पिछली रात की याद लेकर
चाँद
अभी भी टँगा है आकाश में !
स्वर्णिम धूप में नहाया हुआ है हुगली नदी का जल
जहाँ झिलमिलाती है तुम्हारी कंचन छवि !
दूर कहीं से वीरेंद्र कृष्ण भद्र की आवाज़ में
ध्वनित हो रहे हैं महालया के गीत
लाल पाड़ की साड़ी पहनी महिलाएँ
‘उलू ‘ ध्वनि और शंखनाद से
कर रही हैं देवी की अराधना
“एशो हे देवी ! ”
ढाकी ने ढाक बजाया
और आनंद से भर उठी हैं चारों दिशाएँ
रात भर झर-झर कर ज़मीन पर बिछे
शिऊली फूल की मधुर गंध में
घुल- मिल गयी है तुम्हारी देह- गंध !
अगरबत्ती की सुंगध से
महक रहा है हुगली का यह घाट
पितरों का तर्पण कर रहे हैं लोग
मैदानों में उत्सव मना रहे हैं
कास के लहलहाते फूल
जैसे निरुद्देश्य भागे जा रहे हों सफ़ेद घोड़े !
किनारे का बालू तुम्हारी पीठ है
जहाँ पर मैं रचता हूँ प्रेम का महाकाव्य
हुगली के छोटे टापू तुम्हारा वक्ष
जहाँ मेरे सपने पलते हैं !
नदी पर तैरता है आकाश
जिस पर मैं इंद्रधनुष रचता हूँ !
अभी-अभी
कोई नौका चला आया है धीरे से
माँझी ने गाया है कोई करुण गीत
कोई टीस
मन की उभर आई है अचानक !