रंगमंच पर दोहरा संघर्ष कर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं स्त्रियाँ

रंगमंच की दुनिया में कुछ लोग होते हैं जो नाटक करते हैं और कुछ होते हैं जो नाटकों को जीते हैं। लिटिल थेस्पियन की सह संस्थापक और निदेशक उमा झुनझुनवाला और अजहर आलम की जोड़ी ऐसी ही जोड़ी है। लिटिल थेस्पियन 23 साल पूरे कर चुकी है…देश भर में प्रशंसित और पुरस्कृत हो चुकी है…और हिन्दी का पहले थियेटर फेस्टिवल करने का श्रेय भी संस्था को जाता है। हाल ही में नीलांबर के लिटरेरिया में लिटिल थेस्पियन को रवि दवे स्मृति सम्मान प्रदान किया गया। नाटकों को उपेक्षित करते आ रहे हिन्दी प्रदेश में नाट्यकर्मी उमा झुनझुनवाला ने नाटकों न सिर्फ प्रतिष्ठित किया बल्कि नयी पीढ़ी और खासकर लड़कियों को इस विधा से जुड़ने का आत्मविश्वास दिया। आगामी 3 नवम्बर से लिटिल थेस्पियन जश्न ए रंग 2017 का वृहद आयोजन करने जा रहा है…। नाटकों का उत्सव जब सजने वाला है तो नाटकों पर बात होनी ही है…तो अपराजिता से लिटिल थेस्पियन की सह संस्थापक व निदेशक उमा झुनझुनवाला ने साझा की ढेर सारी बातें नाटकों, उसके इतिहास और नाटकों में स्त्री पर। पेश हैं कुछ अंश

“किसी भी क्षेत्र में स्त्रियों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है” – कह देने मात्र से ही बात पूरी नहीं हो जाती हैl अभी चारों तरफ इसी तरह की बातें लिखी और कही जा रही हैं कि २१वी सदी महिलाओं के बहुआयामी प्रतिभाओं की सदी है, जागरूकता और दावेदारी की सदी है। समाज, राजनीति और कला सहित जीवन का कोई भी क्षेत्र महिलाओं की इस दावेदारी से अछूता नहीं है।

व्यक्तिगत तौर पर मैं लिंग-भेद के दृष्टिकोण से किसी भी विषय या चर्चा की पक्षधर नहीं हूँ…लेकिन उसके बावजूद एक स्त्री होने के नाते किसी भी सृजन की प्रसव पीड़ा से ठीक उसी तरह अवगत हूँ जैसे एक माँ होती है। उस पीड़ा को पुरुष समाज अलग अलग धरातल पर काव्यात्मक ढंग से महसूस कर उसे वर्णित तो कर सकता है किन्तु हर औरत के लिए उस पीड़ा की अनुभूति सामान्य तौर एक जैसी ही होती है – उदहारण स्वरुप किसी औरत या लड़की का नाटक करने जाना ही उसके पिता/पति के परिवारवालों के लिए स्वीकार्य नहीं हो पाता है कि मंच पर जाकर लोगो के सामने अभिनय करना, नाचना गाना वगैरह वगैरह अधर्म होता है, किसी तरह जाने की स्वीकृति मिल जाए तो और दूसरे पचासों सवाल सुरसा राक्षसी की तरह मुंह बाये खड़ी रहती हैं – मसलन- डायरेक्टर कौन है, रोल क्या है, समय पर घर आ जाना, आज देर क्यों हो गयी, फलाने एक्टर के साथ किस तरह का दृश्य है, रोज़ रोज़ जाना ज़रूरी है क्या ?

और अगर शादीशुदा है तो – घर की सारी जिम्मेदारियां तय वक़्त पर ही पूरी होनी चाहिए, रात को देर से आओगी तो खाना कैसे बनेगा, बच्चों की पढाई का कौन ध्यान रखेगा, फलाने मर्द के साथ क्यों आई, दृश्य में दूरी बना के रखो, फलाने के साथ तुम्हारा क्या सम्बन्ध है, आदि आदिl उफ्फ्फ ये सारे सवाल सिर्फ स्त्रियों के लिए ही होते हैं इसलिए इनका संघर्ष दोहरा होता है – इन सारे सवालों की जवाबदेही के साथ साथ रंगमंच पर अपने हस्ताक्षर को दर्ज कराना मामूली बात नहीं हो सकती l ऐसा नहीं है कि ऐसी परिस्थिति का सामना हर स्त्री शब्द को करना पड़ता है; लेकिन अपनी मर्ज़ी के काम में रजामंदी के मोहर की आवश्यकता मुझे लगता है हर किसी को पड़ ही जाती है l खैर समय के साथ ये सवाल उठने लगा था कि वर्तमान परिस्थितियों में परिवर्तन लाये बिना समाज का विकास संभव नहीं और इसके लिए औरतों को भी समाज की संपूर्ण कलात्मक गतिविधियों में हिस्सा लेने की पूरी स्वाधीनता होनी चाहिए l

अपितु, परिवर्तित सामाजिक ढाँचे की विषमताओं और जटिलताओं के चलते कला की अन्य विधाओं की अपेक्षा रंगमंच में स्वयं को घोषित करना निस्संदेह असाधारण कार्य है परन्तु असंभव कतई नहीं और इसलिए ये सूची भी मामूली नहीं जहाँ महिला रंगकर्मियों की एक लम्बी कतार है –जोहरा सहगल, कुदसिया जैदी, शांता गाँधी,  रशीद जहाँ, शीला भाटिया, दीना पाठक, अंजला महर्षि, अनामिका हक्सर, प्रतिभा अग्रवाल, लक्ष्मी चन्द्रा, कपिला मलिक वात्स्यायन, क्षमा आहूजा, नीलम मानसिंह, रानी बलबीर कौर, बी. जयश्री, अरुंधती राजे, एस. मालती, सौम्य वर्मा, नादिरा बब्बर, जे. शैलजा, अमाल अल्लाना, अनुराधा कपूर, गिरीश रस्तोगी, कीर्ति जैन, तृप्ति मित्रा, उषा गांगुली, त्रिपुरारी शर्मा, मंजू जोशी, कुसुम हैदर, विजया मेहता, माया कृष्ण राव, शबनम हाशमी, अरुंधती नाग, कविता नागपाल, रेखा जैन, सांवली मित्र, अमला राय, उषा बनर्जी, उमा सहाय, नंदिता दास, उत्तरा बावकार, चेतना जालान, रेखा जैन, भागीरथी, विभारानी (और आप लोग चाहें तो मेरा भी नाम दर्ज कर सकते हैं इसमें उमा झुनझुनवाला)

१९वीं सदी के अंतिम दशकों में पारसी थियेटर का बोलबाला अपने चरम पर था l मूनलाइट, मिनर्वा आदि थियटरों में व्यावसायिक दृष्टिकोण से एक के बाद एक सफल नाटकों की प्रस्तुतियाँ होती रहीं l इनका मूल उद्देश्य दर्शकों का सतही तौर पर मनोरंजन करके पैसा कमाना था l १९३०-३४ तक इसका असर बड़ा व्यापक रहा l लेकिन ये काल आन्दोलनों और क्रांतियों का काल था l देश की आज़ादी के साथ साथ समाज में व्याप्त जड़ता के ख़िलाफ़ तथा पारसी थिएटर की फूहड़ प्रस्तुतियों स व्याकुल होकर साहित्यकारों की कलम ने काम करना शुरू किया l फलस्वरूप हर स्तर पर नवजागरण की लहर ने लोगो की विचारधारा में एक सशक्त परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई l नवजागरण काल के लेखकों में एक विशेष लक्षण दृष्टिगोचर होती है  इनका विस्तार एक साथ कई कई विधाओं में था l साहित्य को कला का ही अभिन्न अंग मानते हुए इनलोगों ने ऐसे नाटकों के मंचन पर विशेष बल दिया जिनका साहित्यिक महत्व हो और सुसंस्कृत विचारों की स्थापना में सक्षम हों l प्रभावस्वरूप इन नाटकों ने पारसी नाटकों की अतिरंजना के प्रभाव को धूमिल करना शुरू कर दिया जो लोगो को उनके वास्तविक जीवन से नहीं जोड़ पा रही थी l  इनमे भारतेंदु हरिश्चंद्र, बालकृष्ण भट्ट, पंडित माधव शुक्ल आदि प्रमुख थे l इनका मानना था साहित्य की समझ के लिए समाज का शिक्षित हों ज़रूरी है क्योंकि शिक्षा मनुष्य को विचारवान बनती है और निम्न कोटि के साहित्य के रसापान से रोकती है l इनलोगों ने अंग्रेजों के ख़िलाफ़ नाटक को एक सशक्त हथियार बनाया और देशप्रेम से ओतप्रोत नाटक खेले l इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु १९०६ में हिंदी नाट्य समिति की स्थापना हुई और मुंशी भृगुनाथ के नेतृत्व में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने नीलदेवी और राधेश्याम ने कथावाचक का वीर अभिमन्यु जैसे सामाजिक विषयों पर नाटक खेलना शुरू किया और हिंदी रंगमंच को पारसी बालाओं की जुल्फों और पतली कमर से बाहर निकाल कर दर्शकों को भारतीय संस्कृति और सभ्यता पर आधारित जीवन मूल्यों के प्रति सचेत होने की प्रेरणा दीl सत्य विजय, पांडव विजय, भारत रमणी, सती पद्मनी, सम्राट परीक्षित, स्कूल की लड़की आदि नाटकों के मंचन के माध्यम से सामाजिक जागरूकता को सस्जक्त बनाया l इन नाटकों से तत्कालीन समाज के स्वरुप को भलीभांति समझा जा सकता है l

दूसरे दशक में पंडित माधव शुक्ल और भोलानाथ बर्मन के द्वारा हिंदी नाट्य परिषद् की स्थापना हुई l गाँधीजी के आन्दोलनों का प्रभाव हर तरफ था; साहित्य भी इससे अछूता नहीं था, कला पर भी इन आंदोलनों का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता था l बंगाल क्रांतिकारी गतिविधियों में अग्रणी रहा है l कलकत्ता का साहित्य सृजन, कला सृजन, रंगकर्म आदि गतिविधियाँ राष्ट्रीय नवजागरण में अदभुत सक्रिय भूमिका का निर्वहन कर रहा था l देशभक्ति से ओतप्रोत नाटकों को अंग्रेज़ सरकार प्रतिबंधित करने लगी तो इन रंगकर्मियों ने नाटकों के नाम बदल कर से खेलना शुरू कर दिया l इस कड़ी में महाराणा प्रताप, महाभारत, विश्वप्रेम, चन्द्रगुप्त, नूरजहाँ, शाहजहाँ, महात्मा ईसा आदि नाटक खेले गए l इस तरह रंगमंच पर देशप्रेम की धारा बहने लगी l इस बीच में और भी कई नाट्य संस्थाएँ अस्तित्व में आईं l लेकिन १९४७ में तरुण संघ की स्थापना ने रंगमच में स्त्रियों की भागेदारी को महत्वपूर्ण बनाया l भंवरमल सिंघी, श्यामानंद जालान, विमल लाठ आदि महत्वपूर्ण लोगो के साथ सुशीला भंडारी, सुशीला सिंघी और प्रतिभा अग्रवाल ने रंगमंच की बागडोर संभाली l बाल विवाह, विधवा विवाह, पर्दा-प्रथा, फूहड़ नाचगान, शादी-विवाह पर होने वाली फिजूलखर्ची, दिखावाबाज़ी, आडम्बर आदि पर खुलकर नाटक लिखे गए और मंचित भी हुए l ये प्रस्तुतियां बड़ी सफल और सार्थक साबित हुईं l

१९५५ में अनामिका की स्थापना एक नई ऊर्जा साबित हुई– अनुवादों की श्रृंखला में नाट्य शोध की संस्थापक प्रतिभा अग्रवाल का नाम भी अग्रणी है. १९३० में इनका जन्म हुआ था. मारवाड़ी समाज की किसी महिला का अभिनय में आना ही उस वक़्त के लिहाज से बहुत बड़ी क्रांति थी l प्रतिभा जी ने कलकत्ता के हिंदी रंगमंच को राष्ट्रीय स्तर पर जो पहचान दिलाई वो अतुलनीय है l अनामिका द्वारा साहित्यिक नाटकों की प्रस्तुतियाँ जनमानस की रुचियों का शुद्धिकरण के साथ लोगो में साहित्य के पठन पाठन के चलन को बढ़ाया l प्रतिभा जी के अनुवादों ने भाषाओँ के मध्य सेतु का काम किया और विभिन्न साहित्य के नए नए आस्वादों से दर्शकों को परिचित कराया l प्रतिभा जी के नेतृत्व में हम हिन्दुस्तानी, जनता का शत्रु, आषाढ़ का एक दिन, पाटलिपुत्र के खँडहर में, अंजो दीदी, घर-बाहर, छलावा, छपते छपते, मादा कैक्टस, लहरों के राजहंस, शुतुरमुर्ग, आधे-अधूरे, एवम इन्द्रजीत, पगला घोड़ा, हयवदन आदि पचास से भी अधिक नाटक हैं जो कलकत्ता के हिंदी रंगमंच के इतिहास में विशेष महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय हैं l प्रतिभा अग्रवाल कलकत्ता के हिंदी रंगमंच का एक स्वर्णिम नाम है l

उन्नीसवीं सदी के चौथे दशक में किसानों, लेखकों, छात्रों, मजदूरों के अनेक संगठन बने जिन्होंने जन आंदोलनों को नया मोड़ दिया. 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के बाद और बंगाल कल्चरल स्क्वायड, मुंबई का कल्चरल स्कावड, बैग्लोर की सांस्कृतिक इकाई की सफ़लता के बाद एक राष्ट्रीय मंच की आवश्यक्ता की पुर्ति के लिये इप्टा का 25 मई 1943 को गठन हुआ. ब्रिटिश साम्राज्य, अन्तर्राष्ट्रीय फ़ासीवाद और भारतीय सामंतवाद के खिलाफ़ संघर्ष में आम जनता के वैचारिक पहलुओं को दिशा देने के लिये प्रदर्शनकारी कला के प्रयोजन के महत्त्व को समझा गया. इप्टा ने गीत, संगीत, नृत्यरचना आदि के द्वारा समय के यथार्थ को प्रदर्शनकारी रूपों में व्यक्त करने की जरूरत बताई. लेखक, कलाकार, नर्तक, अभिनेता इसमें शामिल हुए. विभिन्न भारतीय भाषाओं में इसकी शाखाएं बनी. नुक्कड़ नाटकों का दौर शुरू हुआ… बंगाल में हिंदी में नुक्कड़ नाटक को एक आन्दोलन के तौर पर महेश जायसवाल ने लिया और लगातार लिखते और करते रहे l उषा गांगुली ने भी नुक्कड़ नाटको को महत्व दिया था और कई प्रस्तुतियां की l मैंने भी कई नुक्कड़ नाटक लिखे और उनकी हज़ार से ऊपर प्रस्तुतियां की हैं l नवजागरण युग के प्रभाव की तरह इप्टा के जन्म ने नाटकों को एक नई दिशा दी l रंगमंच से जुड़ा हर व्यक्ति किसी न किसी रूप से इप्टा और इप्टा के आंदोलनों से जुड़ने लगा था l फलस्वरूप रंगकर्म को एक नया कैनवास मिला लोगो के बीच में उनका होकर उनकी समस्याओं को लेकर उनके बीच पहुँचने के लिए l

१९४४ में जन्मी उषा गांगुली ने १९७६ में रंगकर्मी की स्थापना कर प्रगतिशील नाटकों के साथ कलकत्ता के हिंदी रंगमंच पर अपनी धूम मचा दी l सत्तर के बाद बंगाल में मार्क्सवाद और समाजवाद ने ज़ोर पकड़ना शुरू किया l चाहे बंगाली समाज या हिंदी समाज, पूरा बंगाल इसके प्रभाव में डूबा हुआ था l

समाजवाद और मार्क्सवाद लोगो के जीवन का एक अहम् हिस्सा हो गया था l सारा साहित्य और रंगमच मार्क्समयी हो गया था l गण-नाट्य का प्रभाव बहुत ही जन व्यापी था l इस तरह बंगाली समाज या यूँ कहूँ कि मार्क्सवाद में डूबा बंगाली समाज पहली बार हिंदी रंगमंच के लिए बहुत बड़ा दर्शक वर्ग बन कर उभरा l

दूसरे आरंभिक दिनों में रंगकर्मी के नाटकों में साहित्यिक नाटकों की भाषा की गूढता और जटिलता भी नहीं थी l इसलिए बंगाली दर्शकों ने इसे बड़े ही सहज रूप से लिया l महाभोज, लोक कथा, होली, रुदाली, शोभा यात्रा, कोर्ट मार्शल, हिम्मत माई, सरहद पार मंटो, काशीनामा, भोर, चंडालिका आदि नाटकों की सफल प्रस्तुतियों से उषा गांगुली एक मजबूत हस्ताक्षर हैं भारतीय हिंदी रंगमंच में l

1972 में श्यामानन्द जालान ने अनामिका से अलग हटकर पदातिक की स्थापना की l चेतना जालान (१९४७) ने श्यामानंद के निर्देशन में लहरों के राजहंस में अलका की भूमिका करके एक संवेदनशील कलाकार के रूप में अपनी पहचान बनाई और इसक बाद एवम इन्द्रजीत में मौसी और मानसी के द्वैत भूमिका में अभिनय करके अपनी कुशलता का लौहा मनवा लिया l इतना ही नहीं विजय तेंदुलकर के गीधाड़े और सखाराम बाइंडर में चंपा के अभिनय में उन्होंने अपने साहसिक कलाकार होने का भी परिचय दिया l

1994 में मैंने और अज़हर ने लिटिल थेस्पियन की स्थापना की थी l लेकिन ये दौर किसी आंदोलनों का दौर नहीं था l थोड़ी बहुत राजनीतिक उठापटक के अलावा समाज एक सीधी रेखा पर ही चल रहा था l लेकिन टीवी सीरियलों का कुप्रभाव नज़र आने लगा था l सन 2000 के बाद तो हमने छात्र वर्ग के मध्य से साहित्यिक संगोष्ठियों के चलन का खात्मा भी देखा l हिंदी भाषियों में नाटक और रंगमंच अतीत की गाथा में सीमित हो कर रह गया था l लेकिन लिटिल थेस्पियन की साहित्यिक और सामाजिक सरोकारों से जुड़े नाटकों की लगातार प्रस्तुतियों ने हिंदी दर्शकों को एक बार फिर नया आस्वाद देने में सफलता हासिल की l

रेंगती परछाइयाँ (मेरे द्वारा लिखित), कबीरा खड़ा बाज़ार में, अलका, गैंडा, पतझड़, लोहार, बड़े भाईसाहब, प्रश्नचिह्न, यादों के बुझे हुए सवेरे, हयवदन, शुतुरमुर्ग, कांच के खिलौने आदि 30 से अधिक नाटक और कथा-कोलाज के अंतर्गत ३२ कहानियों की प्रस्तुतियों ने दर्शकों को ये कहने पर मजबूर किया है कि इन प्रस्तुतियों की बात कुछ अलग है l

इसके अलावा मैंने भारत सरकार के जूनियर फेल्लोशिप के अंतर्गत मैंने कोलकाता में कहानियों के मंचन पर कई स्तरों पे काम किया है l कहानियों में कोई बदलाव किये बगैर उनका मंचन दर्शकों के लिए एक अद्भुत अनुभूति साबित हुयी l चूँकि अनुवाद भी मेरा क्षेत्र है, अंग्रेजी, उर्दू और बांगला से कई नाटकों का अनुवाद किया है मैंने जिनका अलग अलग नाट्य निर्देशकों द्वारा मंचन भी हुआ है l

डॉली बासु मूलतः बंगला नाटकों में और रमनजीत कौर अंग्रेजी नाटकों में एक सशक्त हस्ताक्षर हैं लेकिन इन्होने हिंदी नाटको को भी मंचित कर हिंदी नाटको के विकास में अहम भूमिका निभाई हैं l निर्देशन के अलावा अभिनय के क्षेत्र में भी कलकत्ता का स्त्रीवर्ग अग्रणी रहा है l यामा सराफ, संचिता भट्टाचार्य, उमा जयसवाल, अनुभवा फतेहपुरिया, श्राबोनी राय, सेंजुती मुखोपाध्याय, शुभ्रा खेतान अग्रवाल, हीना परवेज़, अर्पिता बोस, अनीता दास, चंद्रेयी दत्ता मित्रा, आरज़ू सज्जाद, अंजना मंडल कई नाम हैं जिन्होंने कलकत्ता के रंगकर्म को अतुलनीय बनाया है l

रंगमंच में स्त्रियों की भूमिका पर बात हो और बंगाल की उस अदाकारा का नाम ना लिया जाए तो पूरी बात अधूरी रह जायेगी। मेरा इशारा नटी विनोदिनी की तरफ है जिसे एक महत्वपूर्ण चरित्र  के रूप में हर महिला अभिनेत्री ज़रूर खेलती हैं  नटी विनोदिनी सिर्फ बंगाल की ही अभिनेत्री नहीं थी बल्कि संपूर्ण भारतीय रंगमंच की एक महान कलाकार थीं. विनोदिनी ने अपनी आत्म-कथा “आमार कथा” में अपने संघर्ष की कथा को कुछ इस तरह वर्णित किया है – “वारांगनाओं का जीवन कलंकित और घृणित होता है, लेकिन वह घृणित और कलंकित क्यों होता है? माँ के गर्भ से ही तो पतिता नहीं होती, अपने जन्म के लिए वो तो दोषी नहीं होती, सोचना चाहिए की किसने सबसे पहले उसका जीवन घृणा योग्य बनाया?

यह संभव कि कुछ स्त्रियाँ स्वेच्छा से अँधेरे में डूब कर नरक के रास्ते चलती हैं, लेकिन ज़्यादातर पुरुषों के छल कपट का शिकार बन कलंक का बोझ सर पे लादे नरक यंत्रणा सहती हैं ऐसी स्त्रियाँ ही जानती हैं कि वारांगनाओं का जीवन कितना असहनीय होता है? विनोदिनी की ये पंक्क्तियाँ उनके साथ हुई सारी ज़्यादतियों का खुलासा ही करती हैं l

कलकत्ता में रंगमंच के सफ़र को सौ साल से भी ज़्यादा हो चुके हैं और इस बात में कोई संदेह नहीं कि हिंदी रंगमंच में स्त्रियों की एक सुदृढ़ परंपरा रही है जिन्होंने एक से बढ़ कर एक नए नए प्रयोग  किये हैं l परन्तु महिलाओं का काम संगठित होने की बजाय कुछेक टोलियों में बंट कर रह गया l

वर्तमान समय में हम आदर्शवाद और यथार्थवाद के मध्य के संघर्ष को नए रूप में देख रहें हैं l फलस्वरूप नाटकों के प्रति रूचि उत्पन्न करने के लिए विभिन्न स्तरों पर दर्शकों के लिए सेमिनारों, संगोष्ठियों और वर्कशॉप के आयोजन की आवश्यकता है और ये ज़िम्मेदारी सभी सांस्कृतिक संस्थाओं की भी है ताकि सिर्फ़ स्त्रियों की ही नहीं बल्कि पुरुषों की भी भागीदारी रंगमंच में सशक्त रूप में हो l

मौलिक हिन्दी नाटक कम लिखे जाते हैं। आम तौर पर साहित्यकार साहित्य की अन्य विधाओं पर ही अपना समय देना पसंद करते हैं। नाटक लिखने में बहुत उत्साहजनक रुचि नहीं दिखाई देती। नतीजतन रंगकर्मियों को अक्सर अनूदित नाटकों का सहारा लेना पड़ता है। या फिर स्क्रिप्ट चयन में समझौता करना पड़ता है।

अंत में मैं यही कह कर अपनी बात समाप्त करती हूँ कि रंगमंच पर स्त्री का लक्ष्य कला के विभिन्न पहलुओं के लिए, दर्शकों और जनता के लिए और स्वयं उसके लिए एक महान और विशिष्ट स्थान रखता है और इसलिए स्त्रियों ने रंगमंच को मानवता के हित में समृद्ध किया है l जीवन के अन्य क्षेत्रों की तरह रंगमंच में भी ऐसी अनेक स्त्रियाँ मौजूद हैं जिनपर हम गर्व कर सकते हैं l

शुभजिता

शुभजिता की कोशिश समस्याओं के साथ ही उत्कृष्ट सकारात्मक व सृजनात्मक खबरों को साभार संग्रहित कर आगे ले जाना है। अब आप भी शुभजिता में लिख सकते हैं, बस नियमों का ध्यान रखें। चयनित खबरें, आलेख व सृजनात्मक सामग्री इस वेबपत्रिका पर प्रकाशित की जाएगी। अगर आप भी कुछ सकारात्मक कर रहे हैं तो कमेन्ट्स बॉक्स में बताएँ या हमें ई मेल करें। इसके साथ ही प्रकाशित आलेखों के आधार पर किसी भी प्रकार की औषधि, नुस्खे उपयोग में लाने से पूर्व अपने चिकित्सक, सौंदर्य विशेषज्ञ या किसी भी विशेषज्ञ की सलाह अवश्य लें। इसके अतिरिक्त खबरों या ऑफर के आधार पर खरीददारी से पूर्व आप खुद पड़ताल अवश्य करें। इसके साथ ही कमेन्ट्स बॉक्स में टिप्पणी करते समय मर्यादित, संतुलित टिप्पणी ही करें।

रंगमंच पर दोहरा संघर्ष कर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं स्त्रियाँ

रंगमंच की दुनिया में कुछ लोग होते हैं जो नाटक करते हैं और कुछ होते हैं जो नाटकों को जीते हैं। लिटिल थेस्पियन की सह संस्थापक और निदेशक उमा झुनझुनवाला और अजहर आलम की जोड़ी ऐसी ही जोड़ी है। लिटिल थेस्पियन 23 साल पूरे कर चुकी है…देश भर में प्रशंसित और पुरस्कृत हो चुकी है…और हिन्दी का पहले थियेटर फेस्टिवल करने का श्रेय भी संस्था को जाता है। हाल ही में नीलांबर के लिटरेरिया में लिटिल थेस्पियन को रवि दवे स्मृति सम्मान प्रदान किया गया। नाटकों को उपेक्षित करते आ रहे हिन्दी प्रदेश में नाट्यकर्मी उमा झुनझुनवाला ने नाटकों न सिर्फ प्रतिष्ठित किया बल्कि नयी पीढ़ी और खासकर लड़कियों को इस विधा से जुड़ने का आत्मविश्वास दिया। आगामी 3 नवम्बर से लिटिल थेस्पियन जश्न ए रंग 2017 का वृहद आयोजन करने जा रहा है…। नाटकों का उत्सव जब सजने वाला है तो नाटकों पर बात होनी ही है…तो अपराजिता से लिटिल थेस्पियन की सह संस्थापक व निदेशक उमा झुनझुनवाला ने साझा की ढेर सारी बातें नाटकों, उसके इतिहास और नाटकों में स्त्री पर। पेश हैं कुछ अंश –

 “किसी भी क्षेत्र में स्त्रियों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है” – कह देने मात्र से ही बात पूरी नहीं हो जाती हैl अभी चारों तरफ इसी तरह की बातें लिखी और कही जा रही हैं कि २१वी सदी महिलाओं के बहुआयामी प्रतिभाओं की सदी है, जागरूकता और दावेदारी की सदी है। समाज, राजनीति और कला सहित जीवन का कोई भी क्षेत्र महिलाओं की इस दावेदारी से अछूता नहीं है।

व्यक्तिगत तौर पर मैं लिंग-भेद के दृष्टिकोण से किसी भी विषय या चर्चा की पक्षधर नहीं हूँ…लेकिन उसके बावजूद एक स्त्री होने के नाते किसी भी सृजन की प्रसव पीड़ा से ठीक उसी तरह अवगत हूँ जैसे एक माँ होती है। उस पीड़ा को पुरुष समाज अलग अलग धरातल पर काव्यात्मक ढंग से महसूस कर उसे वर्णित तो कर सकता है किन्तु हर औरत के लिए उस पीड़ा की अनुभूति सामान्य तौर एक जैसी ही होती है – उदहारण स्वरुप किसी औरत या लड़की का नाटक करने जाना ही उसके पिता/पति के परिवारवालों के लिए स्वीकार्य नहीं हो पाता है कि मंच पर जाकर लोगो के सामने अभिनय करना, नाचना गाना वगैरह वगैरह अधर्म होता है, किसी तरह जाने की स्वीकृति मिल जाए तो और दूसरे पचासों सवाल सुरसा राक्षसी की तरह मुंह बाये खड़ी रहती हैं – मसलन- डायरेक्टर कौन है, रोल क्या है, समय पर घर आ जाना, आज देर क्यों हो गयी, फलाने एक्टर के साथ किस तरह का दृश्य है, रोज़ रोज़ जाना ज़रूरी है क्या ?

और अगर शादीशुदा है तो – घर की सारी जिम्मेदारियां तय वक़्त पर ही पूरी होनी चाहिए, रात को देर से आओगी तो खाना कैसे बनेगा, बच्चों की पढाई का कौन ध्यान रखेगा, फलाने मर्द के साथ क्यों आई, दृश्य में दूरी बना के रखो, फलाने के साथ तुम्हारा क्या सम्बन्ध है, आदि आदिl उफ्फ्फ… ये सारे सवाल सिर्फ स्त्रियों के लिए ही होते हैं इसलिए इनका संघर्ष दोहरा होता है – इन सारे सवालों की जवाबदेही के साथ साथ रंगमंच पर अपने हस्ताक्षर को दर्ज कराना मामूली बात नहीं हो सकती l ऐसा नहीं है कि ऐसी परिस्थिति का सामना हर स्त्री शब्द को करना पड़ता है; लेकिन अपनी मर्ज़ी के काम में रजामंदी के मोहर की आवश्यकता मुझे लगता है हर किसी को पड़ ही जाती है l खैर समय के साथ ये सवाल उठने लगा था कि वर्तमान परिस्थितियों में परिवर्तन लाये बिना समाज का विकास संभव नहीं और इसके लिए औरतों को भी समाज की संपूर्ण कलात्मक गतिविधियों में हिस्सा लेने की पूरी स्वाधीनता होनी चाहिए l

अपितु, परिवर्तित सामाजिक ढाँचे की विषमताओं और जटिलताओं के चलते कला की अन्य विधाओं की अपेक्षा रंगमंच में स्वयं को घोषित करना निस्संदेह असाधारण कार्य है परन्तु असंभव कतई नहीं और इसलिए ये सूची भी मामूली नहीं जहाँ महिला रंगकर्मियों की एक लम्बी कतार है –जोहरा सहगल, कुदसिया जैदी, शांता गाँधी,  रशीद जहाँ, शीला भाटिया, दीना पाठक, अंजला महर्षि, अनामिका हक्सर, प्रतिभा अग्रवाल, लक्ष्मी चन्द्रा, कपिला मलिक वात्स्यायन, क्षमा आहूजा, नीलम मानसिंह, रानी बलबीर कौर, बी. जयश्री, अरुंधती राजे, एस. मालती, सौम्य वर्मा, नादिरा बब्बर, जे. शैलजा, अमाल अल्लाना, अनुराधा कपूर, गिरीश रस्तोगी, कीर्ति जैन, तृप्ति मित्रा, उषा गांगुली, त्रिपुरारी शर्मा, मंजू जोशी, कुसुम हैदर, विजया मेहता, माया कृष्ण राव, शबनम हाशमी, अरुंधती नाग, कविता नागपाल, रेखा जैन, सांवली मित्र, अमला राय, उषा बनर्जी, उमा सहाय, नंदिता दास, उत्तरा बावकार, चेतना जालान, रेखा जैन, भागीरथी, विभारानी (और आप लोग चाहें तो मेरा भी नाम दर्ज कर सकते हैं इसमें – उमा झुनझुनवाला)

१९वीं सदी के अंतिम दशकों में पारसी थियेटर का बोलबाला अपने चरम पर था l मूनलाइट, मिनर्वा आदि थियटरों में व्यावसायिक दृष्टिकोण से एक के बाद एक सफल नाटकों की प्रस्तुतियाँ होती रहीं l इनका मूल उद्देश्य दर्शकों का सतही तौर पर मनोरंजन करके पैसा कमाना था l १९३०-३४ तक इसका असर बड़ा व्यापक रहा l लेकिन ये काल आन्दोलनों और क्रांतियों का काल था l देश की आज़ादी के साथ साथ समाज में व्याप्त जड़ता के ख़िलाफ़ तथा पारसी थिएटर की फूहड़ प्रस्तुतियों स व्याकुल होकर साहित्यकारों की कलम ने काम करना शुरू किया l फलस्वरूप हर स्तर पर नवजागरण की लहर ने लोगो की विचारधारा में एक सशक्त परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई l नवजागरण काल के लेखकों में एक विशेष लक्षण दृष्टिगोचर होती है – इनका विस्तार एक साथ कई कई विधाओं में था l साहित्य को कला का ही अभिन्न अंग मानते हुए इनलोगों ने ऐसे नाटकों के मंचन पर विशेष बल दिया जिनका साहित्यिक महत्व हो और सुसंस्कृत विचारों की स्थापना में सक्षम हों l प्रभावस्वरूप इन नाटकों ने पारसी नाटकों की अतिरंजना के प्रभाव को धूमिल करना शुरू कर दिया जो लोगो को उनके वास्तविक जीवन से नहीं जोड़ पा रही थी l  इनमे भारतेंदु हरिश्चंद्र, बालकृष्ण भट्ट, पंडित माधव शुक्ल आदि प्रमुख थे l इनका मानना था साहित्य की समझ के लिए समाज का शिक्षित हों ज़रूरी है क्योंकि शिक्षा मनुष्य को विचारवान बनती है और निम्न कोटि के साहित्य के रसापान से रोकती है l इनलोगों ने अंग्रेजों के ख़िलाफ़ नाटक को एक सशक्त हथियार बनाया और देशप्रेम से ओतप्रोत नाटक खेले l इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु १९०६ में हिंदी नाट्य समिति की स्थापना हुई और मुंशी भृगुनाथ के नेतृत्व में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने नीलदेवी और राधेश्याम ने कथावाचक का वीर अभिमन्यु जैसे सामाजिक विषयों पर नाटक खेलना शुरू किया और हिंदी रंगमंच को पारसी बालाओं की जुल्फों और पतली कमर से बाहर निकाल कर दर्शकों को भारतीय संस्कृति और सभ्यता पर आधारित जीवन मूल्यों के प्रति सचेत होने की प्रेरणा दीl सत्य विजय, पांडव विजय, भारत रमणी, सती पद्मनी, सम्राट परीक्षित, स्कूल की लड़की आदि नाटकों के मंचन के माध्यम से सामाजिक जागरूकता को सस्जक्त बनाया l इन नाटकों से तत्कालीन समाज के स्वरुप को भलीभांति समझा जा सकता है l

दूसरे दशक में पंडित माधव शुक्ल और भोलानाथ बर्मन के द्वारा हिंदी नाट्य परिषद् की स्थापना हुई l गाँधीजी के आन्दोलनों का प्रभाव हर तरफ था; साहित्य भी इससे अछूता नहीं था, कला पर भी इन आंदोलनों का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता था l बंगाल क्रांतिकारी गतिविधियों में अग्रणी रहा है l कलकत्ता का साहित्य सृजन, कला सृजन, रंगकर्म आदि गतिविधियाँ राष्ट्रीय नवजागरण में अदभुत सक्रिय भूमिका का निर्वहन कर रहा था l देशभक्ति से ओतप्रोत नाटकों को अंग्रेज़ सरकार प्रतिबंधित करने लगी तो इन रंगकर्मियों ने नाटकों के नाम बदल कर से खेलना शुरू कर दिया l इस कड़ी में महाराणा प्रताप, महाभारत, विश्वप्रेम, चन्द्रगुप्त, नूरजहाँ, शाहजहाँ, महात्मा ईसा आदि नाटक खेले गए l इस तरह रंगमंच पर देशप्रेम की धारा बहने लगी l इस बीच में और भी कई नाट्य संस्थाएँ अस्तित्व में आईं l लेकिन १९४७ में तरुण संघ की स्थापना ने रंगमच में स्त्रियों की भागेदारी को महत्वपूर्ण बनाया l भंवरमल सिंघी, श्यामानंद जालान, विमल लाठ आदि महत्वपूर्ण लोगो के साथ सुशीला भंडारी, सुशीला सिंघी और प्रतिभा अग्रवाल ने रंगमंच की बागडोर संभाली l बाल विवाह, विधवा विवाह, पर्दा-प्रथा, फूहड़ नाचगान, शादी-विवाह पर होने वाली फिजूलखर्ची, दिखावाबाज़ी, आडम्बर आदि पर खुलकर नाटक लिखे गए और मंचित भी हुए l ये प्रस्तुतियां बड़ी सफल और सार्थक साबित हुईं l

१९५५ में अनामिका की स्थापना एक नई ऊर्जा साबित हुई– अनुवादों की श्रृंखला में नाट्य शोध की संस्थापक प्रतिभा अग्रवाल का नाम भी अग्रणी है. १९३० में इनका जन्म हुआ था. मारवाड़ी समाज की किसी महिला का अभिनय में आना ही उस वक़्त के लिहाज से बहुत बड़ी क्रांति थी l प्रतिभा जी ने कलकत्ता के हिंदी रंगमंच को राष्ट्रीय स्तर पर जो पहचान दिलाई वो अतुलनीय है l अनामिका द्वारा साहित्यिक नाटकों की प्रस्तुतियाँ जनमानस की रुचियों का शुद्धिकरण के साथ लोगो में साहित्य के पठन पाठन के चलन को बढ़ाया l प्रतिभा जी के अनुवादों ने भाषाओँ के मध्य सेतु का काम किया और विभिन्न साहित्य के नए नए आस्वादों से दर्शकों को परिचित कराया l प्रतिभा जी के नेतृत्व में हम हिन्दुस्तानी, जनता का शत्रु, आषाढ़ का एक दिन, पाटलिपुत्र के खँडहर में, अंजो दीदी, घर-बाहर, छलावा, छपते छपते, मादा कैक्टस, लहरों के राजहंस, शुतुरमुर्ग, आधे-अधूरे, एवम इन्द्रजीत, पगला घोड़ा, हयवदन आदि पचास से भी अधिक नाटक हैं जो कलकत्ता के हिंदी रंगमंच के इतिहास में विशेष महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय हैं l प्रतिभा अग्रवाल कलकत्ता के हिंदी रंगमंच का एक स्वर्णिम नाम है l

उन्नीसवीं सदी के चौथे दशक में किसानों, लेखकों, छात्रों, मजदूरों के अनेक संगठन बने जिन्होंने जन आंदोलनों को नया मोड़ दिया. 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के बाद और बंगाल कल्चरल स्क्वायड, मुंबई का कल्चरल स्कावड, बैग्लोर की सांस्कृतिक इकाई की सफ़लता के बाद एक राष्ट्रीय मंच की आवश्यक्ता की पुर्ति के लिये इप्टा का 25 मई 1943 को गठन हुआ. ब्रिटिश साम्राज्य, अन्तर्राष्ट्रीय फ़ासीवाद और भारतीय सामंतवाद के खिलाफ़ संघर्ष में आम जनता के वैचारिक पहलुओं को दिशा देने के लिये प्रदर्शनकारी कला के प्रयोजन के महत्त्व को समझा गया. इप्टा ने गीत, संगीत, नृत्यरचना आदि के द्वारा समय के यथार्थ को प्रदर्शनकारी रूपों में व्यक्त करने की जरूरत बताई. लेखक, कलाकार, नर्तक, अभिनेता इसमें शामिल हुए. विभिन्न भारतीय भाषाओं में इसकी शाखाएं बनी. नुक्कड़ नाटकों का दौर शुरू हुआ… बंगाल में हिंदी में नुक्कड़ नाटक को एक आन्दोलन के तौर पर महेश जायसवाल ने लिया और लगातार लिखते और करते रहे l उषा गांगुली ने भी नुक्कड़ नाटको को महत्व दिया था और कई प्रस्तुतियां की l मैंने भी कई नुक्कड़ नाटक लिखे और उनकी हज़ार से ऊपर प्रस्तुतियां की हैं l नवजागरण युग के प्रभाव की तरह इप्टा के जन्म ने नाटकों को एक नई दिशा दी l रंगमंच से जुड़ा हर व्यक्ति किसी न किसी रूप से इप्टा और इप्टा के आंदोलनों से जुड़ने लगा था l फलस्वरूप रंगकर्म को एक नया कैनवास मिला लोगो के बीच में उनका होकर उनकी समस्याओं को लेकर उनके बीच पहुँचने के लिए l

१९४४ में जन्मी उषा गांगुली ने १९७६ में रंगकर्मी की स्थापना कर प्रगतिशील नाटकों के साथ कलकत्ता के हिंदी रंगमंच पर अपनी धूम मचा दी l सत्तर के बाद बंगाल में मार्क्सवाद और समाजवाद ने ज़ोर पकड़ना शुरू किया l चाहे बंगाली समाज या हिंदी समाज, पूरा बंगाल इसके प्रभाव में डूबा हुआ था l

समाजवाद और मार्क्सवाद लोगो के जीवन का एक अहम् हिस्सा हो गया था l सारा साहित्य और रंगमच मार्क्समयी हो गया था l गण-नाट्य का प्रभाव बहुत ही जन व्यापी था l इस तरह बंगाली समाज या यूँ कहूँ कि मार्क्सवाद में डूबा बंगाली समाज पहली बार हिंदी रंगमंच के लिए बहुत बड़ा दर्शक वर्ग बन कर उभरा l

दूसरे आरंभिक दिनों में रंगकर्मी के नाटकों में साहित्यिक नाटकों की भाषा की गूढता और जटिलता भी नहीं थी l इसलिए बंगाली दर्शकों ने इसे बड़े ही सहज रूप से लिया l महाभोज, लोक कथा, होली, रुदाली, शोभा यात्रा, कोर्ट मार्शल, हिम्मत माई, सरहद पार मंटो, काशीनामा, भोर, चंडालिका आदि नाटकों की सफल प्रस्तुतियों से उषा गांगुली एक मजबूत हस्ताक्षर हैं भारतीय हिंदी रंगमंच में l

1972 में श्यामानन्द जालान ने अनामिका से अलग हटकर पदातिक की स्थापना की l चेतना जालान (१९४७) ने श्यामानंद के निर्देशन में लहरों के राजहंस में अलका की भूमिका करके एक संवेदनशील कलाकार के रूप में अपनी पहचान बनाई और इसक बाद एवम इन्द्रजीत में मौसी और मानसी के द्वैत भूमिका में अभिनय करके अपनी कुशलता का लौहा मनवा लिया l इतना ही नहीं विजय तेंदुलकर के गीधाड़े और सखाराम बाइंडर में चंपा के अभिनय में उन्होंने अपने साहसिक कलाकार होने का भी परिचय दिया l

1994 में मैंने और अज़हर ने लिटिल थेस्पियन की स्थापना की थी l लेकिन ये दौर किसी आंदोलनों का दौर नहीं था l थोड़ी बहुत राजनीतिक उठापटक के अलावा समाज एक सीधी रेखा पर ही चल रहा था l लेकिन टीवी सीरियलों का कुप्रभाव नज़र आने लगा था l सन 2000 के बाद तो हमने छात्र वर्ग के मध्य से साहित्यिक संगोष्ठियों के चलन का खात्मा भी देखा l हिंदी भाषियों में नाटक और रंगमंच अतीत की गाथा में सीमित हो कर रह गया था l लेकिन लिटिल थेस्पियन की साहित्यिक और सामाजिक सरोकारों से जुड़े नाटकों की लगातार प्रस्तुतियों ने हिंदी दर्शकों को एक बार फिर नया आस्वाद देने में सफलता हासिल की l

रेंगती परछाइयाँ (मेरे द्वारा लिखित), कबीरा खड़ा बाज़ार में, अलका, गैंडा, पतझड़, लोहार, बड़े भाईसाहब, प्रश्नचिह्न, यादों के बुझे हुए सवेरे, हयवदन, शुतुरमुर्ग, कांच के खिलौने आदि 30 से अधिक नाटक और कथा-कोलाज के अंतर्गत ३२ कहानियों की प्रस्तुतियों ने दर्शकों को ये कहने पर मजबूर किया है कि इन प्रस्तुतियों की बात कुछ अलग है l

इसके अलावा मैंने भारत सरकार के जूनियर फेल्लोशिप के अंतर्गत मैंने कोलकाता में कहानियों के मंचन पर कई स्तरों पे काम किया है l कहानियों में कोई बदलाव किये बगैर उनका मंचन दर्शकों के लिए एक अद्भुत अनुभूति साबित हुयी l चूँकि अनुवाद भी मेरा क्षेत्र है, अंग्रेजी, उर्दू और बांगला से कई नाटकों का अनुवाद किया है मैंने जिनका अलग अलग नाट्य निर्देशकों द्वारा मंचन भी हुआ है l

डॉली बासु मूलतः बंगला नाटकों में और रमनजीत कौर अंग्रेजी नाटकों में एक सशक्त हस्ताक्षर हैं लेकिन इन्होने हिंदी नाटको को भी मंचित कर हिंदी नाटको के विकास में अहम भूमिका निभाई हैं l निर्देशन के अलावा अभिनय के क्षेत्र में भी कलकत्ता का स्त्रीवर्ग अग्रणी रहा है l यामा सराफ, संचिता भट्टाचार्य, उमा जयसवाल, अनुभवा फतेहपुरिया, श्राबोनी राय, सेंजुती मुखोपाध्याय, शुभ्रा खेतान अग्रवाल, हीना परवेज़, अर्पिता बोस, अनीता दास, चंद्रेयी दत्ता मित्रा, आरज़ू सज्जाद, अंजना मंडल कई नाम हैं जिन्होंने कलकत्ता के रंगकर्म को अतुलनीय बनाया है l

रंगमंच में स्त्रियों की भूमिका पर बात हो और बंगाल की उस अदाकारा का नाम ना लिया जाए तो पूरी बात अधूरी रह जायेगी। मेरा इशारा नटी विनोदिनी की तरफ है जिसे एक महत्वपूर्ण चरित्र  के रूप में हर महिला अभिनेत्री ज़रूर खेलती हैं …नटी विनोदिनी सिर्फ बंगाल की ही अभिनेत्री नहीं थी बल्कि संपूर्ण भारतीय रंगमंच की एक महान कलाकार थीं. विनोदिनी ने अपनी आत्म-कथा “आमार कथा” में अपने संघर्ष की कथा को कुछ इस तरह वर्णित किया है – “वारांगनाओं का जीवन कलंकित और घृणित होता है, लेकिन वह घृणित और कलंकित क्यों होता है? माँ के गर्भ से ही तो पतिता नहीं होती, अपने जन्म के लिए वो तो दोषी नहीं होती, सोचना चाहिए की किसने सबसे पहले उसका जीवन घृणा योग्य बनाया?

यह संभव कि कुछ स्त्रियाँ स्वेच्छा से अँधेरे में डूब कर नरक के रास्ते चलती हैं, लेकिन ज़्यादातर पुरुषों के छल कपट का शिकार बन कलंक का बोझ सर पे लादे नरक यंत्रणा सहती हैं….ऐसी स्त्रियाँ ही जानती हैं कि वारांगनाओं का जीवन कितना असहनीय होता है? विनोदिनी की ये पंक्क्तियाँ उनके साथ हुई सारी ज़्यादतियों का खुलासा ही करती हैं l

कलकत्ता में रंगमंच के सफ़र को सौ साल से भी ज़्यादा हो चुके हैं और इस बात में कोई संदेह नहीं कि हिंदी रंगमंच में स्त्रियों की एक सुदृढ़ परंपरा रही है जिन्होंने एक से बढ़ कर एक नए नए प्रयोग  किये हैं l परन्तु महिलाओं का काम संगठित होने की बजाय कुछेक टोलियों में बंट कर रह गया l

वर्तमान समय में हम आदर्शवाद और यथार्थवाद के मध्य के संघर्ष को नए रूप में देख रहें हैं l फलस्वरूप नाटकों के प्रति रूचि उत्पन्न करने के लिए विभिन्न स्तरों पर दर्शकों के लिए सेमिनारों, संगोष्ठियों और वर्कशॉप के आयोजन की आवश्यकता है और ये ज़िम्मेदारी सभी सांस्कृतिक संस्थाओं की भी है ताकि सिर्फ़ स्त्रियों की ही नहीं बल्कि पुरुषों की भी भागीदारी रंगमंच में सशक्त रूप में हो l

मौलिक हिन्दी नाटक कम लिखे जाते हैं। आम तौर पर साहित्यकार साहित्य की अन्य विधाओं पर ही अपना समय देना पसंद करते हैं। नाटक लिखने में बहुत उत्साहजनक रुचि नहीं दिखाई देती। नतीजतन रंगकर्मियों को अक्सर अनूदित नाटकों का सहारा लेना पड़ता है। या फिर स्क्रिप्ट चयन में समझौता करना पड़ता है। ”

अंत में मैं यही कह कर अपनी बात समाप्त करती हूँ कि रंगमंच पर स्त्री का लक्ष्य कला के विभिन्न पहलुओं के लिए, दर्शकों और जनता के लिए और स्वयं उसके लिए एक महान और विशिष्ट स्थान रखता है और इसलिए स्त्रियों ने रंगमंच को मानवता के हित में समृद्ध किया है l जीवन के अन्य क्षेत्रों की तरह रंगमंच में भी ऐसी अनेक स्त्रियाँ मौजूद हैं जिनपर हम गर्व कर सकते हैं l

लिटिल थेस्पियन पर अपराजिता में प्रकाशित आलेख

http://www.aprajita.co.in/%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%9F%E0%A4%BF%E0%A4%B2-%E0%A4%A5%E0%A5%87%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%A8-%E0%A4%A8%E0%A5%87-%E0%A4%AA%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A5%80/

 

 

 

 

 

 

 

 

 

शुभजिता

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