सुषमा त्रिपाठी
कैथरीन क्लेमां का नाम गूगल पर आपको मिल जाएगा पर विस्तृत जानकारी नहीं मिलेगी। जब कैथरीन की किताब एडविना और नेहरू को दूसरी बार पढ़ा था। आम तौर पर इस पुस्तक को दुर्लभ प्रेम कथाओं में जाना जाता है पर यह किताब मेरी नजर में बतौर पाठक प्रेमकथा से कहीं आगे है। भारत -पाकिस्तान के विभाजन के दौरान मचा तांडव, भारतीय नेताओं की मनोदशा…यह किताब सबके नकाब खोलती है। पुस्तक का अनुवाद निर्मला जैन ने किया है और यह एक शानदार अनुवाद है। प्राक्कथन में कैथरीना मानती हैं कि प्रेम की इस परम्परा का जन्म 12वीं शताब्दी के यूरोप में धर्मयुद्धों के समय हुआ था। (पेज -1) …आगे वह लिखती हैं कि मैंने नेहरू और एडविना पर इसी परिप्रेक्ष्य में ऐतिहासिक उपन्यास लिखा है। मुक्त भाव से मैंने कुछ ऐसी कुछ स्थितियों जोड़ दी हैं, जो संभवतः घटित नहीं हुईं, लेकिन कुछ संकेतों के आधार पर उनका घटित होना संभव जान पड़ता है। दूसरी ओर कुछ और स्थितियां जो असंभव प्रतीत होती हैं, वास्तव में एकदम सच्ची है। (पेज -2)
नेहरू और एडविना दोनों इंसान थे। दोनों में नेतृत्व का गुण था। दोनों रोमांटिक थे, उनमें भावावेश था और अपने ढंग से दोनों भारत के लिए समर्पित थे।(पेज -2) उपन्यास चौरी चौरा कांड से शुरू होता है। यहां अहिंसा के नाम पर गांधी द्वारा सविनय अवज्ञा आन्दोलन वापस लिया जाता है। पूरे उपन्यास में गांधी के सन्दर्भ में एक बात स्पष्ट है कि गांधी को अहिंसा की उम्मीद केवल हिन्दुओं से थी मगर मुसलमानों के सन्दर्भ में उनका यह प्रेम नहीं दिखता। कृति में ऐसे कई स्थल हैं जहां स्पष्ट होता है कि गांधी की दृष्टि में मुसलमान प्राथमिकता थे..जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे। आमतौर पर जब यह बात कही जाती है तो कहने वाले को संघी कह दिया जाता है, भाजपाई या हिन्दू आतंकवादी तक कह दिया जाता है मगर यह ध्यान में रखना जरूरी है कि यह पुस्तक फ्रांस की लेखिका ने लिखी है जिसका संघ से या हिन्दू मत से दूर – दूर तक कोई संबंध नहीं था। इस उपन्यास में एडविना के कई प्रेम संबंधों का जिक्र मिलता है और इसमें बनी और बिलपाले का नाम शामिल है। यह भी एडविना माउंडबेटन के साथ अपने संबंधों को लेकर बहुत निश्चित नहीं थी, माउंटबेटन को उनके जवाब का इंतजार करना पड़ा था । एक पात्र कहता है -पहली बात तो यह कि अभी तक सगाई की घोषणा नहीं की गयी है, ज्यादा से ज्यादा यही हो सकता है कि युवा माउंटबेटन अभी कुमारी एडविना एशले के जवाब का इंतजार कर रहे हैं…(पेज -8) ।
उपन्यास में कस्तूरबा गांधी के निधन का प्रसंग मार्मिक है और कहीं न कहीं महात्मा कहे जाने वाले गांधी की मानवता पर भी सवाल उठते हैं। क्या कोई पति इतना क्रूर हो सकता है कि स्वदेशी के नाम पर डॉक्टरों के कहने के बावजूद अपनी पत्नी को इस स्थिति में ला दे की कि वह दवा ही न ले। – डॉक्टर ने कस्तूरबा को चटाई पर सीधा करके उनके चेहरे की परीक्षा की। उसे उनके हृदय और फेफड़ों आदि की गति को आले (स्टैथेस्कोप) से सुनने की जरूरत नहीं पड़ी। बिना कुछ बोले, गंभीर मुद्रा में उसने अपना बैग खोलकर एक सिरिज और शीशी निकाली।
यह क्या है? गांधी ने तीखे स्वर में पूछा।
सिर्फ पेन्सिलीन, मिस्टर गांधी। परेशान न हों : दो या तीन शीशियां बस और हम इन्हें ठीक कर लेंगे।
गाँझी ने धीरे से कहा- क्या मैं यह समझूँ कि आप इनको इंजेक्शन देंगे?
डॉक्टर ने अपनी सिरिज की तरफ देखा, और कुछ मुस्कुराते हुए कहा – उन्हें सुई का चुभना पता भी नहीं लगेगा।
सवाल यह नहीं है कि , गांधी ने जवाब दिया। मैं इंजेक्शन लगाकर इलाज करने के एकदम खिलाफ हूँ, यह प्राकृतिक नहीं है। और जो प्राकृतिक नहीं है वह मानवता के लिए हितकर नहीं है।
क्या? डॉक्टर चिल्लाया -आप इंजेक्शन के लिए मना नहीं करेंगे, क्या आप ऐसा करेंगे? (पेज -25)
इसी पेज पर आगे वर्णन है – गाँधी जी उठे और रात के अंधियारे में डॉक्टर के पीछे बाहर चले गए। मेरे लिए आपको आगाह करना जरूरी है मिस्टर गाँधी, पेन्सिलिन के बिना वे नहीं बचेंगी। डॉक्टर फुसफुसाया। इसके अलावा आपके बेटे, देवदास इस इलाज पर जोर दे रहे हैं।….बात आगे बढ़ती है पर गाँधी नहीं मानते। अपनी मरणासन्न पत्नी के पास जाकर कहते हैं – बा ..सुनो। अगर तुम जीना चाहती हो तो तुम्हें सिरिंज से पेन्सिलिन का एक इंजेक्शन लगवाना होगा। क्या तुम्हें मंजूर है?
सिंरिज से? वे बुदबुदाईं, आपको तो यह पसंद नहीं है, या है?
इसका फैसला सिर्फ तुम्हें करना है, बा, महात्मा ने उनकी भौहों को चूमते हुए फुसफुसाकर कहा, सिर्फ तुम्हें प्यारी बा…….. (पेज – 26) और बा ने गांधी के कारण इंजेक्शन नहीं लिया। पुणे के यरवदा आश्रम में फरवरी के महीने में उन्होंने दम तोड़ दिया। इसके बाद भी गांधी को रक्ती भर भी दया नहीं आती। कस्तूरबा के निधन के अगले दिन वे डॉक्टर से कहते हैं – अगर मैंने पेन्सिलिन लगाने की अनुमति दे भी दी होती, तो भी वह उन्हें नहीं बचा सकती थी।
डॉक्टर चुप रहा।
हम लोग बासठ साल इक्कठे रहे और उन्होंने मेरी गोदी में दम तोड़ दिया। इससे बेहतर और क्या हो सकता था? महात्मा ने ऐसे पूछा जैसे वे डॉ़क्टर से अपनी बात का समर्थन चाहते थे। अब पाठक स्थिति को पलट दें और सोचें कि अगर गांधी के साथ ऐसी स्थिति होती तो क्या कस्तूरबा वही करतीं जो गांधी ने किया? मुझे लगता है नहीं करतीं…आगे मैं फिर सोचती हूँ और फिर मन में सवाल उठता है कि क्या बह्मचर्य और सत्य के नाम के प्रयोग के नाम पर गांधी द्वारा किये गये कृत्यों को जिस तरह आदर्श स्वीकृति मिली है, वह प्रयोग क्या कस्तूरबा करतीं या ऐसे ही पुरुषों के कंधे पर हाथ रखकर घूमतीं तो क्या यह समाज उनको स्वीकार करता? गाँधी के प्रण के लिए कस्तूरबा ने बलिदान दिया और प्रैक्टिकल होकर कहूँ तो गाँधी ने स्वदेशी के नाम पर और परम्परा ने पतिव्रता के नाम पर जिस तरह स्त्रियों का ब्रेन वॉश किया, यह उसकी ही परिणति थी।
कई जगहों पर उल्लेख मिलता है महात्मा गांधी को तीन बार मलेरिया हुआ था। वे कई दिन तक बिस्तर पर रहे। इसी दौरान वे एक जिद कर बैठे, बोले मैं दवा नहीं लूंगा। प्राकृतिक तरीके से जो इलाज होता है, उसी से ठीक होकर दिखाऊंगा। खैर, महात्मा गांधी की मच्छरों के सामने एक न चली। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के मुताबिक, अंत में गांधी जी को ‘कुनेन’ लेनी पड़ी। वे दवा लेने के विरोध में थे। दूसरे तरीकों से खुद को ठीक करने में उनकी ज्यादा रुचि थी। आईसीएमआर में मलेरिया पर पेश की गई एक रिपोर्ट के दौरान यह बात सामने आई है। मतभेदों के बावजूद कस्तूरबा गांधी से अधिक समर्पित महिला थीं।
कैथरीन क्लेमा ने भारतीय राजनीति में नेहरू की भूमिका पर विस्तार से बात की है। 18 मार्च 1946 को नेहरू और एडविना की पहली मुलाकात होती है। आरम्भ में एडविना को नेहरू में कोई दिलचस्पी नहीं होती और न ही वे उनको महत्व देती हैं मगर लुई माउंटबेटन को पता था कि नेहरू भविष्य में उनके लिए कितने उपयोगी हो सकते हैं। माउंटबेटन एडविना से नेहरू का परिचय देते हुए कहते हैं – और वे एशियन रिलेशंस कांफ्रेंस के अध्यक्ष हैं। लॉर्ड लुई ने उत्तेजित होकर कहा, तुम्हें मालूम है कि भारत का भविष्य बहुत दूर तक नेहरू पर निर्भर है? उनके बगैर मुसलमानों के साथ कोई समझौता नहीं हो सकता, भारत में नागरिक शांति नहीं हो सकती। (पेज -32)
जलियावाला बाग हत्याकांड के आरोपाी जनरल डायर को लंदन में सम्मान मिल रहा था। माउंटबेटन जब कहते हैं कि डायर को सैनिक अदालत में पेश किया गया था तो नेहरू कटुता के साथ कहते हैं, –और, उसका हुआ क्या? वह मजे से दिन गुजार रहा है; भारत में रहने वाले अंग्रेजों के चंदे से बँधी पेंशन के सहारे। (पेज -46) ..यहां पर एडविना नेहरू का समर्थन करती हैं। नेहरू कहते हैं – जिस समय हम लोग जेल में थे उस समय जिन्ना और मुस्लिम लीग की साजिशों को खुली छूट देकर इस खतरे को इंग्लैंड ने ही बढ़ाया है। एक बात तो तय है कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस अंग्रेज सरकार को खटकते थे। एक प्रसंग है जहां नेहरू कहते हैं – लेकिन मैं उस भारतीय देशभक्त सुभाषचंद्र बोस के बारे में बात करना चाहता हूँ। उनकी सेना के मुस्लिम सैनिकों को अपराधी ठहराने के कारण ही कलकत्ता उत्तेजित हो गया है। और वे दंगे…………..
इस पर लॉर्ड माउंटबेटन कहते हैं – आप जानते हैं कि सिवा इस राजद्रोही के उल्लेख के सिवा जिसे आप देशभक्त कहते हैं, मैंने सिंगापुर के आपके कार्यक्रम पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया। उस समय भारतीय मामलों के अवर सचिव ऑर्थर हेंडसन थे। इस किताब में कलकत्ता के दंगों का उल्लेख है यानी डायरेक्ट ऐक्शन डे जो 16 अगस्त 1946 को हुआ था और यह नृशंसता भारतीय इतिहास में दबा दी गयी। स्पष्ट है कि एक विदेशी लेखिका इस बात को मानती है कि कलकत्ता दंगों की आग में जला था और जिन्ना इसके जिम्मेदार थे – यह सीधे कार्रवाई का दिन है, हमारे जिन्ना ने कहा था। मुसलमानों की ताकत दिखाने का दिन। लूटमार की बात अलग है, उसे हमें सिर्फ अपने महान नेता से तय करना है। (पेज -54) इसके बाद भीषण रक्तपात और बर्बरता के दिल दहला देने वाले दृश्य हैं जो कि तीन दिन तक चलते रहे मगर हमारे राजनेता तब भी अपनी सियासी रोटियां सेंकने में व्यस्त थे। इन दंगों में सोहरावर्दी की भूमिका रही है मगर किताब में जिक्र नहीं मिलता । 16 अगस्त के बाद 17 दिसम्बर 1946 को भी कोलकाता में दंगे हुए मगर इनका जिक्र बहुत कम मिलता है। मजे की बात यह है कि जो जिन्ना पाकिस्तान के लिए लड़ रहे थे, उनको उर्दू नहीं भाती थी। सरोजनी ने ठंडी सांस लेकर कहा, यह सच है, जो पाकिस्तान के लिए लड़ रहा है, वह मुसलमानों की भाषा नहीं बोलता। नेहरू उर्दू बोलते हैं मगर जिन्ना नहीं । (पेज – 63)
31 मार्च 1947 को एडविना, माउंटबेटन और गाँधी की मुलाकात होती है और गाँधी जिन्ना को भारत का प्रधानमंत्री बनाने के लिए तैयार हैं और जब यह कहा जाता है कि नेहरू नहीं मानेंगे तो वह नेहरू को मना लेने की बात कहते हैं। याद रहे कि यह वह समय था जब मुसमान हिन्दुओं का कत्लेआम कर रहे थे। गाँधी कहते हैं – मिस्टर जिन्ना का अपना अहंकार है, योर हाईनेस ! लेकिन मैं जानता हूँ उन्हें कैसे राजी किया जा सकता है। उन्हें भारत सरकार में प्रधानमंत्री का पद चाहिए।
आगे वह कहते हैं – उन्हें (नेहरू को) स्वीकार करना होगा वरना भारत नष्ट हो जाएगा। (पेज -93)
– लेकिन, मैडम मिस्टर जिन्ना और वो बहुत दोनों बहुत अभिमानी हैं। नेहरू वायसराय की मदद नहीं मांगेंगे। मैंने मांग ली। मैं अपने को सिर्फ हिन्दू नहीं महसूस करता । सारे हिन्दुस्तानी, मुस्लिम, पारसी, सिख, जैन, ईसाई, यहूदी- सब मेरे बच्चे हैं….खासकर मुसलमान । (पेज -94)
महात्मा गांधी अपने विषय में कहते हैं – महिलाओं से बात करना मेरे जीवन का प्रिय शगल है। (पेज -113) । जिन्ना को लेकर सरोजिनी नायडू और एडविना की बातचीत का एक प्रसंग है –सरोजिनी ने गंभीरता से बात शुरू की, जिस जिन्ना को एक जमाने में मैं जानती थी वह कांग्रेस का स्वाधीनता सेनानी था, एक ऐसा युवक जिसका उत्साह और चुम्बकीय आकर्षण सामान्य लोगों जैसा नहीं था। वह हिन्दु और मुसलमानों के बीच एकता का कट्टर समर्थक था। और मुझे यकीन नहीं आता कि उस महान ज्वाला का लेशमात्र भी उसके हृदय में बाकी नहीं रहा है। (पेज -133)
बंटवारे के समय गाँधी और जिन्ना की असहमति साफ झलकती है। जिन्ना कहते हैं – नहीं मोहनदास, मैंने सिर्फ उनकी बातें सुनी हैं, जिन्ना ने धीरे से जवाब दिया। अल्लाह के नाम पर, जिसका आह्वान तुम भी करते हो, बातों को सीधे देखो। जिम्मेदारी न मेरी है न नेहरू की। इस स्थिति में दो ऐसे समुदायों के साथ जो एक साथ रहने से नफरत करते हैं, जबरदस्ती करके, तुम जहर ही खोल सकते हो। (पेज -140)
लार्ड माउंटबेटन की बाल्कन योजना में बंगाल को अलग कर दिया गया था, उसके पास विकल्प था – भारत या पाकिस्तान में से किसी के साथ मिलने या स्वतंत्र हो जाने का । बंगाल नेहरू की तिजोरी में नहीं आने वाला था। जाहिर था कि नेहरू और कृष्ण मेनन में से किसी को- क्षेत्रीय बंटवारे की व्यवस्था की जानकारी नहीं थी। (पेज -147) यह जाहिर तौर पर किया गया धोखा था और यह लार्ड लुई जानते थे। वह जानते थे कि नेहरू इसे कभी स्वीकार नहीं करेंगे। उपन्यास पढ़ने पर एक बात लगी और वह यह कि लार्ड लुई माउंटबेटन ने एडविना को आगे बढ़ाया और नेहरू के करीब जाने दिया, जो एक तरह से हनी ट्रैप जैसा ही है।
उसने सोचा -कितने आराम से लुई ने कह दिया कि नेहरू मुझे पसंद करते हैं।
नहीं, वह जोर से बोली। डिकी मैं उनकी नजरों में मेमसाहब हूँ। वे मुझे कैसे चाह सकते हैं?
मैं यह नहीं कह रही हूं स्वीटहार्ट कि वे तुमसे प्रेम करते हैं, मैं सिर्फ कह रहा हूँ कि वे तुम्हें पसंद करते हैं, ये दोनों बातें एक नहीं हैं। हमारा दोस्त एक लाइलाज रोमांटिक व्यक्ति है। आखिर जेल में इतने साल……………………।
आगे माउंटबेटन कहते हैं – अगर यह सिर्फ अच्छी दोस्ती है तो इससे मुझे भी फायदा होगा। (पेज -156। )वह नेहरू को मनाने के लिए एडविना से मदद मांगते हैं। एक तरह से लार्ड साहब ने एडविना को रिश्ता आगे बढ़ाने के लिए विवश किया था और एडविना आरम्भ में मदद ही कर रही थी। गाँधी कुरान में आयतें पढ़ने की बात ही नहीं करते बल्कि एक हद तक प्रचार भी करते हैं। (पेज -188)। सोहरावर्दी ने मुसलमानों की सुरक्षा के लिेए महात्मा गांधी से मदद माँगी थी। पुस्तक में एक जगह उस भविष्यवाणी का उल्लेख है जहाँ माउंटबेटन अपनी ही मौत की भविष्यवाणी पर बात करते हैं…वह मूर्ख ज्योतिषी मुझसे क्या कह रहा था ? कि मेरी जिंदगी का खात्मा एक विस्फोट के कारण होगा? (पेज -207) । 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ और उस दिन महात्मा गाँधी ने उपवास शुरू किया। इस किताब के मुताबिक लाहौर में सिख मुसलमान औरतों के साथ अभद्रता करते हैं। मुसलमान भी यही करते हैं, दंगा शुरू हो चुका होता है मतलब 1947 में दंगे की आग पहले पाकिस्तान में ही भड़की थी, भारत में नहीं। पाकिस्तान से जब लाशों से भरी ट्रेन अमृतसर पहुंचती है तो यह आग भारत में फैल जाती है। एडविना डिकी (माउंटबेटन को एडविना इसी नाम से बुलाती थीं) से कहती हैं – अभी – अभी एक ट्रेन अमृतसर पहुंची है। सारी गाड़ी ऐसे यात्रियों से भरी है जिनके गले काट दिये गये हैं। कुछ के सिर उतार दिये गये हैं। (पेज -232)। हैरत की बात यह है कि रक्तपात की इस विभीषिका के बीच भी मुसलमानों के प्रति हर नेता के मन में सॉफ्ट कॉर्नर है, फिर चाहे वह गांधी हों या नेहरू हों मगर हिन्दुओ के लिए और सिखों के लिए यह दर्द न के बराबर है। मारकाट दिल्ली में भी होती है और दंगों में मुसलमान मारे जाते हैं। नेहरू बेचैन हैं – ईमानदारी से मिस्टर गवर्नर जनरल, मेरी तरफ देखिए। मैं, जिस दिन से स्वतंत्रता मिली है, उसी दिन से सोया नहीं हूँ।……………..पुराने किले में पांव रखने की जगह नहीं है, हुमायूं के मकबरे में शरणार्थी बगीचों में पटे पडे हैं। मेरी समझ में नहीं आ रहा कि इन हजारों लोगों के खाने की व्यवस्था कहां से करूँ? (पेज -255) । धर्मांतरण तेजी से हो रहा था, हिन्दुओं और सिखों को तलवार की नोंक मांस खिलाया जा रहा था, मुसलमान बनाया जा रहा था। (पेज -259) । हैरत की बात है कि मारकाट दोनों तरफ से हो रही थी मगर सरकार हो या कांग्रेस के नेता, गांधी हों या नेहरू, सब के सब हिन्दुओं को ही हिंसा का दोषी बता रहे थे और मुसलमानों की रक्षा खुलकर कर रहे थे। किताब में हिंसा की घटनाएं इतनी वीभत्स हैं कि आप सिहर उठेंगे। (पेज -265) । गांधी कहते हैं – मैं हिन्दुस्तानी हूँ, गाँधी ने एक -एक शब्द पर जोर देते हुए कहा. सिर्फ हिन्दू नहीं हूँ। जब तक मेरे देश का एक -एक मुसलमान अपने घर लौटकर शांति से नहीं रहने लगता, तब तक मैं चैन से नहीं बैठूंगा। ( पेज- 278)
बेचारे मुसलमान ! उन्हें कब्र का पत्थर तक नसीब नहीं होता। गांधी जी ने रोष से कहा -उन्हें तसल्ली देनी होगी, बताना होगा कि हम उनके मृतकों की व्यवस्था कर रहे हैं । (पेज -292)
अपनी लंबी छड़ी लेकर नेहरू चिल्लाए- मैं तुम लोगों को चेतावनी देता हूँ। अगर कभी भी किसी ने इस मस्जिद पर हमला किया चो मैं तुम्हें सजा दूंगा। (पेज -284) । बात यहीं नहीं थमती, गाँधी हिन्दुओं को ही दोषी मानते हैं – महात्मा बुदबुदाए । नेहरू नहीं जानता, पर दोष भारत का है। दोष हिन्दुओं का है। यही कहने मैं जाऊंगा..और अगर मरने से पहले मुझे सिर्फ एक काम करना हो, तो वह होगा, अपने देश की तरफ से मुसलमानो और सिखों को क्षमायाचना। (पेज -293)
यह भाषा हम कहीं भी हम हिन्दुओं के लिए उनके मुंह से नहीं सुनते तो क्या हिन्दू गांधी की नजर में हिन्दुस्तानी नहीं थे या भारत के नागरिक नहीं थे? जितनी चिन्ता गांधी और नेहरू मुसलमानों की करते हैं, हिन्दुओं की इतनी चिन्ता न जिन्ना को होती है और सोहरावर्दी जैसे नेताओं को होती है तो पूछने वाली बात यह है कि क्य मानवता बोध एकतरफा होने पर बच सकता है ? एकमात्र सरदार पटेल दिखते हैं जो खुलकर निष्पक्षता से बात रखते हैं।
इस हिंसा और त्रासदी के बीच भी नेहरू और एडविना का प्रेम बदस्तूर जारी रहता है और उनकी अतरंगता के किस्से किताब में दर्ज हैं। (पेज -286) वहीं दूसरी तरफ पूर्व प्रेमी माल्कम को लेकर उनमें अपराधबोध है और एडविना अपनी ही जटिलताओं में घिरी रहती हैं। (पेज -303) वहीं गांधी ने सत्ता में न होते हुए भी भारत सरकार पर अपना प्रभाव बरकरार रखा और भारत सरकार पर उन्होंने पाकिस्तान के पक्ष में दबाव बनाए रखा और इसके लिए उनका हथियार था उपवास और अनशन। -उपवास के दूसरे दिन ही भारत सरकार ने पाकिस्तान का देना चुका दिया था। पर महात्मा जी के लिए इतना ही काफी नहीं था। वे मुसलमानों की सुरक्षा के लिए एक घोषणापत्र भी जारी करवाना चाहते थे। नींद के दो दौरों के बीच गाँधी जी ने अपने सचिव प्यारेलाल को उस घोषणापत्र की शर्तें बोलकर लिखवाई थीं। कोई भी बात उनकी नजर से छूटी नहीं थी : वह मलबे का ढेर बना दी गयीं मस्जिदों का पुनर्निर्माण हो; या रेलों में मुसलमानों की सुरक्षा हो; या चाँदनी चौक में मुसलमानों की दुकानों के बायकॉट पर रोक हो। तमाम धार्मिक तथा राजनैतिक नेताओं ने हस्ताक्षर कर दिये थे। (पेज – 331) बस हिन्दू संगठनों ने हस्ताक्षर नहीं किये थे। 30 जनवरी 1948 को गाँधी की हत्या होती है और 14 फरवरी 1948 तक तीन हजार लोगों की गिरफ्तारी हुई। हिन्दू संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
समय बीतता है, एडविना और नेहरू अपनी -अपनी दुनिया में रहते हुए भी एक दूसरे से जुड़े रहते हैं। मिलते हैं और रिश्ते बने रहते हैं। जवाहर के सरोजिनी नायडू की बेटी पद्मजा से भी रिश्ते रहे। 21 जून 1948 को एडविना पति माउंटबेटन के साथ लंदन लौटती हैं मगर हमेशा नेहरू के सम्पर्क में रहती हैं, पत्राचार जारी रहता है, निजी बातचीत होती है और वह भी फोन पर ऑपरेटरों के माध्यम से। (पेज -412) 11 सितम्बर 1948 को जिन्ना की मौत फेफड़ों के कैंसर के सात तपेदिक की बीमारी के कारण होती है। जिस पाकिस्तान को जन्म देने के लिेए जिन्ना ने भारत के दो टुकड़े किये, उसी पाकिस्तान की सरजमीं पर वे एम्बुलेंस में पानी के लिेए तड़पते हुए दम तोड़ते हैं। 1951 में सरदार पटेल का निधन होता है। 1960 में कई बीमारियों से ग्रस्त एडविना गुजरती हैं और 27 मई 1964 को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का निधन होता है। इसके बाद 27 अगस्त 1979 को नौका पर आयरिश विद्रोहियों के विस्फोट में लार्ड माउंटबेटन की मृत्यु होती है। कितनी अजीब बात है, एडविना के जाने के बाद नेहरू 4 साल से ज्यादा नहीं जी सके और नेहरू और माउंटबेटन में 27 की संख्या अनायास मेल खाती है।
इस किताब में लेखिका ने सन्दर्भ दिये हैं, जहां कल्पना की है, वह बातें कही हैं और प्रामाणिकता के लिए पुस्तकों की सूची भी दी है। निर्मला जैन का अनुवाद भाषा और भाव, दोनों का प्रवाह बनाए रखता है। पुस्तक पढ़कर एक बात तो समझ में आई कि हिन्दुओं के साथ भेदभाव हमेशा से होता आया है और इसकी शुरुआती कहानी महात्मा गाँधी से शुरू होती है, इसी राह पर नेहरू चलते हैं। जब परिस्थितयों को देखती और समझती हूँ तो समझ में आता है कि नाथूराम गोडसे ने अपनी परवाह न करते हुए गाँधी को मारने का निश्चय क्यों किया होगा। हमारी राजनीति आज तक तुष्टीकरण की इसी जमीन पर चलती आ रही है जहाँ धर्मनिरपेक्षता का मतलब हिन्दू आतंक और मुसलमानों का तुष्टीकरण हैं तो अगर आप गाँधी और नेहरू के प्रशंसक हैं तो यह पुस्तक न पढ़ें क्योंकि आप निष्पक्ष होकर पढ़ नहीं सकेंगे और पढ़ लिया तो स्वीकार नहीं कर सकेंगे। यह किताब सिर्फ प्रेम कहानी नहीं बल्कि इतिहास के कुछ निर्मम अध्याय को खोलने का माध्यम है। मैंने एडविना और नेहरू से अधिक भारतीय इतिहास को समीक्षा के केंद्र में रखा है क्योंकि मेरी समझ में वही जरूरी था।
पुस्तक – एडविना और नेहरू
लेखिका – कैथरीन क्लैमां
अनुवाद – निर्मला जैन
प्रकाशक – राजकमल पेपरबैक्स
पहला संस्करण -2007





