रंगमंच और छोटे परदे की कश्मकश में जूझता “निर्देशक”

जीतेन्द्र सिंह

हाल ही में प्रोसिनियम आर्ट सेंटर में यूनिवर्सल लिटिल थियेटर ने निर्देशक एम. एस.राशिद खान के निर्देशन में ‘निर्देशक’ नाम की नाट्य प्रस्तुति का प्रर्दशन किया गया। यह नाटक मुलतः गुजराती नाटक का अनुवाद है जिसे प्रीतम जानी ने लिखा था। आज से करीब चालीस साल पहले ,उस दौर में जब टेलीविजन का आगमन हुआ था, उस समय यह नाटक बहुत ही चर्चित हुआ था। यह वह समय था जब हर शहर से रंगमंच के अभिनेताओं का पलायन टीवी और फिल्मों की ओर शुरु हो गया था। नाटकों के प्रदर्शन पर असर पड़ने लगा था। उस समय के रंगमंच के कलाकारों के सामने प्रश्न उठाते हुए आज के रंगमंच के हालत पर गम्भीर मुद्दा उठाने की पुरजोर कोशिश करता है । नाटक की कहानी में एक उम्रदराज़ नाट्य निर्देशक रहता है जो नाटक के प्रति बहुत ही समर्पित है । यहाँ तक कि अपने परिवार तक को वह समय नहीं दे पाता। बेटे की कॉलेज फीस के रुपये भी नाटक के मंचन लगा देता है लेकिन इस बदले हुए समय में अब सिर्फ नास्टेल्जिया में जीने वाला जिदंगी से हार चुका कुफित व्यक्ति बनकर अभिनेताओं की खोज में बैठा हुआ है कि कोई आये और उसके साथ नाटक करे। एक नये अभिनेता को देख वह चहक उठता है । उस अभिनेता से अपना नाटक तैयार करवाता है । वही अभिनेता आज के दिन फिल्मों का चर्चित अभिनेता बन जाता है । बहुत दिनों बाद वह निर्देशक से मिलने एक दिन आता है और उसके साथ बातचीत के जरिए कभी फ्लैश-बैक कभी वर्तमान में इस नाटक का कथ्य प्रकट होता है लेकिन इस प्रस्तुति का यह द्वंद किसी तरह से उभर नहीं पाता बल्कि जनाब और सर के सम्बोधन में उलझ जाता है । दोनों अभिनेता डरे -डरे संवादों की अदायगी करते रहते है ,मानों ऐसा लगता है कि संवादों के रद्दोबदल से उसकी लय टूटती नजर आती है। दोनों अपने -अपने संवाद एवं मुवमेंट खोजने में लगे रहते है। प्रस्तुति को देखते हुए लगता है कि जैसे निर्देशक का नाट्य कथ्य और अपने कलाकारों पर कोई नियंत्रण ही नहीं रहा जबकि मो.एस.एम.राशिद कोलकाता के जाने माने अभिनेता और निर्देशकों में शुमार होते है । इस नाटक की विषय वस्तु में बड़ी नाटकीयता थी और अच्छे कलाकार भी थे। इस नाटक में मुख्य भूमिका प्रताप जायसवाल ने निर्देशक रुप में और अभिनेता के रूप में प्रतीक पटवारी ने निभायी है। निर्देशक के बेटे के एक छोटे से चरित्र में उबैर अहमद आते हैं और अपनी अदायगी से दर्शकों को मुग्ध कर चले जाते हैं। आजकल कोलकाता की हिन्दी नाट्य संस्थाओं में कुछेक नाट्य संस्थाओं को छोड़कर ज्यादातर संस्थाओं की प्रस्तुतियों को देखते हुए लगता है कि उनके निर्देशक ,अभिनेता, संगीत, प्रकाश -व्यवस्था, परिधान और रुप- सज्जा के महत्व को नहीं समझ पा रहे या उसे महत्त्व नहीं देना चाहते हैं । उन्हें यह बात समझनी होगी कि यह सभी किसी भी प्रस्तुति के लिए एक महत्वपूर्ण अंग होते हैं।

(समीक्षक वरिष्ठ नाट्यकर्मी हैं)
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