युगन्धर – ईश्वर और मनुष्य के बीच संतुलन साधने की कोशिश 

अपने चरित नायकों को हम उस पूज्य दृष्टि से देखते हैं कि उनके आस – पास चमत्कार की कथायें गढ़ लेते हैं जैसे मान लिया गया है कि जो अलौकिक होगा..वह चमत्कार करेगा ही वरना वह ईश्वर नहीं है। इस धारणा को कुछ हद शिवाजी सावन्त युगंन्धर में तोड़ते हैं। हमारे मानस में वंशी बजाने वाले चिरयुवा श्रीकृष्ण बसे हैं मगर आपको यहाँ कृष्ण वृद्ध भी दिखेंगे, थके और उदास भी दिखेंगे…उनकी आँखें डबडबाती भी हैं। शिवाजी सावन्त के उपन्यास का हिन्दी अनुवाद ही मैंने पढ़ा और यह दूसरी बार पढ़ा। आप जिनको चमत्कार समझते हैं, वह विराट रूप श्रीकृष्ण की रणनीतिक सूझ -बूझ को सामने रखता है। कई बार ऐसा भी लगता है कि उनके सोलह हजार आठ विवाहों को और द्रोपदी को जस्टीफाई करने का प्रयास यहाँ भी हुआ है।

श्रीकृष्ण के ईश्वरत्व को बरकरार रखते हुए कहीं – कहीं छूट लेते हैं मगर आपको यह उपन्यास उनके चरित्र और उनकी हर चिन्ता को समझने में है। पहला अध्याय आत्मकथात्मक शैली में है मगर इसके बाद रुक्मिणी, द्रोपदी, दा., सात्यकी,अर्जुन और अन्त में उद्धव उनकी कहानी अपने अनुसार कहते हैं। यहाँ आपको ब्र गोप कृष्ण मिलते हैं, खासकर दारुक, सात्यिकी, और उद्धव की दृष्टि से समझना एक नयी दिशा है। राधा हैं मगर वह बहुत कम जगहों पर आती हैं। आवरण पृष्ठ पर ही हाथ में प्रतोद और सुदर्शन चक्र लिए श्रीकृष्ण की तस्वीर उपन्यास का उद्देश्य समझा देती है। हमारे इतिहास और पुराणों में स्त्री चरित्रों को कभी हाशिये पर रखा गया है। श्रीकृष्ण के चरित्र पर आधारित इस उपन्सास में आपको कई ऐसे चरित्र मिलते हैं जिनका उल्लेख न के बराबर हुआ है।

 

 

इस उपन्यास में आपको ब्रज में उनकी बहन के रूप में एकानंगा मिलती हैं और उनकी बेटी चारुमती भी मिलती हैं पर दोनों का विशद वर्णन नहीं है। इसके अतिरिक्त कृष्ण की एक और पुत्री भी मिलती हैं। एक बार मैंने कहीं पांडवों की पुत्री के बारे में भी पढ़ा था। एक बात तो तय है कि स्त्रियों का तत्कालीन समाज आज जैसा तो नहीं था। वहाँ वह वस्तु है जिसका अपहरण किया जा सकता है या जीता जा सकता है। यह सही है कि मैं कृष्ण के चरित्र से प्रेरित हूँ मगर जब आप रचना या चरित्र पर बात करते हैं तो वहाँ निरपेक्ष होकर सोचने की जरूरत है। अगर 16 हजार विवाह नियति हैं तो भी रुक्मिणी के अतिरिक्त 7 विवाह प्रेम के कारण कम राजनीतिक और रणनीतिक प्रसार की जरूरत अधिक हैं और यहाँ स्त्री की इच्छा का प्रश्न ही नहीं है, वह या तो मोहरा है या वस्तु है। स्त्री का एकमात्र उद्देश्य अच्छा पति पाना है…अगर आप नैतिकता और सम्बन्धों के आधार पर बात करते हैं तो खुद श्रीकृष्ण ने भी इसका पालन नहीं किया..भीम का विवाह बहन से होता है तो नकुल का विवाह शिशुपाल की कन्या से। श्रीकृष्ण अर्जुन के भ्राता हैं मगर सुभद्रा से उनका विवाह करवाते हैं। अगर वह ईश्वर हैं तो वह भी हमारी तरह ही हैं…समय के प्रवाह में डूबते – उतरते…थकते और विश्राम लेते…इस उपन्यास को पहले लाइब्रेरी पढ़ा था..और अब खरीद भी लिया है…जाने कितने पाठों से कितने प्रश्न निकलें..। हमने ईश्वर की परिकल्पना और उनसे सम्बन्धित तथ्यों को अपने हिसाब से ढाला है और उसी को विश्वास बना लिया है जबकि यह पक्ष ही अधूरा है। यह हमारी सुविधा भी है..कृष्ण के चरित्र को समझना है तो वंशी काफी नहीं, आपको सुदर्शन चक्र, प्रतोद और राजदंड सभी को लेकर चलना होगा। उनकी दुविधा, चिन्ता, कठिनाई…उदासी..सबको समझना होगा…जरूरी है कि उनको जिस आसन पर आपने बैठा रखा है….उससे नीचे उतारकर अपनी तरह महसूस कीजिए एक ऐसे मनुष्य की तरह जिससे गलतियाँ हुई हैं और हो सकती हैं। उपन्यास के आरम्भ में जब वह खुद अपनी कथा कहते हैं तो यह उनकी शिकायतों में शामिल है। बहुत सी बातों के जस्टिफिकेशन से दूर रहकर भी आपको यहाँ समझ की नयी दृष्टि मिलती है। भाषा संस्कतनिष्ठ होकर भी समझ में आती है। उपन्यास धाराप्रवाह शैली में लिखा गया है जिसे बार – बार पढ़ने के साथ समझने की ललक भी पैदा होती है। वस्तुतः सम्बन्धों के आगे उनका एकमात्र उद्देश्य आर्यावर्त को अन्याय से मुक्त करवाना था और जाहिर है कि इसके लिए उन्होंने किसी की परवाह नहीं की। आप उनकी आलोचना कर सकते मगर खारिज नहीं कर सकते। उनको न तो अपने मन से निकाल सकते हैं और न ही मंदिरों से।

युगन्धर
शिवाजी सावंत
मूल्य: Rs. 800
प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ
प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :936

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