है ‘जगन्नाथ पुरी’

ओडिशा के पुरी में भगवान जगन्नाथ का पवित्र धाम है, जिसे पुराणों में धरती का बैकुण्ठ कहा गया है। यह धाम हिंदू धर्म के चार धाम में से एक है। इसे नीलांचल धाम भी कहा जाता है। यहां विराजमान भगवान जगन्नाथ, भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ अपने भक्तों को दर्शन देते हैं। मंदिर 1200 साल पुराना है।
आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को जगन्नाथ पुरी की रथ यात्रा का शुभारंभ होता है। कहते है भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा को जिसने हाथ लगा दिया, उसे जीवन- मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाती है।

ब्रह्म और स्कंद पुराण के अनुसार, पुरी में भगवान विष्णु ने पुरुषोत्तम नीलमाधव के रूप में अवतार लिया था। वह यहां सबर जनजाति के परम पूज्य देवता बन गए। सबर जनजाति के देवता होने की वजह से यहां भगवान जगन्नाथ का रूप कबीलाई देवताओं की तरह है।

जगन्नाथ मंदिर की महिमा देश में ही नहीं विश्र्व में भी प्रसिद्ध हैं। भगवान जगन्नाथ को साल में एक बार उनके गर्भ गृह से निकालकर यात्रा कराई जाती है। यात्रा के पीछे यह मान्यता है कि भगवान अपने गर्भ गृह से निकलकर प्रजा के सुख-दुख को खुद देखते हैं।

द्वापर में श्रीकृष्ण की लीला के बाद कलियुग में मुख्य देवता के रूप में श्री जगन्नाथ यानी श्री हरि विष्णु ही मान्य है। मान्यता है कि महाभारत के बाद कौरवों की गांधरी ने श्रीकृष्ण को श्राप दिया था कि कौरव वंश की तरह यदुवंश का नाश होगा।

श्राप के चलते ही यदुवंश के लोग भी लड़-लड़ कर नष्ट हो गए। श्रीकृष्ण अकेले बच गए और श्रापवश ही बहेलिए का तीर लगने पर उनकी मृत्यु हुई। ‘पुनरपि जनमं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनं” शास्त्रों में वर्णन है कि आषाढ़ माह में जरा के आघात से श्रीकृष्ण ने देह त्यागी थी।

श्रीकृष्ण के इहलीला संवरण के बाद सखा अर्जुन ने उनकी अंत्येष्टि क्रिया के लिए शरीर में अग्नि संयोग किया पर श्रीकृष्ण पूरी तरह भस्मीभूत नहीं हुए। आकाशवाणी के निर्देशानुसार अदग्ध नाभिमंडल को अर्जुन ने सागर में प्रवाहित कर दिया।

 

यह अदग्ध नाभिमंडल पश्चिमी सागर से तैरते-तैरते पूर्वी उपकूल में लगा। पुरी के तत्कालीन राजा को स्वप्नादेश हुआ कि इस पवित्र दारु को सम्मान सहित स्वीकार कर विष्णु की मूर्ति की पूजा-अर्चना करो। महाराज ने तैर कर आएं दारु से विग्रहों का निर्माण किया और मंदिर में जगन्नाथ के रुप में स्थापित किया, जहां आज भव्य मंदिर है।

जगन्नाथ मंदिर की खासियत यह है कि शिखर पर स्थित झंडा हमेशा हवा की विपरीत दिशा में लहराता है। इसी तरह मंदिर के शिखर पर एक सुदर्शन चक्र भी है। इस चक्र को किसी भी दिशा से खड़े होकर देखने पर ऐसा लगता है कि चक्र का मुंह आपकी तरफ है।

मंदिर की रसोई में प्रसाद पकाने के लिए 7 बर्तन एक-दूसरे के ऊपर रखे जाते हैं। यह प्रसाद मिट्टी के बर्तनों में लकड़ी पर ही पकाया जाता है। इस दौरान सबसे ऊपर रखे बर्तन का पकवान पहले पकता है फिर नीचे की तरफ से एक के बाद एक प्रसाद पकता जाता है।

मंदिर के द्वार से पहला कदम अंदर रखने पर ही आप समुद्र की लहरों से आने वाली आवाज को नहीं सुन सकते है। आश्चर्य में डाल देने वाली बात यह है कि जैसे ही आप मंदिर से एक कदम बाहर रखेंगे, वैसे ही समुद्र की आवाज सुनाई देने लगती है।

यह अनुभव शाम के समय और भी अलौकिक लगता है। हमने ज्यादातर मंदिरों के शिखर पर पक्षी बैठे और उड़ते देखे हैं। जगन्नाथ मंदिर की यह बात आपको चौंका देगी कि इसके ऊपर से कोई पक्षी नहीं गुजरता। यहां तक कि हवाई जहाज भी मंदिर के ऊपर से नहीं निकलता।

मंदिर में हर दिन बनने वाला प्रसाद भक्तों के लिए कभी कम नहीं पड़ता साथ ही मंदिर के पट बंद होते ही प्रसाद भी खत्म हो जाता है। दिन के किसी भी समय जगन्नाथ मंदिर के मुख्य शिखर की परछाई नहीं बनती। एक पुजारी मंदिर के 45 मंजिला शिखर पर स्थित झंडे को रोज बदलता है।

 

ऐसी मान्यता है कि अगर एक दिन भी झंडा नहीं बदला गया तो मंदिर 18 वर्षों के लिए बंद हो जाएगा। आमतौर पर दिन में चलने वाली हवा समुद्र से धरती की तरफ चलती और शाम को धरती से समुद्र की तरफ। चकित कर देने वाली बात यह है कि पुरी में यह प्रक्रिया उल्टी है।

मंदिर में योगेश्वर श्रीकृष्ण जगन्नाथ के रूप में विराजते हैं। साथ ही यहां बलभद्र एवं सुभद्रा भी हैं। श्रीकृष्ण साक्षात भगवान विष्णु के अवतार हैं। अपने भक्तों को सन्देश देते हुए उन्होंने स्वयं कहा है-जहां सभी लोग मेरे नाम से प्रेरित हो एकत्रित होते हैं, मैं वहां पर विद्यमान होता हूं। यह भारत के ओडिशा राज्य के तटवर्ती शहर पुरी में स्थित है। जगन्नाथ शब्द का अर्थ जगत के स्वामी होता है। इनकी नगरी ही जगन्नाथपुरी या पुरी कहलाती है। पुरी में कुल 168 मठ है। यहां भारतीय संस्कृति का मूलमंत्र सिखाया जाता है। ये हजारों सालों से विश्व मैत्री के प्रतीक है, जो गुरुग्रंथ साहिब में वर्णित है। आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष के द्वितीया को यहां भव्य रथयात्रा मेले का आयोजन होता है। मेले में भारत ही नहीं बल्कि सात समुंदर पार से भी बड़ी संख्या में श्रद्धालु जुटते है। इस दिन रथ पर आरुढ़ होकर भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा और बलभद्र के साथ गुंडिचा मंदिर जाते है। वहां वे दस दिन तक रहते है। इन दस दिनों में उनका रूप दशावतार के भिन्न्-भिन्न् रूप प्रतिदिन बदलकर आते है।

 

दस दिन वहां रहने के पश्चात 11वें दिन एकादशी को पुन: रथ पर आरुढ़ होकर मंदिर वापस आते है। इन दस दिनों में पुरी दुधिया रोशनी में नहाएं दुल्हन की तरह सजी होती है। चारों तरफ शंख, घंटे-घड़ियाल व तरह-तरह के वाद्य यंत्रों के बीच पूजन-अर्चन होता रहता है। दशावतार दर्शन के लिए लोग पहुंचकर इस महापर्व को मनाते है।

भगवान जगन्नाथ जी की मूर्ति को उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की छोटी मूर्तियों को रथ में ले जाया जाता है और धूम-धाम से इस रथ यात्रा का आरंभ होता है। सागर तट पर बसे पूरी शहर में आयोजित होने वाली यह रथयात्रा उत्सव पूरे भारत में विख्यात है।

उत्सव के समय आस्था का जो विराट वैभव देखने को मिलता है, वह बहुत दुर्लभ है। भगवान जगन्नाथ मंदिर से तीनों देवताओं के सजाये गये रथ खिंचते हुए दो किमी की दूरी पर स्थित गुंडिचा मंदिर तक ले जाते हैं और नवें दिन इन्हें वापस लाया जाता है।

इस अवसर पर सुभद्रा, बलराम और भगवान श्रीकृष्ण का पूजन नौ दिनों तक किया जाता है। इन नौ दिनों में भगवान जगन्नाथ का गुणगान किया जाता है। भगवान कृष्ण के अवतार जगन्नाथ की रथयात्रा का पुण्य सौ यज्ञों के बराबर माना जाता है।

इस तीर्थ स्थान की यात्रा से कैलाश यात्रा का पुण्य मिलता है। मान्यता यह भी है कि कृष्ण के भक्तिपूर्ण दर्शन से मोक्ष का विधान करता है। मूर्तियों की स्थापना के बाद विष्णु ने राजा को वरदान दिया कि अश्वमेघ के समाप्त होने पर जहां इन्द्रद्युम्न ने स्नान किया है वह बांध उसी के नाम से विख्यात होगा। जो व्यक्ति उसमें स्नान करेगा वह इंद्रलोक को जायेगा और जो उस सेतु के तट पर पिण्डदान करेगा उसके 21 पीढ़ियों तक के पूर्वज मुक्त हो जायेंगे।

भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा के लिए रथों का निर्माण लकड़ियों से होता है। इसमें कोई भी कील या काँटा, किसी भी धातु को नहीं लगाया जाता। रथों का निर्माण अक्षय तृतीया से प्रारम्भ होता है तथा लकड़ियां चुनने का कार्य इसके पूर्व बसन्त पंचमी से शुरू हो जाता है।

पुराने रथों की लकड़ियां भक्तजन श्रद्धापूर्वक खरीद लेते हैं और अपने-अपने घरों की खिड़कियां, दरवाजे आदि बनवाने में इनका उपयोग करते हैं। परंपरा है कि हर 14-15 सालों में भगवान की मूर्तियों को बदलकल नई मूर्तियां स्थापित की जाती हैं।

यह मूर्तियां जिन पेड़ों की बनी होती हैं वह कोई आम पेड़ नहीं होता। उन्हीं पेड़ों को इन मूर्तियों के लिए चयन किया जाता है जिसमे भगवान बलभद्र, देवी सुभद्रा और सुदर्शन के चिन्ह बने होते हैं। भगवान जगन्नाथ व अन्य देव प्रतिमाओं का निर्माण नीम की लकड़ी से ही किया जाता है। भगवान जगन्नाथ का रंग सांवला होता है। इसलिए नीम का वृक्ष उसी रंग का होना चाहिए। भगवान जगन्नाथ के भाई-बहन का रंग गोरा है। इसलिए उनकी मूर्तियों के लिए हल्के रंग का नीम का वृक्ष ढूंढा जाता है।

भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के लिए पेड़ चुनने के लिए कुछ खास चीजों पर भी ध्यान दिया जाता है जैसे-पेड़ में चार प्रमुख शाखाएं होनी चाहिए। पेड़ के नजदीक जलाशय (तालाब), श्मशान और चीटियों की बांबी होना जरूरी है। पेड़ की जड़ में सांप का बिल भी होना चाहिए। वह किसी तिराहे के पास हो या फिर तीन पहाड़ों से घिरा हुआ हो। पेड़ के पास वरूण, सहौदा और बेल का वृक्ष होना चाहिए।

मन्दिर की रसोई में एक विशेष कक्ष रखा जाता है, जहां पर महाप्रसाद तैयार किया जाता है। इस महाप्रसाद में अरहर की दाल, चावल, साग, दही व खीर जैसे व्यंजन होते हैं। इसका एक भाग प्रभु का समर्पित करने के लिए रखा जाता है तथा इसे कदली पत्रों पर रखकर भक्त गणों को बहुत कम दाम में बेच दिया जाता है।

जगन्नाथ मन्दिर को प्रेम से संसार का सबसे बड़ा होटल कहा जाता है। मन्दिर की रसोई में प्रतिदिन 72 क्विंटल चावल पकाने का स्थान है। इतने चावल एक लाख लोगों के लिए पर्याप्त हैं। 400 रसोइए इस कार्य के लिए रखे जाते हैं। पुरी के जगन्नाथ मंदिर की एक विशेषता यह है कि मंदिर के बाहर स्थित रसोई में 25000 भक्त प्रसाद ग्रहण करते हैं। भगवान को नित्य पकाए हुए भोजन का भोग लगाया जाता है। परंतु रथयात्रा के दिन एक लाख चौदह हजार लोग रसोई कार्यक्रम में तथा अन्य व्यवस्था में लगे होते हैं। जबकि 6000 पुजारी पूजा-विधि में कार्यरत होते हैं।

ऐसी मान्यता है कि इस रसोई में जो भी भोग बनाया जाता है, उसका निर्माण माता लक्ष्मी की देखरेख में ही होता है। मंदिर प्रांगण में ही विमला देवी शक्ति पीठ है। यह शक्ति पीठ बहुत प्राचीन मानी जाती है। शक्ति स्वरूपिणी मां विमला देवी भगवान श्री जगन्नाथ जी के लिए बनाए गए नैवेद्य को पहले चखती हैं फिर वह भोग के लिए चढ़ाया जाता है।
ऐसे ही इस मंदिर का सबसे बड़ा आश्चर्य है 56 भोग (पकवान)। जिसके बारे में कहा जाता है कि 56 अलग अलग तरह के भोग एक दुसरे के ऊपर रखके, जहां देवी सुभद्रा निवास करती हैं उस कमरे मे बंद कर दिया जाता है तो खाना अपने आप पक जाता है।
इसमें सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि सबसे ऊपर का खाना सबसे पहले पकता है। कहा जाता है कि देवी सुभद्रा इसे पका देती हैं। जिसे प्रसाद के रूप में लोगों में बांटा जाता है।

(साभार – नयी दुनिया केे लिए सुरेश गाँधी का आलेख)

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