अपने समकालीनों पर कुछ लिखना बेहद चुनौतीपूर्ण और साहस भरा निर्णय होता है । यह दोधारी तलवार की तरह होता है । जिसमें कलाई का घुमाव सही नहीं गया तो अपनी ही गर्दन कटने का डर बराबर बना रहता है ।
नील कमल की यह किताब आज ही डाक से मिली । इस ‘आलोचना जैसी’ पुस्तक में त्रिलोचन और मुक्तिबोध से लेकर अनुज लुगुन , शायक आलोक और शुभम श्री तक शामिल हैं । कवि और कविता का चुनाव बेहद दिलचस्प है । यह एक कवि-आलोचक की बौद्धिक यात्रा का आलोचकीय वृत्तांत है ।
किताब के लगभग दस लेख अभी-अभी पढ़कर पूरा किया है । कुछ बातों से सहमति है तो कुछ से घोर असहमति । यह ठीक भी है । मैं समझता हूँ रास्ता इसी के बीच से निकलेगा । यह बेहद महत्वपूर्ण है कि जब अमूमन सभी ‘बड़े आलोचक’ घी को देसी घी , गाय का घी , ऊँट और भैंस का घी घोषित करने में अपनी सम्पूर्ण ‘मेधा’ व्यय कर रहे हैं तब भी कुछ लोग हैं जो दूध को मथकर घी निकालने के काम में जुटे हुए हैं । लेखक नील कमल को बहुत बहुत बधाई ।
विहाग वैैभव की वॉल से
सौजन्य – आनन्द गुप्ता