‘पिता’ शब्द ही संरक्षण का परिचायक है। जहां मां से निस्वार्थ ममता के आंचल की आशा की जाती है तो पिता से संरक्षण की। मां जन्मदाता है तो पिता से जीवनरूपी आशीष प्राप्त होता है। पिता के होने का अहसास ही हमें हर कठिनाई से निकालने में मदद करता है। हमें हर समय उस मजबूत सुरक्षा आवरण का आभास कराता है जिसे कोई भेद नहीं सकता।
पापा हैं तो कैसी चिंता
पिता के संरक्षण को सिर्फ उस एक उदाहरण से जाना जा सकता है जिसे अमूमन हर व्यक्ति ने देखा होगा और स्वयं भी महसूस किया होगा ‘पापा की गाड़ी पर पीछे बैठे बच्चे को’। पापा को कसकर पकड़े उसके नन्हें हाथ बताते हैं कि पापा हैं तो कोई डर नहीं। सबसे बेफिक्र वह अपनी ही दुनिया में आसपास के नजारे बड़े आत्मविश्वास के साथ देखता चलता है क्योंकि उसे मालूम है कि वह पापा के साथ है, तो फिर कैसी चिंता! मंजिल पर तो पहुंचना ही है।
यही सुरक्षा का अहसास बच्चे को मजबूत विश्वास वाला बनाता है। पिता भले ही अपनी पदवी से मां की तुलना में कठोर माने जाते हैं, मगर इस कठोरता के भीतर भी वह ढेर सारा प्यार छिपाए हुए रहते हैं क्योंकि प्रकृति ने ही उन्हें संरक्षणवादी और अनुशासनात्मक प्रवृत्ति का बनाया है। इसके लिए उन्हें इसी भूमिका में ही पहचान मिली है। जहां मां बच्चे की पहली शिक्षक होती है वहीं पिता पथप्रदर्शक। बच्चे की नन्हीं अंगुलियों को थामे पिता का हाथ ही उसे रास्तों पर चलने का हौसला दिलाता है।
मंजिल तक पहुंचने के लिए तमाम मुसीबतों, मुश्किलों से लड़ने का साहस भी पिता ही दिलाते हैं। कुल मिलाकर वे अपने अनुभवों से बच्चों को दुनियादारी के वह पाठ पढ़ाते हैं, जो उन्हें उनके भविष्य की मंजिल तक पहुंचने में मदद करते हैं।
मील के पत्थर की तरह सीख
बारीकी से गौर करो तो नजर आएगा कि पिता ने छोटी-छोटी बातों से ऐसे मील के पत्थर खड़े कर दिए जो आज जीवन की गाड़ी चलाने में हमें मदद करते हैं। बचपन में गुल्लक में रोज सिक्का भले ही शौक से डाला जाता हो और उत्साह रहता था कि एक दिन ये पैसे बहुत ज्यादा हो जाएंगे। मगर बड़े होकर हम जान पाते हैं कि वह सेविंग का सबक था, जो बड़े होकर हमें गृहस्थी चलाने के लिए आसान रास्ता बन गया।
जरा-सा बीमार हुए कि मां तीमारदारी में लग जाती हैं, मगर पिता तब भी हौसला देते हैं, घबराना नहीं बुखार है अभी भाग जाएगा और सच में शायद उन शब्दों को सुनकर हमारी रोग-प्रतिरोधक क्षमता अचानक बढ़ जाती है और बुखार को भी उल्टे पैर भागना ही पड़ता है। यही पिता का संबल होता है, जो खेल के मैदान में भी हारने के बावजूद हमें फिर कोशिश करने की सीख देता है कि जीत ज्यादा दूर नहीं…कोशिशें जारी रखो। और सही में जीत हमारे हिस्से में आती भी है।
बच्चों की इच्छाओं के आगे पिता अपनी तमाम इच्छाओं को इतना बौना करके रखते हैं कि वह कभी बलवति होती ही नहीं। कड़ी मेहनत कर जो भी लाया जाए, उसमें पूरी होती हैं बच्चों की इच्छाएं क्योंकि पिता बनने के बाद सर्वोपरि रह जाती हैं बच्चों की ख्वाहिशें…।