कवि कुंवर नारायण को पर्दे पर देखना

जयनारायण प्रसाद

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कवि कुंवर नारायण को पर्दे पर देखना, बीसवीं सदी के एक ऐसे महत्वपूर्ण हिंदी कवि की कविताओं से मुठभेड़ करना है, जिनकी कविताएं हमारे समय और संवेदना को हर क्षण रेखांकित करती रही हैं। कुंवर नारायण अभी कुछ दिनों पहले ही गुजरे, लेकिन उन पर बनी गौतम चटर्जी की 40 मिनट की शार्ट फिल्म को देखने से लगता है कि कुंवर नारायण हमारे पास खड़े अपनी कविताओं का पाठ कर रहे हैं। गौतम चटर्जी की इस लघु फिल्म का नाम है ‘अपने सामने’। अंग्रेजी में इस छोटी-सी फिल्म का नाम दिया गया है ‘फेसिंग द सेल्फ’।
‘अपने सामने’ दरअसल, कुंवर नारायण के एक महत्वपूर्ण कविता-संग्रह का नाम भी है। गणित और दर्शन-शास्त्र जैसे जटिल विषयों में पीएचडी किए गौतम चटर्जी बुनियादी तौर पर सिनेमा के आदमी हैं और कवि कुंवर नारायण से उनका चालीस सालों का स्नेहभरा संबंध रहा है। कभी लखनऊ, तो कभी दिल्ली में कवि का साबका इस संवेदनशील फिल्मकार से होता रहा है। बनारस के सांस्कृतिक माहौल में जन्मे और वहीं पले-बढ़े गौतम चटर्जी को अक्सर लगता था कि कुंवर नारायण और उनकी कविताओं को पर्दे पर उतारा जाए, सो उन्होंने 2017-18 के दौर में अपना ‘5 डी मार्क टू’ कैमरा उठाया और कवि को फिल्माना शुरू किया। यह सायास था। यही वह समय भी था, जब कवि अपनी उम्र के ढलान पर थे। इससे पहले हिंदी के एक और महत्वपूर्ण कवि श्रीकांत वर्मा पर गौतम चटर्जी लघु फिल्म बना चुके थे। दरअसल, गौतम ने डेका सीरीज-10 नाम से पांच भारतीय और पांच विदेशी कवियों पर एक-एक घंटे की ‘दस रूपक’ नामक लघु फिल्मों की श्रृंखला तैयार की हैं। इसमें हिंदी के दो वरिष्ठ कवि-श्रीकांत वर्मा और कुंवर नारायण शामिल हैं। एक श्रृंखला कवि रवींद्रनाथ टैगोर की लंबी कविता पर भी केंद्रित है। गौतम चटर्जी बताते हैं कि कुंवर नारायण वाली लघु फिल्म सिर्फ 40 मिनट की है, बाकी सभी फिल्में घंटे भर की है।


कुंवर नारायण पर बनी शार्ट फिल्म की खासियत यह है कि कवि के विभिन्न मूड की कविताओं को एक बेहतरीन और खूबसूरत कोलाज का रूप दिया गया है। कवि की एक लंबी कविता ‘नदी बूढ़ी नहीं होती’ में दृश्यों का लाजवाब संयोजन इस तरह हुआ है जैसे वे हमारे सामने हों।
करीब सवा घंटे की शूटिंग और चाक्षुष संपादन के बाद इस लघु फिल्म को पर्दे पर चालीस मिनट में समेटना हिंदी के एक बड़े कवि को सही मायने में वाजिब श्रृद्धांजलि हैं। फिल्म के आरंभ में खंडहर, बूंदों का टपकना और ट्रेन का गुजरना जैसे दृश्यों का आना अनायास नहीं है, बल्कि कवि की कविता और उनकी वाणी से तालमेल बिठाते एक चुस्त संपादन-कला की उत्कृष्ट बानगी हैं। बीच-बीच में जीवन और मृत्यु से मुठभेड़ कराते कवि के दार्शनिक-से संवाद दिलोदिमाग को उलझाते नहीं, बल्कि झकझोरते और झंकृत करते हैं !
इस लघु फिल्म में संगीत एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। पंडित किशन महाराज का तबला हो या निखिल बनर्जी का सितार या फिर निशांत सिंह का पखावज-कवि की कविता और ओजस्विता को विस्तार ही देता है। विश्वजीत रायचौधरी का सरोद भी इस लघु फिल्म की जान है और इसकी अनुगूंज काफी देर तक सुनाई पड़ती हैं।
कोलकाता के नंदन प्रेक्षागृह में हुए साउथ एशिया फिल्म महोत्सव और भारतीय भाषा परिषद में दिखाई गई यह लघु फिल्म यानी ‘अपने सामने’ कवि कुंवर नारायण की परिधि से बाहर नहीं जाती, बल्कि कवि के दायरे और उनकी ऊर्जा को विस्तार देते हुए उनके जीवन-दर्शन से हमें बखूबी रूबरू कराती हैं। फिल्मकार गौतम चटर्जी का कहना है कि निकट भविष्य में कुंवर नारायण पर दूसरा पार्ट भी बना सकते हैं। लगभग 14‌ किताबें लिख चुके गौतम चटर्जी ने मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, भारतेंदु हरिश्चंद्र और शरतचंद्र पर लघु फिल्मों की एक खूबसूरत श्रृंखला भी तैयार की हैं। इनमें कुछ बन चुकी हैं और कुछ का निर्माण जारी है। बातचीत में गौतम चटर्जी कहते हैं कि पैसे के लिए वे फिल्म नहीं बनाते। उनका कहना है कि पैसा मेरे दिमाग में कभी नहीं रहता। बेहतरीन सिनेमा के प्रति लगाव और समर्पण मुझे फिल्म बनाने को प्रेरित करता रहता है।
गौतम चटर्जी की पूंजी देशभर में फैले उनके अनगिनत शिष्य भी हैं। गौतम चटर्जी ने ‘कुहासा’ और ‘अनुबंध’ समेत चार कथा फिल्में और दस गैर कथा फिल्में भी बनाई हैं। वे आगे कहते हैं- कार्यशाला, व्याख्यान और सृजनात्मक लेखन से उनका गुजारा हो जाता है। सुकून से ठीक-ठाक और व्यवस्थित जिंदगी जीने के लिए और क्या चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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