दुर्गापूजा और यायावरी के वो चार दिन

सुषमा त्रिपाठी

आज विजया दशमी है। देखते – देखते नवरात्रि कैसे गुजर गयी, पता ही नहीं चला। नवरात्रि की धूम तो सारे देश में रहती है मगर दुर्गापूजा के ये 4 दिन बंगाल का ऑक्सीजन है।

टाला पार्क में आधुनिकता का भविष्य दिखा मगर क्या आज हमारी नियति नहीं है? दवाओं पर जिन्दा रहना

बंगाल की खूबसूरती देखनी हो तो पूजा के ये 4 दिन सबसे बेहतरीन है। वक्त बदला है तो शारदोत्सव के मायने बदले हैं, अब शहर होर्डिंग्स से पटा रहता है मगर ये भी संकेत बन जाते हैं कि शहर तैयार हो रहा है, ये पूरा बंगाल तैयार हो रहा है माँ की आराधना के लिए।

माँ दुर्गा को के पंख….गिरीबाबू लेन की प्रतिमा।

यह एक ऐसा मौसम है जब बसों की भीड़, लम्बी कतारों का असर लोगों पर नहीं पड़ता। इन चार दिनों में लोग नाराज नहीं होना चाहते, जल्दी होते भी नहीं, बस हर दिन नये – नये कपड़े, दोस्त, मस्ती और अड्डा…यही चलता है।

गाड़ियों का शोर,, ट्रैफिक….शिकायतें….उत्सव सब धो डालता है…अहिरीटोला का पंडाल

ये चार दिन बंगाल की संस्कृति और बंगाल कला के बेहतरीन नमूने लाते हैं। पंडालों में लगी भीड़ और एक प्रतियोगिता सी लगी रहती है। रिपोर्टर से लेकर एंकर तक, सब साड़ी और धोती – पंजाबी में सजे, पूजा की तस्वीरें लाते हैं।

हम लन्दन भले न जाएँ…लन्दन अपने शहर में उतार लाते हैं…भवानीपुर स्थित एक भव्य पंडाल

 

इन चार दिनों में सारे शिकवे, सारा गुस्सा, असंतोष सब पीछे छूट जाते हैं। बंगाल के ये चार दिन बंगालियों के चार दिन नहीं रहते, मजहब की दीवारें पीछे छूट जाती हैं। इस बार भी कहीं पंडालों में 22 किलो सोने की साड़ी माँ को पहनायी गयी तो कभी करोड़ों के बजट वाला पंडाल बना।

उत्सव मजहब और नफरत की हर सीमा से परे है। वह घृणा नहीं प्रेम जानता हैै। हिन्दूओं की ही नहीं दुर्गापूजा हम सबकी है।

 

कहीं महिष्मती तो कहीं लंदन उतरा। कहीं गौतम बुद्ध दिखे तो कहीं चन्द्रोदय मंदिर, हर पंडाल में एक सन्देश छुपा है। वह कहीं सड़क हादसों से बचने की सीख देता है तो कहीं मशीनी हो रही दुनिया को चेतावनी देता है और कहीं छोड़ जाता है शांति और साम्प्रदायिक सौहार्द का एक सबक।

कुम्हारटोली पार्क में दिखा प्रस्तावित चन्द्रोदय मंदिर

ये दिन आराधना के दिन हैं, ये दिन यायावरी के दिन थे….हम जब निकले तो आँखों को तड़क – भड़क की तलाश नहीं थी…करोड़ों के बजट वाले मंडप नहीं चाहिए थे….कुछ ऐसा चाहिए था जिसमें एक मकसद हो, परम्परा की छाप हो…कुछ ऐसे ही पंडाल हमें मिले भी जिसकी गूँज हमें अब तक सुनायी पड़ रही है।

मानव बंधन भी. भवानीपुर में एक मण्डप में यही थी इस पूजा की थीम

बाकी, माँ के आगमन की प्रतीक्षा में एक बार फिर डूब गया बंगाल एक और यायावरी के लिए….हमें भी इन्तजार है उन चार दिनों का क्योंकि ऑक्सीजन तो हम सबको चाहिए।

कुम्हारटोली तो अभी भी व्यस्त रहेगी…लक्खी पूजा आशछे तो…..खुमार बरकरार है…..यायावरी जारी है। ….ताले…आशछे बछर आबार होबे….शुभो विजया।

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