जो पढ़ेगा, वही रचेगा और जो रचेगा, वही टिकेगा

साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में डॉ. एस. आनंद एक सुपरिचित व्यक्तित्व हैं। कोलकाता की पत्रकारिता में इन्होंने अनेकों पत्रकारों को अपने ज्ञान, अनुभव से सींचा है, खड़ा किया । डॉ. एस. आनन्द पत्रकारिता के क्षेत्र में लगभग 50 वर्षों से सक्रिय हैं। उनको साहित्य एवं पत्रकारिता का समन्वय करने के लिए जाना जाता है। महानगर के कई अग्रणी समाचार पत्रों में कार्य करते हुए वे नियमित स्तम्भ लेखन, विशेषकर व्यंग्य लेखन के लिए जाने जाते हैं। लस्टम– पस्टम पाठकों में बहुत लोकप्रिय रहा है। देश की चर्चित पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं। है। शुभ सृजन नेटवर्क का सृजन सारथी सम्मान- 2023 महानगर के वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार डॉ. एस. आनन्द को दिया जा रहा है। शुभजिता ने सृजन सारथी डॉ. एस. आनंद से विशेष बातचीत की, प्रस्तुत हैं प्रमुख अंश – 
प्र. पत्रकारिता और साहित्य, दोनों से आपका जुड़ाव रहा है, आमतौर पर इन दोनों को एक दूसरे के सामने खड़ा कर देने की परिपाटी रही है, आपका दृष्टिकोण क्या है? 
पत्रकारिता और साहित्य एक दूसरे के पूरक हैं। बिना एक के दूसरे का अस्तित्व ही नहीं, ऐसा मेरा मानना है।  चार दशकों पूर्व मैंने वाराणसी से प्रकाशित संसार हिन्दी दैनिक में यह मंजर अपनी आंखों से देखा था जहां बहुत सारे साहित्यकार उस समाचार पत्र में काम करते थे। प्रूफ संशोधन से लेकर समाचार लेखन, फीचर सब कुछ उनके ही जिम्मे था। अपने समय का सबसे ज्यादा लोकप्रिय अखबार था। इसके बंद होने के बाद  इसी टीम के अधिकांश पत्रकार  ‘आज’ हिन्दी दैनिक में आ गये और उसे परवान चढ़ाया।। बनारस के जाने माने कवि और हास्य व्यंग्य लेखक मोहन लाल गुप्त ( भैया जी बनारसी) ने एक साहित्यिक गोष्ठी में कहा था – एक अच्छा पत्रकार एक उम्दा साहित्यकार होता है क्योंकि बिना साहित्य को जाने किसी भी विधा में सृजन नामुमकिन है। साहित्य से हमें नये शब्द मिलते हैं, नयी संवेदनाएं जाग्रत होती हैं जिनका उपयोग कर हम समाचारों को संवेदनशील और मानवीय बना सकते हैं। जैसे दाल के बिना भात खाने में मजा नहीं आता वैसे ही बिना साहित्यिक ज्ञान के समाचारों का उम्दा प्रस्तुतीकरण नहीं कर सकते।
प्र. 50 वर्षों से आप हिन्दी पत्रकारिता में सक्रिय हैं, इन 50 वर्षों में आप क्या परिवर्तन देखते हैं?
पेट प्रबल होता है और उससे भी प्रबल है उसे पालने की जद्दोजहद। जमाना महंगा है और जीवनयापन की समस्या दिन -प्रतिदिन भयंकर ही होती जा रही है।  पाव भर पसीने की कीमत चंद पैसे ही मिलते हैं। साहित्य में मनोरंजन करने,उस पर सहानुभूति प्रकट करने और उससे प्रेम रखने के लिए न तो हमारे पास समय है और न ही सामर्थ्य क्योंकि हमारे समक्ष है जीविका की विकट समस्या। हमारा पहला कर्तव्य है किसी प्रकार जीवित रहना। जीवन पहले है, साहित्य पीछे। परन्तु मनुष्य मात्र में अन्तर की अभिव्यक्ति के लिए एक आकुलता अनादिकाल से रही है,वह अपने को बहुत लोगों में प्रतिष्ठित करने के लिए व्याकुल रहता है। इसे ही कहते हैं – साहित्य का आवेग। उसमें एक और व्यग्रता होती है, वह यह कि वह बहुतों के अन्तर के निगूढ़तम भावों का जानकार हो, बहुतेरे हृदय से उसका परिचय हो-वह है साहित्य प्रेम। फलत:  साहित्य न केवल आत्मा का दर्पण, हृदय का प्रतिबिंब और जीवन का चित्र है बल्कि वह स्वयं आत्मा है, हृदय है, जीवन है।
प्र. नवजागरण काल में पत्रकारिता के पीछे एक मिशनरी भाव रहता था, आज भी लगभग 200 साल बीत जाने के बाद भी यही उम्मीद बनी हुई है, वर्तमान समय में इसे बनाए रखना कहां तक सम्भव ह?
पत्रकारिता और साहित्य का सम्बन्ध मेरे हिसाब से  दाल में घी जैसा होता है। पत्रकारिता मिशन हैं तो साहित्य उस मिशन में चार चांद लगाने का एक यंत्र है। जैसे बिना अक्षर ज्ञान के शब्दों को या वाक्यों को लिखना नामुमकिन है वैसे ही साहित्य से विलग होकर समाचार तो लिखे जा सकते हैं मगर उसमें वह प्रवाह और रवानी नहीं होगी जो एक सुधी पाठक के लिए आवश्यक होती है। आज तो ऐसे- ऐसे पत्रकार आ गये हैं जिन्हें न तो व्याकरण का पता है और न ही इमले का। वचन, लिंग, क्रिया की तो बात ही छोड़ दीजिए। दरअसल, युग बदल गया, पत्रकारिता का मिशन बदल गया। पहले पत्रकारिता देश, समाज और मानवीय उत्कर्ष के लिए की जाती थी ,आज वह एक व्यापार बन गयी है। पत्रकारिता को पैसे कमाने की मशीन मान लिया गया है। आखिर ऐसा हो भी क्यों नहीं?यह पेशा आज पूंजीपतियों के हाथ की कठपुतली बन  गया है। जहां तक बात निष्पक्ष पत्रकारिता की है तो मेरा यही कहना है, बकौल बशीर बद्र –
बड़े प्यार से मेरा घर जला
कभी आंच तुम पे न आयेगी
ये जुबां किसी ने खरीद ली
ये कलम किसी की गुलाम है।

प्र. पत्रकारिता और साहित्य का समन्वय किस प्रकार किया जा सकता है?

इन दिनों साहित्यिक पत्रकारिता समस्याग्रस्त है। सबसे बड़ी समस्या है बिक्री और पठनीयता की। अब समाचार पत्र खरीद कर पढ़ने वाले बहुत कम हो गये हैं। एक समय था कि ‘मतवाला’ के प्रकाशन के दिन पाठक प्रेस को घेरकर खड़े हो जाते थे। लखनऊ से ‘माधुरी’ पत्रिका लगभग सात दशकों तक  ग्राहकों के बल पर चलती रही है। प्रेमचंद, पंडित रूपनारायण पांडेय और डॉ कृष्ण बिहारी मिश्र ने इसकी वस्तु सज्जा में अकूत श्रम किया था। आज के पत्र-पत्रिकाएं प्राय: संपादक या मालिक की अखाड़ेबाजी अथवा आइडियोलॉजी या वर्णनामूलक सनक अथवा छद्म बौद्धिकता की शिकार हो गयी है।
साहित्यिक पत्रकारिता के लिए आवश्यक है कि वह पाठकीय प्रवृत्ति का परिष्कार करे। जन साधारण से संवाद स्थापित करके मोहक शैली में उसे पेश करे और यह तभी संभव है जब पत्रकार साहित्यिक प्रतिभा से लबरेज हो। इमला, वर्तनी, व्याकरण का अच्छा ज्ञान हो तथा उसके पास शब्द भंडार हो क्योंकि बिना परिष्कृत और सरल शब्दों के वह अपना प्रस्तुतीकरण सही ढंग से नहीं कर सकता इसलिए पत्रकारिता में साहित्य का समन्वय जरूरी है।

प्र. 50 वर्षों की यात्रा को आप किस प्रकार देखते हैं…स्मृतियों में जाकर? आज के युवा पत्रकारों के बारे में आपकी क्या राय है?

जहां तक मेरा कार्यानुभव कहता है कि वो दिन गुजर गए जब पसीने गुलाब थे। पहले पत्रकारों की नियुक्ति उसकी शैक्षिक योग्यता, साहित्यिक दक्षता और कार्यानुभव को देखकर की जाती थी किन्तु आज जिसने कंप्यूटर ,पेज मेकिंग  तथा कट-पेस्ट की जानकारी हासिल कर ली, वह संपादक हो जाता है और ऐसी स्थिति में आप उनसे स्वस्थ पत्रकारिता की आशा नहीं कर सकते। अनुवाद की शैली भी तभी ठीक होगी जब आपके पास शब्दों का संग्रह होगा। शब्द की तीन शक्तियां होती हैं -अमिधा, लक्षणा और व्यंजना, यह बात कितनों को मालूम है? उपसर्ग और प्रत्यय के बारे में कितने लोग जानते हैं? और यही कारण है कि चाहे अखबार हो या न्यूज चैनल सभी -सशक्तिकरण,  तुष्टिकरण लिख रहे हैं जो ग़लत है। व्याकरण ज्ञान न होने से ऐसी गलतियां होती हैं फिर भी संपादकों और मालिकों को कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वे अखबार या पत्रकारिता को मिशन नहीं व्यापार समझते हैं और इसी से पत्रकारिता में क्षरण आ रहा है।
6. आप क्या सन्देश देना चाहेंगे?
मैं बहुत छोटा और अदना सा साहित्यकार हूं, मैं किसी को क्या संदेश दूंगा? मै तो आज भी सीख रहा हूं फिर भी इतना जरूर कहूंगा कि जो पढ़ेगा, वही रचेगा और जो रचेगा, वही टिकेगा।

शुभजिता

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