अभिजात्यता छोड़कर मुखर बनिये, तभी रहेंगी किताबें और सलामत रहेंगे आप

इस बार पुस्तक मेले की जगह बदल गयी है। देखा जाये तो इसका असर सकारात्मक ही पड़ा है मगर गौर करने वाली बात यह है कि हिन्दी के स्टॉल लगातार कम होते जा रहे हैं। इसके बावजूद कि हिन्दी पाठक खोजकर – भटककर अपनी काम की किताबें ढूँढ रहे हैं और छुट्टी के दिनों में भीड़ भी अच्छी – खासी हो रही है मगर प्रकाशकों और पाठकों का मजबूत रिश्ता कोलकाता पुस्तक मेले में नजर नहीं आता। आमतौर पर प्रकाशक इसका ठीकरा कभी पाठकों पर फोड़ते हैं तो कभी आयोजकों पर गुस्सा निकालते हैं मगर सच्चाई तो कुछ और ही है। किताबें लिखी जा रही हैं, छप रही हैं मगर पाठकों तक पहुँचने की कोशिश नहीं हो रही है। न तो प्रकाशक इस बात को लेकर गम्भीर हैं और न ही शिक्षण संस्थान या साहित्यिक संस्थायें इस बात को लेकर सोच रही हैं।

हिन्दी साहित्य को साहित्यकारों, आलोचकों और शिक्षा व कला वर्ग की एक खास दुनिया में समेट दिया गया है। अभिजात्यता ऐसी कि फिल्मों और अच्छी हिन्दी फिल्मों के अवदान को हम याद नहीं रखते और मजे की बात यह है कि हमारा ध्यान इन किताबों पर तब ही जाता है, जब किसी साहित्यिक कृति पर फिल्म बनती है। किताबों को आम जनता तक पहुँचाना भी हिन्दी की जिम्मेदारी है। इसके लिए हमें अपने स्वार्थ से परे होकर सोचने की जरूरत है। बांग्ला और अँग्रेजी की अच्छी बात यह है कि उनको सिनेमा से परहेज नहीं है और न ही इन भाषाओं के लेखकों को किसी बॉलीवुड कलाकार के साथ मंच साझा करने में परेशानी है इसलिए साहित्यिक हस्तक्षेप इन भाषाओं के सिनेमा को मजबूत करता है। हिन्दी में इसका उल्टा है और हिन्दी के लेखक, बुद्धिजीवी और आलोचक सिनेमा से जुड़ने को अपनी तौहीन समझते हैं। एक अजीब प्रकार की हेय दृष्टि से कलाकारों को देखा जाता है और सलूक ऐसा किया जाता है मानो हिन्दी साहित्य पर हिन्दी के साहित्य जगत का एकाधिकार हो।

इस दृष्टि को तोड़ने में हिन्दी कविता एक महत्वपूर्ण प्रयोग कर रही है। सिनेमा के सितारों से हिन्दी की कवितायें पढ़वाना और आम जनता तक पहुँचाना एक बड़ा बदलाव है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। इसके साथ ही तकनीक और साहित्य को जोड़ना भी जरूरी है। अनिमेष जोशी सुनो कहानी यूट्यूब चैनल के माध्यम से हिन्दी को लोकप्रिय बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं। अगर युवाओं की बात की जाये तो बोल पोएट्री सोशल मीडिया पर ऐसे मसलों को उठा रहा है, जिन पर बात करनी जरूरी है। धीरज पांडेय, विहान गोयल और उनकी टीम की जुगलबंदी वो काम कर रही है, जो बड़े – बड़े साहित्यकार नहीं कर पा रहे हैं और वह है युवा पीढ़ी को जोड़ना। आप मान लीजिए कि आप पर्वत पर बैठकर साहित्य को लोकप्रिय नहीं बना सकते। अगर शाहरुख खान जयशंकर प्रसाद को पढ़ते हैं या सनी लियोनी सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता पढ़ती हैं तो इससे कविता अपवित्र नहीं होगी बल्कि साहित्य की ताकत सामने आयेगी। मसला संवाद का भी है और यह भी सच है कि इसके लिए कोशिश नहीं की जाती। हाल ही में जब दिल्ली पुस्तक मेला आयोजित हुआ तो उसकी हलचल से पूरा सोशल मीडिया पटा पड़ा था। प्रचार करने के लिए मानों प्रकाशकों ने एक दूसरे से प्रतियोगिता लगा रखी थी। बड़े लेखकों से लेकर नवोदित साहित्यकार और युवाओं को दिल्ली पुस्तक मेले में देखा गया। आप ये माहौल अंतरराष्ट्रीय कोलकाता पुस्तक मेले में देख सकते हैं मगर बांग्ला और अँग्रेजी प्रकाशकों के स्टॉल पर। हम हर साल रोना रोते हैं कि हिन्दी की उपेक्षा की जा रही है…मीडिया में खबरें भी नयी पुस्तकों और पाठकों की कमी तक सीमित रहती हैं मगर इसके कारणों पर कभी हमारा ध्यान नहीं गया।

पिछले कुछ समय से सोशल मीडिया पर जब दिल्ली पुस्तक मेले की हलचल देखी तो ऐसा लगा कि हमें यह माहौल कोलकाता में नहीं दिखता। यह सही है बंगाल एक अहिन्दीभाषी राज्य है और यह भी सही है कि हिन्दी के पाठकों में जानकारी का अभाव है या साहित्य को लेकर उनमें उत्साह की कमी है मगर सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या हमने किताबों के प्रति प्यार जगाने और लोगों तक ले जाने की कोशिश की? क्या यह सच नहीं है कि हिन्दी के साहित्यकार अपनी गुटबाजी और घेरे में इस कदर घिरे हैं कि पाठकों तक पहुँचने की तरफ उनका ध्यान ही नहीं गया? कहीं ये तो सच नहीं है कि हिन्दी के साहित्यकार खुद को इस कदर ऊँचाई तक ले आये हैं कि नीचे झुककर देखना उनको अपनी तौहीन लगती है? इस अभिजात्यता के चक्कर में हिन्दी ने कई साहित्यकारों के साथ आम पाठकों को भी खुद से दूर किया है। जहाँ तक प्रकाशकों का प्रश्‍न है तो साहित्य सेवा के साथ व्यवसाय और लाभ – हानि का गणित उनके लिए मायने रखता है। इस बार जब हम 2018 के कोलकाता पुस्तक मेले में गये तो हिन्दी के एक बड़े प्रकाशन समूह ने इसे हमारी बातचीत में स्वीकार किया और हमें यह फर्क इस बार भी दिखायी पड़ा। अगर आप शहरों के अनुसार पाठक के साथ बर्ताव बदलते रहेंगे तो इसमें क्षति आपकी ही होगी क्योंकि आजकल तो जमाना भी ऑनलाइन का ही है। हिन्दी के स्टॉलों पर पाठक थे मगर प्रकाशकों की ओर से किसी प्रकार की हलचल नहीं थी और हलचल होती भी है तो यह मात्र पुस्तक लोकार्पण तक ही सीमित रहती है। सवाल यह है कि कोलकाता पुस्तक मेले में स्टॉलों पर सन्नाटा आखिर हिन्दी की नियति क्यों है और यह कब तक ऐसा रहेगा? आप पाठकों को किताबें खरीदते देख सकते हैं। दिल्ली में राजकमल प्रकाशन ने पाठकों को लुभाने के लिए एक अभिनव प्रयोग किया था। किताबों की कुछ पँक्तियाँ पाठकों से पढ़वाकर उसे सोशल मीडिया पर डाला जाता रहा मगर लेख लिखे जाने तक कोलकाता पुस्तक मेले में इस समूह के स्टॉल पर यह प्रयोग हमें नहीं दिखा। तमाम असुविधाओं के बावजूद सिर्फ पाठकों पर ठीकरा फोड़ देना हमारी समझ में अपनी गलतियों से भागना और मुँह छुपाना है क्योंकि आपकी उपेक्षा और उदासीनता के बावजूद ये हिन्दी का पाठक ही है जिसके कारण आपका लेखकीय व्यक्तित्व सुरक्षित है और किताबें बिक रही हैं और खासकर तब जब कि आपकी ओर से युवा पाठकों को लुभाने, उस तक पहुँचने और साथ लाने की पुरजोर कोशिश नहीं की गयी। वो भी तब जब कि आप अपनी बहसों और एक दूसरे की आलोचना में उलझे रहें और बंगाल में तो अहिन्दीभाषी भी हिन्दी पढ़ते हैं और अनूदित किताबें पढ़ते हैं, इसलिए जरूरी है समय के साथ प्रचार के तरीकों को उन्नत करने के साथ मुखर होकर पाठकों से जुड़ें वरना आपको कोई अधिकार नहीं रहेगा कि आप अपनी नाकामी के लिए आम पाठकों को दोषी समझें।

राजकमल प्रकाशन समूह के निदेशक (विपणन एवं कॉपीराइट) अलिंद्य माहेश्‍वरी का कहना है कि हम साल भर देश में 60 अलग – अलग मेलों और प्रदर्शनियों में भाग लेते हैं। हर जगह समान रूप से ध्यान दे पाना और प्रचार कर पाना सम्भव नहीं हो पाता। कोलकाता पुस्तक मेले में तो हिन्दी स्टॉलों को कोने पर ही रख दिया जाता है, इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। वैसे हम सोशल मीडिया पर प्रचार करते हैं और कोशिश करें कि पाठकों से सम्पर्क करने के तरीके हम इस पुस्तक मेले में भी लायें। आनन्द प्रकाशन के निदेशक दिनेश त्रिपाठी मानते हैं कि पाठकों की कमी नहीं है। पाठक आते हैं और किताबें भी बिकती हैं। कई किताबों के तो दो – तीन संस्करण भी निकल चुके हैं। हम सोशल मीडिया के माध्यम से प्रचार करते हैं। हाँ, यह सही है कि पाठकों तक पहुँचने के लिए हमें और भी तरीके अपनाने होंगे।

प्रो.रंजना शर्मा कहती हैं कि यह सही है कि बांग्ला और अँग्रेजी के प्रकाशक प्रचार के मामले में हिन्दी से कहीं आगे हैं। वे नये – नये तरीके अपनाते हैं और इसका नतीजा आप इन स्टॉलों पर हो रही पाठकों की बढ़ती तादाद के रूप में देख सकते हैं। पाठक कम नहीं हैं मगर प्रचार में कमी है, इस बात को स्वीकार करना होगा। मौन रहकर आप जनता तक नहीं पहुँच सकते। सस्ती किताबें उपलब्ध करवाना एक तरीका है और 50 रुपये में किताबें उपलब्ध करवाकर साहित्य भंडार यही काम कर रहा है। सिर्फ पुस्तक मेला ही नहीं बल्कि आम जीवन में भी लेखकों और प्रकाशकों को युवा पीढ़ी और आम पाठकों के पास जाना होगा। ऐसी गतिविधियाँ लानी होंगी जिससे जनता उनको अपना समझे…वे शिक्षण संस्थानों से जुड़ें, बाजारों से जुड़े, घरों से जुड़ें और ये समझायें कि साहित्य जनता की अपनी धरोहर है, साहित्य व कला जगत की मिल्कियत नहीं।

(अपराजिता फीचर डेस्क)

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