आधुनिक सशक्त स्त्री का प्रगति मार्ग हैं मुंशी प्रेमचंद की ‘कर्मभूमि’ की स्त्रियाँ

सुषमा त्रिपाठी कनुप्रिया
 ‘आज जब मणिपुर, मालदा समेत देश के अन्य स्थानों पर भीड़ स्त्रियों को नग्न कर रही है तो दूसरी तरफ ‘कर्मभूमि’ में वह भीड़ पीड़िता की रक्षा के लिए सामने आती है । आज जब महिला पहलवानों को घसीटा जा रहा है, अपराधी खुलेआम घूम रहे हैं तो वहीं इस उपन्यास में मुन्नी द्वारा उसकी आबरू लूटने वालों की हत्या करने पर वह देवी बना दी जाती है । आज जहाँ ज्योति मौर्य और आलोक मौर्य के अनमेल विवाह में छीछालेदर हो रही है तो सुखदा एवं अमरकान्त अपने अनमेल विवाह की समस्या से जूझते हुए अन्ततः एक दूसरे को समझते और स्वीकार करते हैं । वर्तमान समस्याओं एवं परिस्थितियों को देखते हुए ‘कर्मभूमि’ में एक नयी रोशनी दिखायी पड़ती है।’
मुंशी प्रेमचन्द भारतीय जनमानस के अन्तर को छूने वाले कथाकार हैं । कई स्तरों पर दिशाहारा जनता के मार्गदर्शक हैं तो कई जगहों पर उनकी कलम भी एक सीमा में बंध जाती है । विशेषकर ऐसा तब होता है जब वह अपने साहित्य के नारी पात्रों को गढ़ते हैं तो उन नारी चरित्रों की तेजस्विता मन मोहती है । प्रेमचन्द की कहानियाँ हों या उपन्यास हों, कई स्तरों पर उनकी लेखनी से निकले नारी चरित्र उनकी कृतियों के पुरुष पात्रों पर भारी पड़ते हैं मगर एक समय के बाद उनको पढ़ते हुए ऐसा लगने लगता है कि कथाकार के पुरुष मन और लेखकीय मन में एक द्वन्द्व चलता रहता है । आप प्रेमचन्द की किसी भी रचना को उठाकर देखिए आरम्भ में स्त्रियों की तेजस्विता, उनकी मुखरता…अन्ततः परिस्थितियों के कारण या किसी न किसी रूप में नायकों के आगे झुकती हैं या विनम्र होती है मगर कर्मभूमि में सामंजस्य की राह खुलती है, असहमतियों के बीच सहमति का स्वर है ।
मुंशी प्रेमचन्द ने स्त्रियों की समस्याएं तो उठायीं, उनको अभिव्यक्ति दी परन्तु इस परिप्रेक्ष्य में स्त्रियों को मर्यादा का जितना पाठ पढ़ाते हैं…मर्यादा का वह पाठ उनके पुरुष चरित्रों में नहीं दिखता….वह पुरुष चरित्रों की भर्त्सना करते हैं तो भी कारण बताकर उनको जस्टिफाई करने लगते हैं । स्त्रियों की सामान्य इच्छाएं, उनकी जीवनशैली क्यों मुंशी जी को भोग – विलास लगती है..यह मेरी समझ में नहीं आता । उनके नारी चरित्र सशक्त भी हैं और अपनी समस्याओं से टकराते भी हैं मगर प्रेमचंद को पढ़ते हुए बार – बार लगता है कि वह अपने स्त्री चरित्रों पर नियंत्रण चाहते हैं…वह उनको आकाश तो देते हैं, पंख भी देते हैं मगर उनके पैरों में मर्यादा और नैतिकता की रस्सी भी बांध देते हैं..आप इसे युगीन पुरुष मानसिकता कहिए या तत्कालीन समाज का प्रभाव या फिर मुंशी प्रेमचन्द की अपनी विचारधारा, यह आप पर छोड़ती हूँ । प्रेमचंद के साहित्य के आकाश में स्त्रियों के लिए सीमा बांध दी गयी है जबकि पुरुष चरित्रों के लिए छूट ली गयी है । वह कमजोर पड़कर भी आगे रहते हैं । ‘कर्मभूमि’ में लगभग ऐसा ही है मगर यहाँ टक्कर बराबर की है । बहरहाल मुंशी जी का कथा साहित्य विपुल है इसलिए मैं अपनी आधुनिक और समसामायिक सन्दर्भ में कर्मभूमि पर ही केन्द्रित रखना चाहूँगी जो मुझे निजी तौर पर कर्मभूमि मुंशी जी की सर्वश्रेष्ठ कृति लगती है । आज के सन्दर्भ में जब तत्कालीन घटनाओं पर विचार करती हूँ तो बार – बार मुझे यह चरित्र याद आते हैं जो वर्तमान समाज में नारी की स्थिति को अभिव्यक्त करते हैं । वस्तुतः प्रेमचंद का समय वह समय था जब स्त्रियों का संसार तेजी से बदल रहा था । राष्ट्रीय आन्दोलनों में स्त्रियों की भूमिका बढ़ रही थी और वह नेतृत्व कर रही थीं । कर्मभूमि की नारी पात्रों में नेतृत्व का गुण हैं, वह इसके लिए बड़े से बड़ा कष्ट उठाने को तैयार रहती हैं । पठानिन हो, सलोनी हो, नैना हो, रेणुका देवी हों, सब अपने तरीके से समाज के लिए कुछ करने को तत्पर हैं । इस आलेख में मैं ‘कर्मभूमि’ की प्रभावशाली नायिका सुखदा को केन्द्र में रखकर बात करना चाहूँगी क्योंकि यह वह उपन्यास है जहाँ मुझे लगता है कि नारी चरित्र अपने सर्वोच्च स्तर पर हैं और आज की स्त्री अपने लिए नयी राह निकाल सकती है । ‘आज जब मणिपुर, मालदा समेत देश के अन्य स्थानों पर भीड़ स्त्रियों को नग्न कर रही है तो दूसरी तरफ ‘कर्मभूमि’ में वह भीड़ पीड़िता की रक्षा के लिए सामने आती है । आज जब महिला पहलवानों को घसीटा जा रहा है, अपराधी खुलेआम घूम रहे हैं तो वहीं इस उपन्यास में मुन्नी द्वारा उसकी आबरू लूटने वालों की हत्या करने पर वह देवी बना दी जाती है । आज जहाँ ज्योति मौर्य और आलोक मौर्य के अनमेल विवाह में छीछालेदर हो रही है तो सुखदा एवं अमरकान्त अपने अनमेल विवाह की समस्या से जूझते हुए अन्ततः एक दूसरे को समझते और स्वीकार करते हैं । वर्तमान समस्याओं एवं परिस्थितियों को देखते हुए ‘कर्मभूमि’ में एक नयी रोशनी दिखायी पड़ती है।’ जब आप प्रेमचन्द को पढ़ते हैं तो आप इन घटनाओं की जड़ तक पहुँच जाते हैं । लेखकीय सीमाओं के बावजूद मुंशी जी ने ऐसे नारी चरित्र गढ़े हैं जो भारत की स्त्रियों के लिए एक मार्गदर्शक बन जाती हैं । इन चरित्रों में कर्मभूमि के नायक अमरकान्त की पत्नी सुखदा, बहन नैना, सकीना और मुन्नी का चरित्र लेती हूँ । सुखदा वह चरित्र है जो होना चाहिए और सकीना वह चरित्र है, जैसा प्रेमचंद चाहते हैं तभी तो अमरकान्त के बाद सलीम भी सकीना के प्रेम में पड़ जाता है। उसके त्याग, समर्पण की बात कहकर कहीं – कहीं पर सुखदा के सामने उसे खड़ा कर देने का प्रयास है मगर सुखदा का तेज, उसकी ओजस्विता, उसका सामर्थ्य वह धारधार तलवार है जो हर एक बाधा को खत्म करने का साहस रखती है ।
अमरकान्त के लिए त्याग, सादा जीवन कोई नयी बात नहीं थी । वह उपेक्षा के वातावरण में पला है । विमाता का तिरस्कार उसने झेला है । सुख उसके लिए नयी बात है इसलिए वह रहे या न रहे, उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा मगर सुखदा ने सुख देखा है, ऐश्वर्य देखा है और फिर भी वह एक झटके में अपने स्वाभिमान के लिए छोड़ देने का सामर्थ्य रखती है । अगर वह अपनी गलती समझती है तो उसे स्वीकार करने की शक्ति उसमें है । नैना के घर में जाने पर मनिराम के कटाक्षों के उत्तर देने का सामर्थ्य सुखदा में ही हो सकता है । मुंशी प्रेमचंद ने अनायास ही ऐसा शानदार चरित्र गढ़ दिया है जिसे वह खुद भी चाहें तो उत्कृष्टता के आसन से नीचे उतार नहीं सकते थे । तो सबसे पहले सुखदा की बात की जाए । मुंशी जी उसका परिचय देते हुए लिखते हैं ‘उसकी माता ने बेटे की साध बेटी से पूरी की थी । त्याग की जगह भोग, शील की जगह तेज, कोमल की जगह तीव्र का संस्कार किया था । सिकुड़ने और सिमटने का उसे अभ्यास न था और वह युवक – प्रवृत्ति की युवती ब्याही गयी युवती प्रवृति के युवक से, जिसमें पुरुषार्थ का कोई गुण नहीं । अगर दोनों के कपड़े बदल दिये जाते, तो एक – दूसरे के स्थानापन्न हो जाते । दबा हुआ पुरुषार्थ ही स्त्रीत्व है ।’ समाज में स्त्रियों के लिए जो गुण निर्धारित कर दिये गये हैं, मुंशी प्रेमचन्द इससे बाहर नहीं जाते मगर यह चरित्र प्रखर भी है, मुखर भी है और आगे बढ़ने का साहस भी रखता है । दूसरी तरफ उपन्यास का नायक कई स्थान पर सुखदा के सामने नहीं ठहरता । एक समय ऐसा भी आता है जब खुद को त्यागी समझने वाला अमरकान्त भी सुखदा की माता के कारण बदलने लगता है जिसका उल्लेख कर्मभूमि में इस प्रकार किया गया है- ‘रेणुका देवी के स्नेह के कारण 5 -6 महीने में बदलने लगता है । वह सरल जीवन का उपासक, अच्छा – खासा रईसजादा बन बैठा, रईसजादों के भावों और विचारों से भरा हुआ । उसकी जेब में दस – बीस रुपये पड़े रहते ।’
सुखदा व्यावहारिक है । वह फिल्में देखना पसन्द करती है । सुखदा कहती है – ‘पराधीनता मुझे भी उतनी ही अखरती है जितनी तुम्हें । हमारे पांवों में तो दोहरी बेड़ियां हैं, समाज की अलग, सरकार की अलग लेकिन आगे – पीछे भी तो देखना होता है ।’ वही अमरकान्त से मुन्नी के बारे में पूछती है जिसे गोरों ने सताया था और अमरकान्त को उसका पता लगाने को कहती है – ‘ऐसी होशियारी से पता लगाओ कि किसी को कानों – कान खबर न हो । अगर घर वालों ने उसका बहिष्कार कर दिया हो, तो उसे लाओ । अम्मा को उसे अपने साथ रखने में कोई आपत्ति न होगी और यदि होगी तो मैं अपने पास रख लूंगी ।’
सुखदा में चुनौती देने की शक्ति है । वह स्वाभिमानी है । स्पष्ट रूप से कहती है कि ‘मैं किसी की आश्रित नहीं रह सकती । मेरा दुःख – सुख तुम्हारे साथ है । जिस तरह रखोगे, उसी तरह रहूँगी । मैं भी देखूंगी , तुम अपने सिद्धांतों के कितने पक्के हो’ – ‘मैं प्रण करती हूँ कि तुमसे कुछ न मागूंगी ।’…आगे वह कहती है – ‘जो आदमी एक महल में रहता है,वह एक कोठरी में भी रह सकता है । फिर कोई धौंस तो न जमा सकेगा ।’ लाला समरकान्त की बातों से आहत सुखदा घर छोड़ने को तैयार हो जाती है और अमरकान्त को कहती है – ‘तुम समझते होगे, मैं गहनों के लिए कोने में बैठकर रोऊँगी और अपने भाग्य को कोसूंगी । स्त्रियां अवसर पड़ने पर कितना त्याग कर सकती हैं, यह तुम नहीं जानते । मैं इस फटकार के बाद इन गहनों की ओर ताकना भी पाप समझती हूँ, इन्हें पहनना तो दूर की बात है ।’ आगे वह कहती है – ‘मैं यह भी कहे देती हूँ कि मैं तुम्हारे भरोसे पर नहीं जा रही हूँ । अपनी गुजर भर को आप कमा लूंगी । रोटियों में ज्यादा खर्च नहीं होता । खर्च होता है आडंबर में । एक बार अमीरी की शान छोड़ दो, फिर चार आने पैसे में काम चलता है ।’ वहीं अमरकान्त का हृदय पहले सकीना और उसके बाद मुन्नी पर फिसलता है और कारण यही है कि उसके पुरुषवादी अहं को इन दोनों का व्यवहार मरहम लगाता है । सकीना के साथ जब अमरकान्त को पठानिन देख लेती है तो अमरकान्त दूसरा विवाह करने और धर्म बदलने को भी तैयार रहता है और परिस्थितियों के कारण पलायन कर घर भी छोड़ देता है मगर नायक फिर भी नायक है..। इधर अमरकान्त के घर छोड़ने पर जब सवाल पूछे जाता हैं तो लाला समरकान्त वही कहते हैं जो युगों से कहा जाता रहा है – ‘कृष्ण भगवान ने एक हजार रानियों के साथ नहीं भोग किया था -राजा शान्तनु ने मछुए की कन्या से नहीं भोग किया था – कौन राजा है, जिसके महल में दो सौ रानियां न हों । अगर उसने किया तो कई नई बात नहीं की । तुम जैसों के लिए यही जवाब है । समझदारों के लिए यह जवाब है कि जिसके घर में अप्सरा सी स्त्री हो, वह क्यों जूठी पत्तल चाटने लगा – मोहन भोग खाने वाले आदमी चबैने पर नहीं गिरते ।’ अब इसे क्या समझा जाए…क्या नारी पात्रों के सन्दर्भ में ऐसे कथन की आशा लेखक से की जा सकती है…सम्भवतः नहीं ।अमर के घर छोड़कर चले जाने को सुखदा विश्वासघात मानती है तथा उसका मन अमर के प्रति उपेक्षा से भर जाता है। इस परिस्थिति में उसका आत्माभिमान बढ़ जाता है, सुखदा ने झुकाना नहीं सीखा। वह अमर को पत्र नहीं लिखती है। वह पिता से अलग होने के बाद अमर की इच्छा के विरुद्ध भी बालिका विद्यालय में 50 रुपये पर नौकरी कर लेती है। अमरकान्त अगर किसानों के अधिकार के लिए जेल जाता है तो गरीबों के लिए मकान बनाने हेतु संकल्प लेने वाली सुखदा को शासन भय से जेल में डालता है क्योंकि अछूतों के मंदिर प्रवेश को लेकर उसकी नेतृत्व क्षमता वह पहले देख चुका है । अछूतों पर जब गोलियाँ चलवाई जाती हैं तो वह खुलकर विद्रोह करती है और आन्दोलन का नेतृत्व भी और अन्ततः मंदिर के दरवाजे अछूतों के लिए खोल दिए जाते हैं और वह पूरी तरह बदल जाती है । अब सुखदा नगर की नेत्री है । नगर में जाति – हित के लिए जो काम होता है, सुखदा के हाथों उसका श्रीगणेश होता है । कोई उत्सव हो,कोई परमार्थ का काम हो, कोई राष्ट्र का आंदोलन हो, सुखदा का उसमें प्रमुख भाग होता है । मादक वस्तु बहिष्कार, भजन मंडली, महिलाओं का घर से निकलना और इन गतिविधियों में शामिल होना, सुखदा इनकी प्रेरणा बन जाती है । सुखदा प्रश्न उठाना जानती है – एक स्थान पर प्रो. शांति कुमार से पूछती है -‘ मैं आपसे बेशर्म होकर पूछती हूं, ऐसा पुरुष जो स्त्री के प्रति अपना धर्म न समझे, क्या अधिकार है कि वह स्त्री से व्रत – धारिणी रहने की आशा रखे – आप सत्यवादी हैं । मैं आपसे पूछती हूं, यदि मैं उस व्यवहार का बदला उसी व्यवहार से दूं तो आप मुझे क्षम्य समझेंगे ? ।’ लाला समरकान्त बीमार होते हैं तो वही उनकी देखभाल भी कर लेती है । वस्तुतः सुखदा आधुनिकता और आदर्श का बेजोड़ संगम है ।
प्रो. शांति कुमार के पत्र से जब अमरकांत को आन्दोलन और सुखदा की जानकारी मिलती है तो वह उत्तर में लिखता है और स्वीकार करता है कि सुखदा को पहचानने में उससे भूल हो गयी है । वह लिखता है – ‘मैंने उसे क्या समझा था और वह क्या निकली । मैं अपने सारे दर्शन और विवेक और उत्सर्ग से वह कुछ न कर सका, जो उसने एक क्षण में कर दिखाया । कभी गर्व से सिर उठा लेता हूं, कभी लज्जा से सिर झुका लेता हूं ।’…आगे वह लिखता है -‘ मैं आपसे सत्य कहता हूं, सुखदा मुझे नचा रही है । उस मायाविनी के हाथों में कठपुतली बना हुआ हूं । पहले एक रूप दिखाकर उसने मुझे भयभीत कर दिया और अब दूसरा रूप दिखाकर मुझे परास्त कर रही है ।’ गरीबों के लिए मकान बनाने हेतु जब आंदोलन की जरूरत पड़ती है और जब इसका कारण सुखदा को उसकी गिरफ्तारी होने लगती है तो लाला समरकांत के लाख कहने पर भी सुखदा जमानत की बात स्वीकार नहीं करती बल्कि जेल जाना स्वीकार कर लेती है …वह उसी राह पर चल पड़ती है जिस मार्ग पर अमरकान्त चल रहा था । प्रेमचंद लिखते हैं – ‘अब दोनों एक ही मार्ग के पथिक हैं, एक ही आदर्श के उपासक हैं । उनमें कोई भेद नहीं है,कोई वैषम्य नहीं है । आज पहली बार उसका अपने पति से आत्मिक सामंजस्य हुआ ।’
वहीं अमरकान्त के साथ भी यही स्थिति थी – ‘शासन का वह पुरुषोचित भाव मानो उसका परिहास कर रहा था । सुखदा स्वच्छंद रूप से अपने लिए एक नया मार्ग निकाल सकती है, उसकी उसे लेशमात्र भी आवश्यकता नहीं है, यह विचार उसके अनुराग की गर्दन को जैसे दबा देता था । वह अब अधिक से अधिक उसका अनुगामी हो सकता है ष सुखदा उसे समर क्षेत्र में जाते समय केवल केसरिया तिलक लगाकर संतुष्ट नहीं है, वह उससे पहले समर में कूदी जा रही है, यह भाव उसके आत्मगौरव को चोट पहुंचाता था ।’
गरीब मजदूरों के रहने के लिए वह मकान की योजना बनाती है और क्रियान्वित करने की दिशा में प्रयत्न करती है। अंत में वह निःस्वार्थ कर्म में विश्वास करती है। हर एक शुभ कार्य में वह ईश्वर का महत्वपूर्ण हाथ मानती है। सुखदा का चरित्र इस तथ्य को प्रकट करता है कि श्रद्धा, प्रेम, सम्मान, धन से नहीं बल्कि सेवा से ही मिल सकता है। अपनी सेवा-भावना के कारण ही घर और बाहर दोनों के दायित्व को वह भलीभांति निभा पाती है। परिवार के लिए वह एक ऐसी स्त्री का आदर्श बनती है जो आज्ञाकारिणी पुत्रवधू भी है, स्नेही भाभी भी है और पति की प्रेरणा भी है। इसके साथ ही और इन सबसे ऊपर वह एक जनसेविका भी है। वह ‘स्व’ के तल से ऊपर उठकर ‘पर’ के तल तक पहुँचने वाली एक महान नारी के रूप में सामने आती है।
उपन्यास का दूसरा सशक्त चरित्र है मुन्नी । मुन्नी …जो अपने साथ दुष्कर्म करने वालों को मार डालती है और अदालत में निर्भीक होकर अपना अपराध स्वीकार भी कर लेती है और इसका प्रभाव भी पड़ता है । अदालत में मुन्नी को बचाने के लिए उसे पागल बताया जाता है और लोग साथ होते हैं । इस प्रकरण में एक आदर्श समाज की स्थिति दिखाई पड़ती है जब प्रेमचंद लिखते हैं ‘ जब पुलिस पगली को लेकर चली तो दो हजार आदमी थाने तक उसके साथ गए । अब वह जनता की दृष्टि में साधारण स्त्री न थी । देवी के पद पर पहुँच गयी थी । किसी दैवी शक्ति के बगैर उसमें इतना साहस कहां से आ जाता ।’
सुखदा उसके समर्थन में कहती है – ‘इस भिखारिन का कोई रक्षक न था । उसने अपनी आबरू का बदला खुद लिया । तुम जाकर वकीलों से सलाह लो, फांसी न होने पाए चाहे कितने ही रुपये खर्च हो जाएं ।’ रेणुका देवी मुकदमे का खर्च उठाती हैं । यहाँ एक आदर्श समाज है जहाँ मुन्नी का पति उसके पक्ष में खड़ा होता है, उसके साथ हुई घटना के बाद मुन्नी की और अधिक इज्जत करने लगता है, साथ भी रहना चाहता है मगर मुन्नी खुद को उसके योग्य नहीं समझती और आत्महत्या के लिए गंगा में छलांग लगा देती है मगर बचा ली जाती है और अछूतों की बस्ती में रहने लगती है जहाँ उसे पूरा सम्मान मिलता है मगर एक दिन पति को खोजती हुई जाती है तो उसकी लाश ही मिलती है जो उसकी खोज में पागल हो गया था । यहीं अमरकान्त से उसकी दोबारा भेंट होती है । मुन्नी अमरकान्त के लिए किसी से भी लोहा लेने को तैयार है । जब गाय लेकर लोग आते हैं और अमरकान्त इसे रोकना चाहता है तो उसके समर्थन में गाँव वालों से लड़ती है और जब उसे ताना मिलता है कि क्या उसकी सगाई ठहर गयी है तो वह तीव्र विरोध करती है – ‘उनसे सगाई ही कर लूँगी तो क्या तुम्हारी हंसी हो जाएगी – और जब मेरे मन में वह बात आ जाएगी, तो कोई रोक भी न सकेगा । अब इसी बात पर मैं देखती हूँ कि कैसे घर में सिकार जाता है । पहले मेरी गर्दन पर गंडासा चलेगा ।’ वह गाय के पास बैठकर गंडासा चलाने की चुनौती दे डालती है । अमरकान्त की समाज सुधार यात्रा को मुन्नी का पूरा सहयोग मिलता है और वह भी जेलयात्रा करती है ।
कर्मभूमि का तीसरा चरित्र है नैना । नैना स्वयं अमरकान्त से प्रेम करती थी और अमरकान्त के हृदय में अगर घर वालों के लिए कहीं कोई कोमल स्थान था,तो वह नैना के लिए था । नैना की सूरत भाई से इतनी मिलती – जुलती थी, जैसे सगी बहन हो । इस अनुरूपता ने उसे अमरकान्त के और भी समीप कर दिया था । अमर की फीस के लिए वह अपने कड़े देने को तैयार रहती है । अमरकान्त के लिए वह समरकान्त का घर भी छोड़ देती है । जब आन्दोलन को सम्भालने का समय आता है तो नैना सामने आती है । बेहद शांत और संकोची स्वभाव की नैना न सिर्फ आन्दोलन के समय जनता का नेतृत्व करती है बल्कि उसका पति मनीराम उसकी हत्या भी कर देता है और इस तरह वह अपनी वीरता का परिचय देती है ।
उपन्यास में सकीना, पठानिन, सलोनी जैसे पात्र भी हैं जो प्रेमचंद की कल्पना के अनुरूप हैं, विशेषकर सकीना, जो वैसा प्रेम कर सकती है जैसा पुरुषों को चाहिए । अमरकान्त पहले सकीना के प्रति कमजोर हुआ, फिर मुन्नी से उसे मोह हुआ मगर सुखदा का चरित्र इतना उज्ज्वल है कि अन्ततः वह सुखदा के पास ही लौटता है । आज के परिप्रेक्ष्य में कहूँ तो स्त्री को दूसरों से अपने लिए सम्मान की उम्मीद न रखकर खुद को मजबूत बनाना चाहिए जिससे न सिर्फ वह अपनी रक्षा कर सके बल्कि अपने निर्णय पूरे आत्मविश्वास के साथ, निडरता के साथ ले सके । चुनौतियों का सामना कर सके समय आने पर समाज की रक्षा कर सके और नया समाज गढ़ सके और इसकी राह ‘कर्मभूमि’ से खुलती है ।

शुभजिता

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