– कृतिऋचा सिंह
एक स्त्री की आह में इतना हुंकार होता है कि जिसके लिए वो सिसक ले उस व्यक्ति एवं सत्ता का उग्र मार्तंड भी अस्त करने में प्रकृति देर नहीं करती । ऐसे ही नहीं महादेव समस्त संसार के संहार के लिए व्याकुल हुए । ऐसे ही नहीं मां सती की मनोदशा ने दक्ष के यज्ञ का सर्वनाश कराया ।
नहीं सहन था शिव के समीप नंदा का आना, नहीं कर सकी जगतजन्नी शिव के इस परिहास को क्षमा । अग्नि कुण्ड ही रहा निमित्त समस्त ब्रह्माण्ड को देना पड़ा इसका मूल्य । कैसे कर सकती थीं वागेश्वरी अधिष्ठात्री अपने अधिकार के यज्ञ में वामभाग गायत्री को ? नहीं ले सकती थीं त्याग का पारितोषिक । मूक वेदना में सीमित होगया ब्रह्म का आस्तित्व । गंगा ने भी दिया था पीड़ित मन से श्राप ।
ऐसे ही नहीं विसर्जित किया हस्तिनापुर ने अपने अस्थियों को जलप्रवाह में । ऐसे ही नही द्वारिका जलमग्न हुई ऐसे ही नहीं मिला कोई मोल राधा की सिसकियों का जिसने रुक्मिणी के अस्तित्व मात्र से कितना विछोह सहा । क्या दुःख का कोई अंत रहा होगा उन 16 हज़ार रानियों के जिनके लिए श्री कृष्ण सबके थे । हां थे पालनहार पर कौन कर पाएगा सहन बराबर के बटवारे को ? कैसे अंतस्थ से द्रौपदी ने स्वीकार किया होगा ? सरयू ने सबको सिंचित किया । ऐसे ही नहीं कितनी ही अग्निपरीक्षा मां जानकी ने दी ।
क्या दुःख रहा होगा ? कैसे उर्मिला ने स्वर्णिम दीवारों को बनाया होगा सहचरी ? अपने आहत मन को , मंदोदरी के मन पर पड़े प्रहार पर ऐसे ही नहीं ध्वस्त हुई होगी दशानन की स्वर्णिम लंका । किसने देखा होगा नागमति की आंखो से रिसते दर्द के अंगारे को ? ऐसे ही नहीं विध्वंश के नाम चढ़ा वीर राजपूताना का गौरव । आह कैसी सुंदर कांति थी ! कैसे लीलने को आतुर हो गया ? बहुत कोमल होती है परन्तु समस्त ब्रह्माण्ड को उद्विग्न करने का सामर्थ्य होता है उसमें ।
ऐसे ही नहीं बाजीराव को मनमीत से मनोवृति के मानसिक विकार मिले । ऐसे ही इतिहास नहीं बना । सर्वस्व होती है फिर भी इतिहास को निर्मित होना है। हर एक काल के चक्र को बताना है पुनः वहीं से निर्मित हुआ इतिहास । पुनः स्त्री ही रही अपने मन से आहत, निर्विकार । नहीं समझा मानव । पुनः किया वहीं कपट, दंभ, अभिमान जिसका परिणाम तय था ।
निष्कर्ष का आह्वान । फिर कहीं नारी मन हताहत हुआ । फिर इतिहास ने किया शंखनाद।। किसी के सुमेरू से मान मन का होगा अस्त । ऐसे ही नहीं होती वह निर्माता । उनके ही हाथो में होता है ध्वंस का दंड । फिर कैसे रह जाते है हर युग में अनभिज्ञ उनकी ही सिसकियों से अज्ञ हर काल के सशक्त इतिहासकार।