दादी की ऐनक

डॉ. वसुन्धरा मिश्र

खिड़की पर बैठी दादी की ऐनक पूछने लगी
दिखाई नहीं देते अब उस खिड़की के पड़ोसी
कहाँ गए वे दूर से हाथ हिलाते
खिड़की से खिड़की तक पसरा था घर दादी का
मन खुशियों से भर जाता
हर खिड़की खुली रहती
दादी आज नरम पुए बनाए हैं
दो आपके भी
अरे तेरे हाथ में जादू है
तारीफ तो कोई आपसे सीखे
बेटे बहू तो विदेश में हैं
तुम हंसती खिलखिलाती सी मेरी अपनी तो हो
पड़ोसी तो अपने होते हैं
मेरी बहू निश्चिंत है
जो बात तुझमें है किसी में नहीं
मुझमें भी नहीं
खिड़की से आम का पेड़ और वह अमरूद
वह भी तो मेरे साथी हैं
सब काम में व्यस्त हो गए
आज तुम्हारी खिड़की पर कपड़े भी नहीं थे
तुलसी के पौधे पर दीपक न था
पर्दा लगा था
कोई दिखा नहीं
डर लगने लगा था
कोरोना की आहट ने सबके घरों को खटखटा दिया है
लोग भूखे प्यासे अपने घरों की ओर भाग रहे हैं
रोटियां रेल लाइन पर बिखरी पड़ी थी
मजदूरों की लाशों से होकर
बड़ी बड़ी गाड़ियों में बड़े बड़े लोग
उम्मीद और आशाओं को कुचलते हुए निकल रहे हैं
कहीं तुम डर तो नहीं गई
मेहनती और साहसी औरत
खिड़की खोल दे
रोशनी और संगीत को आने दे
तुझसे पहले मेरा नंबर है
देख मेरा इंसुलिन भी नहीं मिला
पुऐ में चीनी भी नहीं थी
खिड़की से मेरा जीवन टिका है
ओह कहीं संक्रमण से ग्रसित तो नहीं
अलग थलग दूर कहीं पटक तो नहीं दिया
घर बंद हो गया
खिड़की भी बंद हो गई
कुहासा ही कुहासा
ऐनक का शीशा कहीं से दरक चुका था
दादी बेसुध बेसुरे बोल बोलती
बंद खिड़की भी बहुत कुछ बोलने लगी
कामवाली ने दरवाजे की चाबी खोली
उसके हाथ से इंसुलिन का इंजेक्शन गिर पड़ा
ये खिड़की भी बंद है

 

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