उत्तर प्रदेश की राजनीति और उसकी पड़ताल करती पोस्ट पत्रकार शिल्पी सेन की फेसबुक वॉल से साभार
राजनीति में स्थाई दोस्त या दुश्मन नहीँ होते !
राजनीतिक विश्लेषण करते समय हम लोग यही कहते रहे हैं, चुनाव में देखते भी रहे हैं, एक दूसरे को कोसने वाले नेता साथ आ जाते हैं….समाजवादी राजनीति के पुरोधा मुलायम सिंह यादव पर यह बात सटीक तो है,लेकिन यह परिस्थिति कुछ अलग भी है !
आज नामांकन के वक्त पहली बार भाई शिवपाल यादव साथ नहीं रहे जबकि प्रस्तावक हमेशा शिवपाल ही हुआ करते थे ! दरअसल समाजवादी पार्टी और वर्तमान समय में इसे आगे ले जाने की जिम्मेदारी लेने वाले अखिलेश यादव के लिए यह एक नयी राह है, पर खुद मुलायम सिंह यादव को यह रास्ता कहाँ ले जायेगा कहना मुश्किल है !!!
जिस मुलायम सिंह यादव की सभाओं को कैंडिडेट की जीत की जमानत माना जाता था अब उन्ही की जीत के लिए अपील करने बीएसपी सुप्रीमो मायावती पहुँचेंगी .. ऐसा नहीँ कि जिन सभाओं में मुलायम जाते थे वहाँ कैंडिडेट जीतता ही हो पर मुलायम सिंह यादव के बारे में कहा जाता है कि वो रैली करते समय ही जान जाते (और कई बार बता भी देते थे )कि फलाँ प्रत्याशी जीतने वाला है या नहीँ …
19 अप्रैल का दिन समाजवादी सियासत का वो दिन होगा जब मैनपुरी में मुलायम के समर्थन मे एसपी बीएसपी साझा रैली करेंगे… अगर मंच पर खुद मुलायम मौजूद रहे(जो स्वाभाविक है ) तो मीडिया इस बात का विश्लेषण करेगी कि दोनों धुर विरोधी एक दूसरे से कितनी दूरी पर बैठे ..कितनी बार मंच पर मुलायम और माया ने एक दूसरे से बात की !!! क्योंकि इससे पहले जब SP – BSP साथ आये थे तब भी मुलायम के लिए कांशीराम ने साझा जनसभा नहीं की थी !
समाजवादी परिवार के झगडे के बाद भी इस परिवार के एक होने की आस रखने वाले जमीनी कार्यकर्ताओं के लिए यह एक अजीब स्थिति है ! समाजवादी पार्टी का भविष्य चाहे जिस राह पर जाये पर इस बात की आहट अब साफ़ सुनायी पड़ने लगी है कि देश के सबसे बड़े सूबे में समाजवादी सियासत को खड़ा करने वाले मुलायम सिंह यादव की राजनीति उस दिन के बाद से शायद ही पुराने रूप में आ पाये ….
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