एक पत्रकार, एक लेखक, इन्टरनेट की दुनियां का एक जाना माना नाम आखिर क्यूँ एक किसान बन गया? ये कहानी है चनका, बिहार के लेखक किसान, गिरीन्द्रनाथ झा की।
गिरीन्द्रनाथ का जन्म भले ही फणीश्वर नाथ रेनू के गाँव – पूर्णिया में हुआ था, पर उनके किसान पिता ने उन्हें हमेशा अपने गाँव से दूर रखा।
कारण था कि हर पिता की तरह वे भी अपने बेटे को जीवन में सफल होते देखना चाहते थे और हमारे समाज में किसान को असफलता का ही प्रतिरूप माना जाता है। बचपन से ही गिरीन्द्रनाथ को विभिन्न शहरों में पढने के लिए भेजा गया। वे छुट्टियों में चनका आते तो उनका मन वहीँ बस जाता पर बाबूजी की इच्छानुसार वे फिर शहर का रुख कर लेते।
“मुझे बचपन से ही लिखने का शौक रहा है और गाँव आपको कई रोचक कहानियां देता है। यूँ कह लीजिये कि एक लेखक के लिए गाँव में ढेर सारा रॉ मटेरियल उपलब्ध होता है। ऊपर से गाँव का होते हुए भी मुझे गाँव में रहने का मौका ही नहीं मिला। शायद यही वो कारण था जिसकी वजह से गाँव हमेशा मुझे अपनी ओर खींचता था,” गिरीन्द्रनाथ बताते है।
गिरीन्द्रनाथ ने दिल्ली यूनिवर्सिटी के सत्यवती कॉलेज से अर्थशास्त्र में ग्रेजुएशन किया और फिर YMCA इंस्टिट्यूट से प्रिंट मीडिया में पोस्ट ग्रेजुएशन किया। इसके बाद वे आईएनए न्यूज़ सर्विसेज से जुड़ गए। तीन साल दिल्ली में काम करने के बाद गिरीन्द्रनाथ ने दिल्ली यूनिवर्सिटी से ही कंप्यूटर साइंस में स्नातक कर चुकी प्रिया को अपनी जीवनसंगिनी बनाया। इसके बाद उन्हें दैनिक जागरण अखबार में नौकरी मिल गयी और ये जोड़ा कानपूर में बस गया।
हालाँकि गिरीन्द्रनाथ का मन अभी भी गाँव में ही बसता था। इसलिए 2006 से ही जब भी वे गाँव जाते वहां कुछ कदंब के पेड़ ज़रूर लगा आते। उनके दिमाग में गाँव में एक ऐसा घर बनाने का सपना पनपने लगा जहाँ शहरो के लोग भी आकर रहने को उत्सुक हो।
हर छुट्टी पर गाँव आकर पेड़ लगाने का सिलसिला यूँही चलता रहा पर गिरीन्द्रनाथ अपने बाबूजी के आगे गाँव में ही बस जाने की बात का उल्लेख न कर सके। पर नियति को कुछ और ही मंज़ूर था।
2012 में जब गिरीन्द्रनाथ अपनी पत्रकारिता के करियर के शिखर पर थे, अचानक एक दिन उनके बाबूजी को ब्रेन हैमरेज होने की खबर आई।
गिरीन्द्रनाथ तुरंत अपने परिवार समेत चनका की ओर रवाना हो गए। और इसके बाद बाबूजी की सेवा और उनके पुश्तैनी 17 बीघा ज़मीन की देख रेख के लिए गाँव में ही बस जाने की उनकी जिद्द के आगे उनके बाबूजी की एक न चली।
गिरीन्द्रनाथ की पत्नी प्रिया ने भी इस फैसले में उनका पूरा साथ दिया। दिल्ली के किसी बड़े मॉल के कॉफ़ी शॉप से शुरू हुई ये प्रेम कहानी अब चनका के खेत खलिहानों तक पहुँच गयी थी। पर अचरज ये था कि जहाँ युवा पीढ़ी आज गाँव से पलायन करने का बस मौका भर ढूंडती है वही ये युवा जोड़ा शहर की चकाचौंध को छोड़ यहाँ गाँव की पगडंडियों में बेहद खुश था।
इनके प्यार में इस बदलाव की पूरी कहानी गिरिद्रनाथ द्वारा लिखी लप्रेक श्रृंखला की पुस्तक ‘प्यार में माटी सोना’ में पाई जाती है। गिरीन्द्रनाथ के इस पुस्तक का विमोचन प्रसिद्द पत्रकार रवीश कुमार ने किया है और उनके इस पुस्तक को देश विदेश में काफी ख्याति प्राप्त हुई है।
गिरीन्द्रनाथ अब अपने गाँव तो आ गए थे पर अब भी उनका शहर को गाँव की ओर खींचने का सपना अधुरा था। इसके लिए उन्होंने सबसे पहले गाँव से शहरो की ओर हो रहे पलायन को रोकने की ठानी। जिन-जिन परिवारों को ज़मीन खो देने की वजह से गाँव से पलायन करना पड़ रहा था उन परिवारों के आगे गिरीन्द्रनाथ ने अपनी ज़मीन पर खेती करने का प्रस्ताव रखा। इस तरह गाँव में साझेदारी पर खेती होने लगी। पर खेती में नुकसान होने का दूसरा सबसे बड़ा कारण था नशा। गांव के कई पुरुषो को पीने की लत थी, जिसके चलते वो जितना कमाते वो सब इस लत के ऊपर खर्च कर देते।
ऐसे में गिरीन्द्रनाथ ने सबसे पहले इन नशेबाजो के बच्चो से दोस्ती की। उन्हें नशे से होने वाले दुश्परिनामो पर आधारित कई डाक्यूमेंट्री फिल्मे दिखाई और समझाया कि उन्हें अपने पिता को इससे रोकना चाहिए। जब बच्चो ने बीड़ा उठाया तो उनकी माताएं भी गिरीन्द्रनाथ से सलाह मांगने आने लगी। और अब इन अबला समझी जानेवाली महिलायों ने अपने घर में ही नशामुक्ति के लिए जंग छेड़ दी। धीरे धीरे गाँव में बदलाव की लहर दौड़ने लगी और गाँव पूरी तरह नशामुक्त हो गया। इसके साथ ही गाँव से पलायन का सिलसिला भी थमने लगा।
गाँव को शहर जाने से तो गिरीन्द्रनाथ ने रोक लिया था; अब मुद्दा था शहर को गाँव लाकर गाँव से जोड़ने का।
ऐसा गिरीन्द्रनाथ इसलिए चाहते थे ताकि शहर के लोगों में गाँव के प्रति जो गलत धारणाएं है वो दूर हो। लोग अपनी धरोहर को पहचाने और उसे बचाए रखने की कोशिश भी करे। ये सब तभी संभव था जब गाँव में कुछ ऐसा होता जो शहरियों को अपनी और खींचता।
“अक्सर गाँव की छबी एक दुखदायी जगह की होती है, जहाँ गरीबी है, भुखमरी है, कीचड है और सिर्फ असुविधाएं है। पर दुःख कहाँ नहीं होता? आपको शहरो में जब नौकरी में इंसेंटिव नहीं मिलता तब दुःख नहीं होता? बस गाँव भी वैसा ही है; यहाँ दुःख तो है पर शान्ति भी है, सुख भी है और माटी की खुशबू का मज़ा भी है। मैं शहर की गाँव के प्रति इसी मानसिकता को बदलना चाहता हूँ,” गिरीन्द्रनाथ कहते है।
अब तक गाँव के करीब 600 बच्चो से गिरीन्द्रनाथ की पक्की दोस्ती हो चुकी थी। वो उन्हें रोज़ पढ़ाते और साथ में टेक्नोलॉजी के थोडा-थोडा समीप भी ला रहे थे। इसी बात का उल्लेख उन्होंने पटना UNICEF द्व्रारा आयोजित एक समारोह में किया। उन्होंने आग्रह किया कि UNICEF का अगला फिल्म फेस्टिवल किसी बड़े शहर के बजाय चनका में किया जाये। गिरीन्द्रनाथ की कोशिश सफल हुई और 2015 का UNICEF का बाल चित्र महोत्सव चनका में आयोजित किया गया।
पुरे देश से मीडिया यहाँ इकठ्ठा हुई और चनका को एक अलग पहचान मिली।
इसके बाद गिरीन्द्रनाथ ने मीडिया को चनका बुलाने का सिलसिला जारी रखा। वे हर साल यहाँ सोशल मीडिया मीट करते है जिसमे पत्रकारों और कलाकारों के अलावा गाँव के भी लोग आलोचनाओं में शामिल होते है। इससे शहर और गाँव दोनों को ही एक दुसरे को जानने का मौका मिलता है।
साथ ही गिरीन्द्रनाथ ने लिखना कभी नहीं छोड़ा। अपने ब्लॉग ‘अनुभव’ के ज़रिये वे लोगो तक चनका की बातें पहुंचाते रहे। अनुभव को साल 2015 में एबीपी न्यूज़ और दिल्ली सरकार की ओर से सर्वश्रेष्ठ हिंदी ब्लॉग का भी सम्मान प्राप्त है। इसके अलावा गिरीन्द्रनाथ राजनितिक और सामाजिक विषयों पर एनडीटीवी, बीबीसी और जागरण जैसी कई अखबारों और न्यूज़ वेबसाइट के लिए लिखते है। इससे वे बाहरी दुनियां से खुद भी जुड़े रहते है और चनका को भी जोड़े रखते है।
गिरीन्द्रनाथ कहते है कि गाँव में रहना उनके लिए इसलिए आसान है क्यूंकि उनकी ज़रूरतें बहुत कम है। शौक के नाम पर उन्हें सिर्फ इन्टरनेट का नशा है, जो उन्हें बाहरी दुनिया से जोड़े रखता है।
“गाँव मुझे अपने आप से जोड़ता है और इन्टरनेट बहार की दुनियां से। ये इन दोनों का मेल ही है जो मेरे जीवन को इतना मजेदार बनाए हुए है,” वे हँसते हुए कहते है।
गिरीन्द्रनाथ के लेखन के ज़रियें दुनियां चनका को जानने लगी थी। वैज्ञानिक यहाँ शोध करने के लिए आते। रवीश कुमार से लेकर राजदीप सरदेसाई तक इस पत्रकार से किसान बने शख्स के गाँव पर शो बना चुके थे। पर अब भी कुछ बाकी था।
“मैं चाहता था कि शहर के लोग गाँव को करीब से जाने। विदेशो में न जाकर गाँव में आकर अपनी छुट्टी मनाये। यहाँ रहे, यहाँ का खाना खाए, यहाँ का लोकसंगीत सुने।“
इस मकसद को पूरा करने के लिए गिरीन्द्रनाथ ने चनका रेसीडेन्सी की नीव रखी। जो कदंब के पेड़ वो 2006 से लगा रहे थे उसकी संख्या अब 1000 तक पहुँच गयी थी।
ये पेड़ आसमान को छुने लगे थे। वहां पंछी आने लगे थे। एक अद्भुत आभा से भरी धरती का निर्माण हो चूका था। अब देर थी तो बस एक ऐसे डेरे की जहाँ इन वादियों का मज़ा लेने के लिए लोग आकर रह सकें।
गिरीन्द्रनाथ ने इन सभी पेड़ो के बीचोबीच अपनी सारी पूंजी लगाकर एक घर बनाया और नाम दिया चनका रेसीडेन्सी। अब इस स्वर्ग जैसे घर में रहने के लिए शहर से मेहमान आने लगे है। ये मेहमान गाँव का खाना खाते है, यहाँ का संगीत सुनते है और यहाँ की मिट्टी की खुशबू में बसे सुख का आनंद लेते है। इससे शहर में रहने वाले लोग अपनी मिट्टी से तो जुड़ते ही है साथ ही गांववालों को भी कमाई का एक और ज़रियाँ मिलता है, जो किसानी कर रहे लोगो के लिए बेहद ज़रूरी है। इसके अलावा गाँव और शहर की वो दूरी मिटती है जो केवल इन्टरनेट के माध्यम से ही जुड़ पाते थे।
चनका रेसीडेन्सी के पहले मेहमान थे इयान वुलफर्ड। इयान मूल रूप से अमेरिकी हैं और ऑस्ट्रेलिया के ला ट्रोब यूनिवर्सिटी में हिंदी के प्रोफेसर हैं।
आजकल वे हिंदी साहित्य के महान लेखक फणीश्वर नाथ रेणु पर किताब लिख रहे है। रेणु के बारे में लिखने के लिए पूर्णिया जिले से अच्छी कौनसी जगह होती। इसलिए इयान ने पूर्णिया जिले में बसे चनका रेसीडेन्सी का नाम सुनते ही यहाँ का रुख किया।
“बिहार के गांव में रेसीडेंसी एक अनोखा प्रयोग है, युवा किसान गिरिंद्रनाथ झा का. मैं 2005 में पहली बार बिहार आया था। फिर इसके बाद लगातार आता रहा हूं। इस बार चनका रेसीडेंसी में ‘गेस्ट राइटर’ बनकर आया हूं। इस बार पूर्णिया यात्रा में देख रहा हूं कि लोगों में मानसिक बदलाव आया है। कुछ बदलाव जो दिख रहे हैं, मसलन सड़क, बिजली, शिक्षा वगैरह! लेकिन सबसे बड़ी चीज़ जो मैं महसूस कर रहा हूं वो है लोगों की सोच में अंतर आया है। पहले बढ़ते अपराध की घटनाओं को लेकर, स्कूली शिक्षा को लेकर, कृषि में नए प्रयोग को लेकर सवाल किए जाते थे. इस बार देख रहा हूं कि सब कुछ में बदलाव आया है,” इयान कहते है।
चनका रेसीडेंसी की मेहमानों की फेहरिस्त में डेविड और लिंडसे फ्रेनसेन का भी नाम है यह अमेरिकी जोड़ा साइकिल से दुनिया को नाप रही है, वो भी लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरुक करने के लिए। तुर्की से इनकी यात्रा शुरु होती है और चीन-नेपाल होते हुए ये पूर्णिया में दाखिल होते हैं और पहुंच जाते हैं आपके किसान के घर। एक डाक्यूमेंट्री फिल्म के सिलसिले में उन्होंने Chanka के लोगों से लंबी बातचीत की और यहाँ के पेड़-पौधों के संग वक्त बिताया।
गिरीन्द्रनाथ अब इस प्रोजेक्ट को और आगे बढ़ाना चाहते है जिसके लिए उन्हें आप सभी के सहयोग की ज़रूरत है।
“खेत-खलिहान म्यूज़ियम बनाने की योजना है। इस म्यूज़ियम में हम गाँव के उन समानों को इकट्ठा करेंगे जिसका पहले किसानी काम में प्रयोग हुआ करता था, मसलन- लकड़ी का हल, बैलगाड़ी, मसाला पिसने वाला पत्थर, आदिवासी समाज के उपकरण, संगीत के साज, पेंटिंग आदि। इन सामानों को डिस्पले करने के लिए हॉल बनाने की योजना है। यह सब तैयार करने के लिए अनुमानित बजट चार लाख रुपए का है,” गिरीन्द्रनाथ ने बताया। जहाँ तक रेसीडेंसी के ख़र्च का सवाल है, तो उसमें और अधिक लोग ठहरें, इसके लिए भी फ़ंड की आवश्यकता है। अनुमानित बजट दस लाख रुपए का है, जिसमें पुस्तकालय और आवास की सुविधा शामिल होगी।
(साभार – द बेटर इंडिया)