पापी पेट का सवाल

अपराजिता की ओर से

अपने आस – पास हम ऐसे बहुत से बच्चों को देखते हैं जो अपना बचपन दाँव पर लगाकर अपने परिवार का पेट भरते हैं। कई बार इसमें उनकी जान भी दाँव पर लगी होती है मगर पेट भरने के लिए उनके माता – पिता ही कई बार उनको ऐसी जगहों पर भेजते हैं और यह उनकी मजबूरी है। हम 21वीं सदी के भारत का सपना देख रहे हैं जहाँ बच्चों को बच्चा भी नहीं रहने दिया जाता। बाल श्रमिक इस देश की भयावह समस्या हैं मगर खेल दिखाने वाले बच्चों को क्या अन्य बच्चों की तरह जीने का अधिकार नहीं है। कुछ ख्याल बरबस आ जाते हैं और कुछ ऐसी घटनाएँ जब झकझोर दें तो बस कलम चल पड़ती है। मौमिता भटट्टाचार्य युवा पत्रकार हैं और ऐसी ही घटना को देखकर उन्होंने  अपनी कलम चलायी है, आप भी पढ़िए और कुछ ऐसा देखकर लिखने की छटपटाहट हो तो हमसे साझा करें –

मौमिता भट्टाचार्य

” राधा रानी खेल दिखायेगी….दिखायेगी!!! राधा रानी रस्सी पर चलेगी…चलेगी!!! बाबू पापी पेट का सवाल है। कुछ मदद कर दो। हमारा भी त्योहार मन जायेगा।” यह किसी नुक्कड़ नाटक के संवाद नहीं हैं, बल्कि वास्तविकता है।

त्योहार किसे पसंद नहीं होता है। बच्चों के लिये तो त्योहारों का महत्व कुछ ज्यादा होता है पर कुछ ऐसे भी लोग होते हैं, जिनके जीवन की यह सच्चाई है।

एक ओर जहाँ न सिर्फ पश्चिम बंगाल बल्कि पूरी दुनिया दशहरा और विजया दशमी मनाने में मगन है। वही दूसरी तरफ है गोपी और राधा कुमारी की टोली, जिसमें हैं 5-6 साल की बच्ची राधा, 13-14 साल का गोपी, 3-4 साल का एक बच्चा और एक अधेर व्यक्ति शमिल है।

अपनी टोली के साथ छत्तीसगढ़ के बिलासपुर का रहनेवाला गोपी महानगर कोलकाता में तमाशा दिखाने आता है। षष्टी के दिन वह दमदम इलाके में तमाशा दिखाता है, तो नवमी को वह बागबाजार पूजा पण्डाल के बाहर तमाशा दिखाता है। बाग बाजार में राधा लगातार लगभग ढाई तीन घंटे रस्सी पर चलती है। आने जाने वाले दर्शनार्थियों में से कोई कुछ रुपये दे देता तो कोई अचरज से बस देखता रह जाता। वहाँ मौजूद हर किसी ने इसे मोबाइल में कैद किया।

गोपी कहता है कि हर रोज लगभग 500-600 रुपया कमा लेता है। गोपी के लिये काला अक्षर भैंस बराबर है। वह कभी स्कूल गया ही नहीं। गोपी और राधा इस पेशे को ही अपना बना चुके है।

गोपी को किसी और काम को पेशागत तरीके से करने की कोई इच्छा भी नहीं है। आज एक ओर तो बाल अधिकार और बाल सुरक्षा के नाम पर बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं और दूसरी तरफ गोपी और राधा जैसे बच्चे हैं जिन्होंने आज तक स्कूल का चेहरा तक नहीं देखा है।

इन सबके बीच एकमात्र अच्छी बात यह है कि कम से कम गोपी और राधा के बहाने रस्सी पर चलने जैसे खेलों ने अपना अस्तित्व बचा कर रखा है पर इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि 13-14 साल के इन बच्चों को सड़कों पर तमाशा दिखाकर अपना पेट पालने को मजबूर होना पड़े।

(तस्वीर – लेखिका  के सौजन्य से)

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