Friday, November 7, 2025
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माँ

-विजया सिंह

माँ और मेरा पुराना आपसी गुपचुप साझा है
ऐसे ही नही होतीं बेटियाँ माँ का खुला अनझिप आकाश
किनारे और बांध तोड़ती नदियाँ
अपार कष्टों के बाद भी हरियाती पृथ्वी
माँ के दुलार में आकंठ डूबी मैं बनी रही हमेशा गैर मामूली
तुमने बताया, दुनिया बेहद छोटी है तुम्हारी साड़ी में करीने से खुसी आलपिन की तरह
जो निर्मम नुकीली तो है लेकिन जिसे मुश्किल नही होता कभी भी साध लेना
इसीलिए हम साथ-साथ चले थे दुनिया साधने वह भी पापा के जाने के बाद
पापा के जाने के रूखे खुरदुरे दुःख को भी साधा हमने साथ-साथ, तुमने फिर कहा कि
कई बार न जाना आसान होता है और न भूल जाने को साध लेना
और न जाने कैसे सध जाती हैं चीजें जैसे सध जाता है जीवन और संतप्त मन
यही तो है वास्तविक ठेठ कला हम औरतों की
ये पहली बार था कि नून-रोटी के ककहरे को मैंने सीखा तुम्हारे साथ
सच कहूं तो
अच्छा नहीं लगा था, अब क्या होगा से लेकर,
रोजी-रोटी-अपना घर- पी एच डी जैसी उलझनों में रपटना
इस रपटन में भी तुम थी संग साथ
बनती गयी मेरी सबसे प्रिय सखी
बढ़ता रहा हमारा बहनापा
जानती हो माँ मैंने हमेशा माना है कि हम संग-संग ग्यारह नहीं कुल जमा एक सौ एक हैं
सशक्त और बेहतरीन
हमारा होना गलबहियाँ डाले धरती और आकाश को मिलाते सुदूर क्षितिज का होना है
तुम्हारे साथ असंभव की कगार पर खड़ा डगमगाता वह सबकुछ संभव है
संभव है अपनी बतकहियों से भर देना समूचा आकाश
संभव हैं वह वाचाल हँसी जो लगती हो कइयों को
ख़ासी नामुमकिन
संभव है स्थान और काल की परिधि का सिकुड़ जाना
संभव है अहर्निश दूरी के बावजूद पक्की करीबियत
माँ
तुम मेरा पहला और शायद अंतिम आश्चर्य हो
जिसे जब भी देखा तो लगा कि
तुम्हारे व्यक्तित्व की गली बड़ी सहज सपाट
चलती हुई आगे बायीं ओर बिल्कुल घूम गयी है
और बस थोड़ा आगे बढ़ते ही
पूरी एक दुनिया है तुम्हारे व्यक्तित्व की
ऐसा मैंने बार बार देखा है पाया है
इतनी बार बाएं और दाएं के चक्करों में घूमफिर कर भी
रह गयी हो तुम अजब अनोखी
अब भी रह गया है बाकी तुम्हारे सुभाव का तिलस्म
मेरा इस तिलस्म में लौटना
माँ
बार बार तुममें लौटना है।

 

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