मैं भटका
पलायन करने लगा
घर छोड़ हवा में उडा़
एक और घर बनाया
घर टँगा रहा
समाज देखता रहा
क्रिया प्रतिक्रिया चलती रही
मेरे अंश घर में रह गए
प्रेम खो गया, मैं खो गया लटके घर में
प्रेम की परिभाषा बदल गई
सिर्फ कंधे तक रह गया मैं
प्रेम बँट गया कई रूपों में
जीवन से गया भटक
कर्तव्य बोध से रहा अनजान
कोशिशें खत्म होने लगीं
मैं निहारने लगा मुझको
उम्र के इस पड़ाव पर ठहर
स्थिर हो, देखता रहा
पीछे छूटती गलियों, पगडंडियों पर
पैरों के निशान देते रहे
तुम्हारे होने का प्रमाण
कुरेदना, खोदना एक – एक कण को सहेजना
कितना कठिन है इस भाषा को पढ़ना
तुम भी तब अनजान भटका करते थे
अपनी पहचान पाने के लिए
आज सिर्फ़ तुम्हारे पैरों के पीछे ही
लोगों की जमात भाग रही है