तीन आपराधिक विधेयक बने कानून और पीछे छूटी ब्रिटिश औपनिवेशिक गुलामी

शुभजिता फीचर डेस्क

लोकसभा एवं राज्यसभा में को तीन नए आपराधिक विधेयक पारित हो गए और राष्ट्रपति ने भी इसे मंजूरी दे चुकी है। इससे जल्द न्याय मिलने की आस जगी है। भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की जगह लेने वाले भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम में कई जरुरी प्रावधान किए गए हैं। इसमें इलेक्ट्रॉनिक तरीके से लिए गए बयान और रिकॉर्ड को साक्ष्य और दस्तावेज के रूप में शामिल किया गया है। इससे साक्ष्य के तौर पर टेक्नोलॉजी का भरपूर इस्तेमाल किया जाएगा। भविष्य के लिए, मोबाइल, कैमरा, सर्वर, आईएमआई, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग आदि का भरपूर इस्तेमाल होगा। साथ ही हिरासत की सूची सभी पुलिस थानों पर रखनी होगी। इसको हर 24 घंटे में अपडेट किया जाएगा। अब जानकारी छुपाने पर थानेदार पर कार्रवाई और पदोन्नति रुक जाएगी। 4 साल पहले ही कानून में सुधार की पटकथा लिख दी गई थी, जानते हैं इन परिवर्तनों के बारे में –
7 साल से ज्यादा सजा के सभी मामलों में फोरेंसिक अनिवार्य – वहीं फोरेंसिक साइंस 7 साल से ज्यादा सजा के सभी केस में अनिवार्य होगा। जमानत, बॉन्ड और आतंकवाद की कानूनी परिभाषा पहली बार दी गयी। अब राजद्रोह की जगह देशद्रोह होगा। किसी भी व्यक्ति के खिलाफ बोलना, लिखना या कहना राजद्रोह की श्रेणी में नहीं आएगा। इसके अलावा पहली बार मॉब लिंचिंग पर अधिकतम फांसी की सजा का प्रवधान किया गया है। मॉब लिंचिग को पारिभाषित करते हुए कहा गया है कि अगर 5 से ज्यादा लोग गुनाह में शामिल हैं.
45 दिन अंदर निचली अदालत को देना होगा फैसला – अब देश द्रोह कर विदेश भागे हुए अब्सकॉन्डर के लिए ट्रायल हो सकेगा। सजायाफ्ता होने के बाद इससे समझौते के जरिए विदेशों से देश में वापस ला पाना आसान होगा। पॉक्सो Pocso में 15 को 18 कर दिया गया था मगर सीआरपीसी में फांसी नहीं थी। डायरेक्टर ऑफ प्रॉसिक्यूशन, अब पीपी मनमानी कर पायेगा। वहीं कानून से फिलहाल अवैध सम्बन्धों यानी विवाहेतर सम्बन्धों को हटा दिया गया है। आईपीसी के धारा 304 के तहत गैर इरादतन मौत पर डॉक्टर को महज 2 साल की सजा होगी बाकि सबको 10 साल की सजा का प्रावधान है। अब मामले की सुनवाई पूरी होने के बाद 45 दिन अंदर निचली अदालत को फैसला सुनाना होगा उसके 7 दिन के अंदर सजा देनी होगी। अब निचली अदालत के वकील को सिर्फ दो ही तारीखें मिलेंगी।
नए कानून में बदलाव की प्रमुख बातें
परामर्श की प्रक्रिया – आपराधिक न्याय प्रणाली के कानूनों में सुधार की यह प्रक्रिया 2019 में प्रारंभ की गई थी। विभिन्न हितधारकों से इस संदर्भ में सुझाव मांगे गए। 2019 को यह गृह मंत्रालय ने इस सुधार प्रक्रिया की शुरुवात की। गृहमंत्री ने सितम्बर 2019 में सभी राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों, उपराज्यपालों/प्रशासकों को पत्र लिखा। जनवरी 2020 में भारत के मुख्य न्यायाधीश, हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों, बार काउंसिलों और विधि विश्वविद्यालयों और दिसम्बर 2021 में माननीय संसद सदस्यों से भी सुझाव मांगे गए। बीपीआरडी ने सभी IPS अधिकारियों को सुझाव मांगे। मार्च 2020 को नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली के कुलपति की अध्यक्षता में एक समिति भी गठित की गई। इसमें कुल 3200 सुझाव प्राप्त हुए । 18 राज्यों, 06 संघ राज्य क्षेत्रों, भारत के सुप्रीम कोर्ट, 16 उच्च न्यायालयों, 27 न्यायिक अकादमियों- विधि विश्वविद्यालयों, संसद सदस्यों, आईपीएस अधिकारियों, पुलिस बलों ने भी सुझाव भेजे। गृह मंत्री ने 150 से ज्यादा बैठकें की. इन सुझावों पर गृह मंत्रालय में गहन विचार-विमर्श किया गया.
परिवर्तन यात्रा
भारतीय न्याय संहिता- इसमें 358 धाराएं होंगी (आईपीसी की 511 धाराओं के स्थान पर)। 20 नए अपराधों को जोड़ा गया है। 33 अपराधों में कारावास की सजा को बढ़ाया गया है। 83 अपराधों में जुर्माने की सजा राशि को बढ़ाया गया है। 23 अपराधों में अनिवार्य न्यूनतम सजा शुरु की गई है। 6 अपराधों में सामुदायिक सेवा का दंड शुरु किया गया है। 19 धाराएं निरस्त/हटा दी गई हैं.
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता – इसमें 531 धाराएं होंगी। (सीआरपीसी की 484 धाराओं के स्थान पर) कुल 177 प्रावधानों में बदलाव हुआ है। 9 नए सेक्शन, 39 नए सब-सेक्शन जोड़े गए हैं तथा 44 नए प्रोविजन तथा स्पष्टीकरण जोड़े गए हैं। 35 सेक्शन में समयसीमा जोड़ी गई है। 35 जगह पर ऑडियो-विडियो का प्रावधान जोड़ा गया है। 14 धाराएं निरस्त/हटा दी गई हैं.
भारतीय साक्ष्य अधिनियम- इसमें 170 धाराएं होंगी (मूल 167 धाराओं के स्थान पर)। कुल 24 धाराओं में बदलाव किया गया है। 2 नई धारा, 6 उप-धाराएं जोड़ी गई हैं तथा 6 धाराएं निरस्त/हटा दी गई हैं।

भारतीय न्याय संहिता की प्रमुख बातें
भारतीय जरूरतों के अनुसार प्राथमिकता – ब्रिटिश शासन को मानव-वध या महिलाओं पर अत्याचार से महत्त्वपूर्ण राजद्रोह और खजाने की रक्षा थी। इन तीन कानूनों में महिलाओं और बच्चों के प्रति अपराधों, हत्या और राष्ट्र के विरुद्ध अपराधों को प्रमुखता दी गई है। इन कानूनों की प्राथमिकता भारतीयों को न्याय देने का है। उनके मानवाधिकारों के रक्षा की है।
महिलाओं और बच्चों के प्रति अपराध – भारतीय न्याय संहिता ने यौन अपराधों से निपटने के लिए ‘महिलाओं और बच्चों के प्रति अपराध’ नामक एक नया अध्याय पेश किया है। विधेयक में 18 वर्ष से कम उम्र की महिलाओं के बलात्कार से संबंधित प्रोविजन में बदलाव का प्रस्ताव कर रहा है.
नाबालिग महिलाओं के सामूहिक बलात्कार को पॉक्सो के साथ सुसंगत बनाता है। 18 वर्ष से कम आयु की बच्चियों के मामले में आजीवन कारावास या मृत्यु दण्ड का प्रावधान किया गया है। सामूहिक दुष्कर्म के सभी मामलों में 20 साल की सजा या आजीवन कारावास का प्रावधान है। 18 वर्ष से कम उम्र की स्त्री के साथ सामूहिक बलात्कार का एक नयी अपराध श्रेणा होगी। धोखे से यौन संबंध बनाने या विवाह करने के सच्चे इरादे के बिना विवाह करने का वादा करने वाले व्यक्तियों के लिए लक्षित दंड का प्रावधान करता है।
आतंकवाद – भारतीय न्याय संहिता में पहली बार आतंकवाद की व्याख्या की गई है. इसे दंडनीय अपराध बना दिया गया है। व्याख्या के अनुसार भारतीय न्याय संहिता खंड 113. (1) – जो कोई, भारत की एकता, अखंडता, संप्रभूता, सुरक्षा या आर्थिक सुरक्षा या प्रभुता को संकट में डालने या संकट में डालने की संभावना के आशय से या भारत में या किसी विदेश में जनता अथवा जनता के किसी वर्ग में आतंक फैलाने या आतंक फैलाने की संभावना के आशय से बमों, डाइनामाइट, विस्फोटक पदार्थों, अपायकर गैसों, न्यूक्लीयर का उपयोग करके ऐसा कार्य करता है, जिससे, किसी व्यक्ति या व्यक्तियों की मृत्यु होती है। संपत्ति की हानि होता है, या करेंसी के निर्माण या उसकी तस्करी या परिचालन तो वह आतंकवादी कार्य करता है।
आतंकी कृत्य मृत्युदंड या आजीवन कारावास के साथ दंडनीय है, जिसमें पैरोल नहीं होगा। आतंकी अपराधों की एक श्रृंखला भी पेश की गई है। सार्वजनिक सुविधाओं या निजी संपत्ति को नष्ट करना अपराध है। ऐसे कृत्यों को भी इस खंड के तहत शामिल किया गया है, जिनसे ‘महत्वपूर्ण अवसंरचना की क्षति या विनाश के कारण व्यापक हानि’ होती है.
संगठित अपराध (ऑर्गनाइज्ड क्राइम) – संगठित अपराध से संबंधित एक नई दांडिक धारा जोड़ी गयी है। भारतीय न्याय संहिता 111. (1) में पहली बार संगठित अपराध की व्याख्या की गयी है। सिंडिकेट से की गई विधिविरुद्ध गतिविधि को दंडनीय बनाया है। नए प्रावधानों में सशस्त्र विद्रोह, विध्वंसक गतिविधियां, अलगाववादी गतिविधियां अथवा भारत की संप्रभुता या एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाले कृत्य को जोड़ा गया है। संगठित अपराधों को भी अपराध घोषित किया गया है, जिसके लिए 7 साल तक की कैद हो सकती है. इससे संबंधित प्रावधान खंड 112 में हैं। आर्थिक अपराध की व्याख्या भी की गई है : करेंसी नोट, बैंक नोट और सरकारी स्टापों का हेरफेर, कोई स्कीम चलाना या किसी बैंक/वित्तीय संस्था में गड़बड़ ऐसे कृत्य शामिल हैं। संगठित अपराध में, किसी व्यक्ति की मृत्यु हो गई है, तो आरोपी को मृत्यु दंड या आजीवन कारावास की सजा होगी। जुर्माना भी लगाया जाएगा, जो 10 लाख रुपये से कम नहीं होगा। संगठित अपराध में सहायता करने वालों के लिए भी सजा का प्रावधान किया गया है।


अन्य महत्त्वपूर्ण प्रावधान
मॉब लिंचिंग का नया प्रावधान – नस्ल, जाति, समुदाय आदि के आधार पर की गई हत्या से संबंधित अपराध का एक नया प्रावधान सम्मिलित किया गया है जिसके लिये आजीवन कारावास अथवा मृत्युदंड की सजा का प्रावधान किया गया है।
स्नैचिंग का भी एक नया प्रावधान – गंभीर चोट के कारण लगभग निष्क्रिय स्थिति में जाने अथवा स्थाई रूप से विकलांग होने पर अब और अधिक कठोर दंड दिये जाएंगे.
पीड़ित पर केन्द्रित- क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में विक्टिम-सेंट्रिक यानी पीड़ित पर केंद्रित सुधारों के 3 प्रमुख फीचर्स होते हैं। भागीदारी का अधिकार (विक्टिम को अपनी बात रखने का मौका, बीएनएसएस 360), सूचना का अधिकार (BNSS खंड 173, 193 और 230), नुकसान के लिए क्षतिपूर्ति का अधिकार
यह तीनों विशेषताएं नए कानूनों में सुनिश्चित की गयी हैं। इसके अलावा जीरो एफआईआर दर्ज करने की प्रथा को संस्थागत बना दिया गया है ( बीएनएनएस 173). वहींFIR कहीं भी दर्ज कर सकते हैं, भले ही अपराध किसी भी इलाके में हुआ हो।
पीड़ित को सूचना का अधिकार – पीड़ित को एफआईआर की एक प्रति निःशुल्क प्राप्त करने का अधिकार होगा। पीड़ित को 90 दिनों के भीतर जांच में प्रगति के बारे में सूचित करना होगा। पीड़ितों को पुलिस रिपोर्ट, एफआईआर, गवाह के बयान आदि के अनिवार्य प्रावधान के माध्यम से उनके मुकदमे के ब्योरे की जानकारी का एक महत्वपूर्ण अधिकार प्रदान करता है। जांच और मुकदमे के विभिन्न चरणों में पीड़ितों को जानकारी प्रदान करने के लिए उपबंध शामिल किए गए हैं.
देशद्रोह – राजद्रोह – सेडीशन को पूर्णतः हटा दिया गया है। भारतीय न्याय संहिता धारा 152 में अपराध : अलगाववादी गतिविधियों की भावनाओं को प्रोत्साहित करना है. भारत की संप्रभुता या एकता और अखंडता को खतरे में डालता है। आईपीसी धारा 124क में सरकार के खिलाफ की बात की गयी है, मगर भारतीय न्याय संहिता धारा 152 भारत की संप्रभुता या एकता और अखंडता के बारे में हैं। आईपीसी में आशय या प्रयोजन की बात नहीं थी, लेकिन नए कानून में देशद्रोह की परिभाषा में आशय की बात है, जिसमें अभिव्यक्ति स्वतंत्रता हेतु सुरक्षा प्रदान करता है। अब घृणा, अवमानना जैसे शब्दों को हटाकर सशस्त्र विद्रोह, विध्वंसक गतिविधियां, अलगाववादी गतिविधियां जैसे शब्द सम्मिलित किये गए हैं.
भारतीय न्याय संहिता धारा 152 – जो कोई, जानबूझकर या प्रयोजन पूर्वक, बोले गए या लिखे गए शब्दों से, या संकेतों द्वारा, या दृश्य प्रतिनिधित्व द्वारा, या इलेक्ट्रॉनिक संचार द्वारा या वित्तीय साधनों के उपयोग से, या अन्यथा, अलगाव या सशस्त्र विद्रोह या विध्वंसक गतिविधियों को उत्तेजित करता है या उत्तेजित करने का प्रयास करता है, या अलगाववादी गतिविधियों की भावनाओं को प्रोत्साहित करता है या भारत की संप्रभुता या एकता और अखंडता को खतरे में डालता है; या ऐसे किसी भी कार्य में शामिल होता है या करता है तो उसे आजीवन कारावास या कारावास जिसे सात साल तक बढ़ाया जा सकता है, से दंडित किया जाएगा और जुर्माना भी लगाया जा सकता है।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की प्रमुख समय सीमा – आपराधिक कार्यवाही शुरू करने, गिरफ्तारी, जांच, आरोप पत्र, मजिस्ट्रेट के समक्ष कार्यवाही, कोग्निज़ंस, चार्जेज, प्ली बारगेनिंग, सहायक लोक अभियोजक की नियुक्ति, ट्रायल, जमानत, जजमेंट और सजा, दया याचिका आदि के लिए एक समय-सीमा निर्धारित की गई है।
35 सेक्शन में समय सीमा जोड़ी गई है, जिससे त्वरित न्याय प्राप्त हो सके। बीएनएसएस में, इलेक्ट्रॉनिक कम्युनिकेशन के माध्यम से शिकायत देने वाले व्यक्ति द्वारा तीन दिनों के भीतर एफआईआर को रिकॉर्ड पर लिया जाना होगा। यौन उत्पीड़न के पीड़ित की चिकित्सा जांच रिपोर्ट मेडिकल एग्जामिनर द्वारा 7 दिनों के भीतर जांच अधिकारी को फॉरवर्ड की जाएगी.
पीड़ितों/मुखबिरों को जांच की स्थिति के बारे में सूचना 90 दिनों के भीतर दी जाएगी। आरोप तय करने का काम सक्षम मजिस्ट्रेट द्वारा आरोप की पहली सुनवाई से 60 दिनों के भीतर किया जाना होगा। मुकदमे में तेजी लाने के लिए, अदालत द्वारा घोषित अपराधियों के खिलाफ अनुपस्थिति में मुकदमा शुरू करना आरोप तय होने से 90 दिनों के भीतर होगा।
किसी भी आपराधिक न्यायालय में मुकदमे की समाप्ति के बाद निर्णय की घोषणा 45 दिनों से अधिक नहीं होगी। सत्र न्यायालय द्वारा बरी करने या दोषसिद्धि का निर्णय बहस पूरी होने से 30 दिनों के भीतर होगा, जिसे लिखित में मेंशनड कारणों के लिए 45 दिनों तक बढ़ाया जा सकता है.
महिलाओं के प्रति अपराध – ई – एफआईआर के माध्यम से महिलाओं के प्रति अपराधों की रिपोर्टिंग के लिए एक परिवर्तनकारी दृष्टिकोण पेश किया गया है। संवेदनशील अपराधों की त्वरित रिपोर्टिंग में सहायता करता है। नए विधेयक उन संज्ञेय अपराधों के लिए e-FIR की भी अनुमति देते हैं जहां आरोपी अज्ञात होता है। इलेक्ट्रॉनिक प्लेटफॉर्म पीड़ितों को अपराध की रिपोर्ट करने के लिए एक विवेकशील अवसर प्रदान करता है.
जांच की प्रगति: शिकायतकर्ता को सूचना और इलेक्ट्रॉनिक पारदर्शिता – पारंपरिक प्रचलन से हटकर पुलिस के लिए सख्ती से 90 दिनों के भीतर जांच की प्रगति के संबंध में शिकायतकर्ता बताना जरूरी है।
समय पर ट्रायल: स्थगन और समयसीमा का मार्गदर्शन – न्यायिक क्षेत्र में दो चीज़ों पर बल दिया जा रहा है. सुनवाई में तेजी लाना और अनुचित स्थगन पर अंकुश लगाना। धारा 392 (1) में 45 दिनों के भीतर निर्णय की बात करते हुए मुकदमे को खत्म करने के लिए बेहतर ढंग से एक समयसीमा निर्धारित की गई है। न्याय में विलंब का अर्थ न्याय से वंचित होना है।
तकनीक के इस्तेमाल को बढ़ाना – दुनिया की सबसे आधुनिक न्याय प्रक्रिया बनाने पर जोर दिया गया है। क्राइम सीन – इन्वेस्टीगेशन – ट्रायल तक सभी चरणों में टेक्नोलॉजी का उपयोग हो सकेगा। पुलिस जांच में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित होगी। सबूतों की गुणवत्ता में सुधार होगा तथा विक्टिम और आरोपियों दोनों के अधिकारों की रक्षा होगी। यह क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम को आधुनिक बनाने की दिशा में एक सकारात्मक कदम है। एफआईआर से केस डायरी, केस डायरी से चार्जशीट तथा जजमेंट सभी डिजिटाइज्ड हो जायेंगे। सभी पुलिस थानों और न्यायालयों द्वारा एक रजिस्टर द्वारा ई-मेल एड्रेस, फोन नंबर अथवा ऐसा कोई अन्य विवरण रखा जाएगा। प्रमाण, तलाशी व जब्ती में रिकॉर्डिंग होगी। ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग अनिवार्य होगी। ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग ‘अविलंब’ मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत की जाए। फोरेंसिक साक्ष्य एकत्र करने की प्रक्रिया की वीडियोग्राफी की आवश्यकता होगी। पुलिस जांच के दौरान दिए गए किसी भी बयान की ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग का विकल्प होगा।
फोरेंसिक – 7 वर्ष या उससे अधिक की सजा वाले सभी अपराधों में ‘फोरेंसिक एक्सपर्ट’ द्वारा क्राइम सीन पर फोरेंसिक प्रमाण संग्रह अनिवार्य होंगे। इससे जांच की गुणवत्ता में सुधार होगा और जांच वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित होगी। 100% कन्विक्शन रेट का लक्ष्य रखा गया है। सभी राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों में फोरेंसिक के इस्तेमाल को जरूरी बताया गया है। राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों में जरुरी संरचना 5 वर्ष के भीतर तैयार की जानी है।
पहल – नेशनल फॉरेंसिक साइंस यूनिवर्सिटी (एनएफएसयू) की स्थापना पर फोकस। एनएफएसयू के कुल 7 परिसर और 2 ट्रेनिंग अकादमी (गांधीनगर, दिल्ली, गोवा, त्रिपुरा, गुवाहाटी, भोपाल, धारवाड़), सीएफएसएल पुणे एवं भोपाल में नेशनल फोरेंसिक साइंस अकादमी की शुरुआत। चंडीगढ़ में अत्याधुनिक डीएनए विश्लेषण सुविधा का उद्घाटन.
सर्च और जब्ती – पुलिस द्वारा सर्च और जब्ती की कार्यवाही करने के लिए भी तकनीक का उपयोग किया जाएगा। । पुलिस द्वारा सर्च करने की पूरी प्रक्रिया अथवा किसी संपत्ति का अधिगृहण करने में इलेक्ट्रानिक डिवाइस के माध्यम से वीडियोग्राफी होगी। पुलिस द्वारा ऐसी रिकार्डिंग बिना किसी विलंब के संबंधित मजिस्ट्रेट को भेजी जाएगी.
पुलिस की जवाबदेही – गिरफ्तार व्यक्तियों की सूचना प्रदर्शित करना: राज्य सरकार को एक पुलिस अधिकारी को नामित करने के लिए अतिरिक्त दायित्व दिया है जो सभी गिरफ्तारियों और गिरफ्तार लोगों के संबंध में जानकारी एकत्र करने के लिए जिम्मेदार होगा। ऐसी जानकारी को प्रत्येक पुलिस स्टेशन और जिला मुख्यालय में प्रमुखता से प्रदर्शित किया जाना भी आवश्यक हैॉ।
प्रक्रियाओं को सरल बनाना – अब छोटे-मोटे मामलों में समरी ट्रायल द्वारा तेजी लाई जाएगी। कम गंभीर मामलों, चोरी, चोरी की गई संपत्ति प्राप्त करना अथवा रखना, घर में अनधिकृत प्रवेश, शांति भंग करने, आपराधिक धमकी आदि जैसे मामलों, के लिए समरी ट्रायल को अनिवार्य बनाया गया है। उन मामलों में जहां सजा 3 वर्ष (पूर्व में 2 वर्ष) तक है, मजिस्ट्रेट लिखित रूप में दर्ज कारणों के अंतर्गत ऐसे मामलों में समरी ट्रायल कर सकता है। सिविल सर्वेन्ट्स के विरुद्ध प्रॉसिक्यूशन चलाने के लिए सहमति या असहमति पर सक्षम अधिकारी 120 दिनों के अंदर निर्णय लेगा, यदि ऐसा न हो, तो यह मान लिया जाएगा कि अनुमति प्रदान हो गई है। सिविल सर्वेन्ट्स, एक्सपर्ट्स, पुलिस अधिकारियों के साक्ष्य उसका प्रभार धारण करने वाला व्यक्ति ऐसे दस्तावेज या रिपोर्ट पर टेस्टीमनी दे सकेगा.
विचाराधीन कैदी – कोई व्यक्ति पहली बार अपराधी है, और एक तिहाई कारवास काट चूका है, तो उसे अदालत द्वारा जमानत पर रिहा कर दिया जाएगा। जहां विचाराधीन कैदी आधी या एक तिहाई अवधि पूरी कर लेता है, जेल अधीक्षक अदालत को तुरंत लिखित में आवेदन दे। विचाराधीन कैदी को आजीवन कारावास या मौत की सजा में रिहाई उपलब्ध नहीं होगी.
गवाहों की सुरक्षा को लेकर योजना – राज्य सरकार राज्य हेतु एक एविडेंस प्रोटेक्शन स्कीम तैयार करेगी और नोटिफाईड भी की जाएगी । घोषित अपराधियों की संपत्ति की कुर्की – 10 वर्ष अथवा अधिक की सजा अथवा आजीवन कारावास अथवा मृत्युदंड की सजा वाले मामलों में दोषी को घोषित अपराधी (प्रोक्लेम्डल ऑफेंडर) घोषित किया जा सकता है। घोषित अपराधियों के मामलों में, भारत से बाहर की संपत्ति की कुर्की और जब्ती के लिए एक नया प्रावधान किया गया है।
पहले केवल 19 अपराधों में ही प्रोक्लेम्ड ऑफेंडर घोषित हो सकते थे, अब इसमें 120 अपराधों को दायरे में लाया गया है. जिसमें बलात्कार के अपराध को शामिल किया गया है, जो पहले शामिल नहीं था।
संपत्तियों का निपटान – देश के पुलिस स्टेशनों में बड़ी संख्या में केस संपत्तियां पड़ी रहती हैं। जांच के दौरान, अदालत या मजिस्ट्रेट द्वारा संपत्ति का विवरण तैयार करने और फोटोग्राफ/वीडियोग्राफी के बाद भी ऐसी संपत्तियों के त्वरित निपटान का प्रावधान किया गया है।
फोटो या वीडियोग्राफी – किसी भी जांच, परीक्षण या अन्य कार्यवाही में साक्ष्य के रूप में उपयोग किया जा सकेगा। फोटो खींचने/वीडियोग्राफी करने के 30 दिनों के भीतर, संपत्ति के निपटान, डिस्ट्रक्शन, जब्ती या वितरण का आदेश देगा।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम- प्रमुख परिवर्तन – भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 में दस्तावेजों की परिभाषा का विस्तार करते हुए इसमें इलेक्ट्रानिक या डिजिटल रिकार्ड, ईमेल, सर्वर लॉग्स, कंप्यूटर पर उपलब्ध दस्तावेज, स्मार्टफोन या लैपटॉप के मैसेजेज, वेबसाइट, लोकेशनल साक्ष्य. इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड ‘दस्तावेज’ की परिभाषा में शामिल हैं। वहीं इलेक्ट्रॉनिक रूप से प्राप्त बयान ‘साक्ष्य’ की परिभाषा में शामिल हैं। इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल रिकॉर्ड को प्राथमिक साक्ष्य के रूप में मानने के लिए और अधिक मानक जोड़े गए जिसमें इसकी उचित कस्टडी-स्टोरेज-ट्रांसमिशन-ब्रॉडकास्ट पर जोर दिया गया है।
दस्तावेजों की जांच करने के लिए मौखिक और लिखित स्वीकारोक्ति और एक कुशल व्यक्ति के साक्ष्य को शामिल करने के लिए और अधिक प्रकार के माध्यमिक साक्ष्य जोड़े गए जिनकी जांच अदालत द्वारा आसानी से नहीं की जा सकती है। साक्ष्य के रूप में इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल रिकॉर्ड की कानूनी स्वीकार्यता, वैधता और प्रवर्तनीयता स्थापित की गई।

शुभजिता

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