वाममोर्चा और तृणमूल के लिए सबक साबित हुआ चुनाव

  • सुषमा त्रिपाठी

बंगाल में एक बार फिर दीदी राज लौट आया है। जनता ने प्रचंड बहुमत देकर तृणमूल के हाथ में 5 साल के लिए अपना भविष्य सौंप दिया है। अकेले ममता बनर्जी ने विरोधियों को धूल चटा दी है और वाममोर्चा के लिए तो अब शायद यह अस्तित्व बचाए रखने की लड़ाई साबित होने जा रहा है। वाममोर्चा और काँग्रेस, दोनों को गठबंधन से बड़ी उम्मीदें थीं कि शायद वे बिहार का करिश्मा एक बार फिर बंगाल में दोहरा सकते हैं। दरअसल, यह चुनाव कई मामलों में मील का पत्थर भी साबित हो सकता है और सबक भी, सबक यह कि एक राज्य का फार्मूला दूसरे राज्य में भी चल जाए, ये जरूरी नहीं है। सच तो यह है कि वाममोर्चा ने बेहद बड़ा जोखिम लिया था और शायद यही वजह थी कि अपने सिद्धांतों के साथ कभी समझौता न करने के लिए जानी जाने वाली पार्टी ने अपने चुनाव चिन्ह के साथ भी समझौता कर लिया था। अपने साथी दलों को छोड़कर किसी भी कीमत पर गठबंधन करना वाकई पार्टी को महंगा पड़ा है क्योंकि कहीं न कहीं इससे पार्टी के समर्थकों को चोट पहुँची और उनकी सहानुभूति काँग्रेस के साथ चली गयी। राहुल गाँधी और बुद्धदेव भट्टाचार्य को एक मंच पर देखना लोगों को रास नहीं आया और जनता तक गठबंधन की अवसरवादी छवि ही पहुँची। इसके विपरीत काँग्रेस के वोट माकपा को नहीं मिले। अब ये अलग बात है कि वाममोर्चा के चेयरमैन विमान बोस गठबंधन की बात से ही इनकार कर रहे हैं जबकि सूर्यकांत मिश्र इसे बरकरार रखने की बात कर रहे हैं। देखा जाए तो इस पूरी कवायद में सबसे अधिक फायदा काँग्रेस को हुआ है और नुकसान सिर्फ माकपा को हुआ है। काँग्रेस अब 44 सीटों के साथ राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी बनने जा रही है तो दूसरी ओर वाममोर्चा महज 32 सीटों पर सिमट गया है। राज्य में भाजपा ने भी 3 सीटों के साथ अपना खाता खोल लिया है और भविष्य में पार्टी अपनी ताकत बढ़ाने की कोशिश करेगी और उसका मकसद 2019 के लोकसभा चुनावों में अपनी स्थिति मजबूत करना ही होगा। लगभग 8 लाख लोगों ने नोटा का प्रयोग किया और कई जगहों पर तृणमूल प्रत्याशियों के वोट उनके अपने ही इलाके में कम हुए हैं। तृणमूल के 8 मंत्री चुनाव हार चुके हैं जिसमें दीदी के चहेते मदन मित्रा भी शामिल हैं। इन सबके बावजूद रही बात तृणमूल की, तो आतंक के तमाम आरोपों के बावजूद कहीं न कहीं पार्टी अपने 5 साल के कामकाज और योजनाओं को भुनाने में कामयाब रही है। इसके साथ ही गौर से देखा जाए तो भाजपा के वोटों का तृणमूल के खाते में चला जाना और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का अप्रत्यक्ष समर्थन तृणमूल को सत्ता की ओर ले जाने में मददगार साबित हुआ। सत्ता सम्भालते ही दीदी ने तेवर दिखाने शुरू कर दिए हैं और चुनाव आयोग द्वारा पक्षपात के आरोपों के बाद हटाए गए राजीव कुमार एक बार कोलकाता के पुलिस कमिश्नर हैं। भारती घोष भी चुनाव आयोग के खिलाफ हाईकोर्ट जा रही हैं। भाजपा प्रत्याशी रूपा गाँगुली पर हमले हुए और विरोधियों के खिलाफ हिंसा जारी है। कई जगहों पर तृणमूल पर हमले हुए हैं, यह भी सही है मगर देखना यह है कि अब बंगाल की जनता ने जिस विश्वास के साथ ममता को चुना है, क्या उनकी सरकार उस विश्वास पर खरी उतरेंगी। अभी नारद और सारधा मामले में फैसला आना बाकी है, सरकार का भविष्य भले ही उससे तय न हो, यह भी सही है कि कई मंत्रियों की किस्मत इससे जरूर तय होगी। दरअसल, कहीं न कहीं तृणमूल और भाजपा एक दूसरे की ताकत भी हैं और जरूरत भी, दोनों ही पक्षों के लिए यह स्थिति और भी मुखर होने वाली है इसलिए दोनों ही चाहें तो एक – दूसरे को नजरअंदाज नहीं कर सकते। रही बात वाममोर्चा की तो इस करारे झटके के बाद पार्टी को सम्भलने में वक्त लगेगा, यह तय है मगर यह एक संदेश है कि पार्टी अब युवाओं को सामने लाए, तभी उसके बचने की उम्मीद है।

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