नमस्ते भारत – हिमाचल की शान है कुल्लू टोपी

यूं तो ताज राजा महाराजा ही पहना करते थे लेकिन हिमाचल जैसे पहाड़ी क्षेत्रों में हर शख्स खुद राजा है और राजा की तरह ही ताज पहनता है. फर्क सिर्फ इतना है कि यह ताज हीरे-मोतियों से जड़ा नहीं होता बल्कि नरम मुलायम ऊन, पशम और मखमल से बना होता है. यह है हिमाचली परिधान का अभिन्न अंग टोपी। पहाड़ियों के सिर का ताज यह टोपी न केवल सर्दियों से बचाती है बल्कि अपनी अनूठी संस्कृति और पहनावे की परिचायक भी है. यह अलग बात है कि आज राजनीति के लोभियों ने इस टोपी को राजनीतिक रंग देने से भी गुरेज नहीं किया।

किन्नौरी, बुशहरी और कुल्लुवी टोपी

हिमाचल प्रदेश में मुख्य रूप से तीन तरह की टोपियां प्रचलन में हैं । इनमें किन्नौरी, बुशहरी व कुल्लुवी टोपी शामिल हैं. इनमे सबसे ऊपर है किन्नौरी टोपी. किन्नौरी व बुशहरी टोपी में बड़ा ही मामूली सा अंतर है । मुख्यतः तीन अंतर हैं, पहला किन्नौरी टोपी में मखमल की पट्टी चौड़ी होती है जबकि बुशहरी टोपी में कम चौड़ी।  दूसरा टोपी के किनारे किन्नौरी के तीखे तो बुशहरी के गोल होते हैं । तीसरा टोपी के मखमल के साथ लगने वाली मगज़ की पट्टी जो किन्नौरी में तीन पट्टियां तो बुशहरी में दो पट्टियां होती है । ये अंतर इतना कम होता है कि केवल जानकार ही पहचान सकते हैं जबकि दोनों ही एक समान नजर आती हैं । इसके अलावा कुल्लुवी, भरमौरी, सिरमौरी, लाहुली, नेहरू, चम्बायाली और ठियोगी आदि टोपियां कई तरह के अलग अलग रंगों व डिजाइनों में पूरे हिमाचल में प्रचलित हैं ।

कुल्लवी टोपी जिसे हिमाचली टोपी भी कहा जाता है। इस टोपी ने देश-विदेश में अपनी अलग पहचान बनाई है। यदि ये टोपी किसी के सिर पर सजी है तो दुर से ही पता लगा जाता है की ये हिमाचली टोपी है। प्रधानमंत्री तक इस टोपी के कायल हैं। इस टोपी को तो सभी जानते-पहचान हैं। लेकिन बहुत कम लोग होंगे जो ये जानते हैं कि इस टोपी को  पहचान दिलवाने वाला स्वर्गीय दीनानाथ भारद्वाज थे। देश की आजादी से पहले 1942 से दीनानाथ भारद्वाज ढालपुर कुल्लू में नमदे बनाने की दुकान किया करते थे जो 1962 तक इसी व्यवसाय से जुड़े रहे। उनका बनाया निमदा उस समय 9-10 रूपये में बिकता था। ये निमदे  विदेशी व अमीर लोग ही खरीदा करते थे। एक बार किसी को बेचा हुआ निमदा कुछ त्रुटी के कारण वापिस आ गया। जिससे दीनानाथ  बहुत दुखी हुए।  उन्होने निमदे के टुकड़े काट कर उसमें शनील का कपड़ा लगा कर नई किस्म की टोपियां बना डाली जिसे आज कुल्लवी टोपी के नाम से जाना जाता है।

उस वक़्त टोपियां 2.50 – 3.00 रूपये में बिकती थी। ये टोपियाँ लोगों ने बहुत पसंद की। यहीं से कुल्लवी टोपी अस्तित्व में आ गई। वक़्त के बदलाव के साथ टोपियों की बनावट में परिवर्तन आते रहे। कहा जाता है कि तत्कालीन प्रधानमन्त्री ज्वाहर लाल नेहरू व इंदिरा गांधी कुल्लू से होते हुए मनाली को जा रहे थे, रास्ते में ढालपुर में लोगों ने उनका भव्य स्वागत किया। लोगों ने उन्हे हार पहनाए लेकिन भारद्वाज जी ने कुल्लवी टोपी पहनाकर सम्मानित किया था। इंदिरा गांधी को वह टोपी इतनी पसन्द आई कि मनाली से वापिस जाते हुए वह बहुत सी टोपियां अपने नाती पोतियों के लिए ले गई।

कुल्लू- मनाली में फिल्माई फिल्म ‘बदनाम’ में भी कुल्लवी टोपी को दिखाया गया है। दीनानाथ भारद्वाज का देहान्त 27 मार्च 2003 को हुआ। लेकिन उनके द्वारा शुरू की गई कुल्लवी टोपी की पहचान आज विश्व भर में अगल ही है। हालांकि किन्नौरी टोपी का इतिहास कुल्लवी टोपी से भी प्राचीन है। यही से दीनानाथ  भारद्वाज को कुल्लवी टोपी बनाने का विचार आया था। ऐतिहासिक रूप से हिमाचली टोपी, किन्नौर से लेकर पूर्व की रियासत बुशहर राज्य के कुछ हिस्सों में फैली हुई थी।

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