महाराजा ळक्ष्मीश्वर सिंह की दो कहानियां

पं. भवतोष झा
बचपन में मैंने दो कहानियाँ सुनीं थी। एक  कहानी तो बिट्ठो गाँव से जुड़ी है, जहाँ मेरा ननिहाल है। चूँकि इस कहानी का स्रोत मेरा ननिहाल ही है और केवल तीन-चार पीढ़ी की बात है, इसलिए हो सकता है कि वह इतिहास ही  हो। आप न मानें, तो फिर उसे ‘एनेक्डोट’ रहने दीजिएगा।
ऐतिहासिक पुरुष की कहानियाँ होतीं हैं, कुछ अतिरंजित भी होतीं है, कुछ में काफी हद तक सच्चाई होती है, कोई-न-कोई इतिहास अवश्य जुड़ा होता है; उन्हें हम इतिहास में स्थान नहीं दे पाते। महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह के बारे में भी बहुत सारी कहानियाँ बूढ़े-बुजुर्ग सुनाया करते थे। अब तो वह परम्परा खतम हो गयी है। मेरे बचपन तक कहानियाँ सुनाने की बात जिन्दा थी। दरभंगा के महाराज 2,400 वर्ग मील से अधिक क्षेत्र तथा 750,000 से अधिक जनता के शासक थे। 1888ई.मे उनकी आमदनी 2,00,000 रुपये प्रति वर्ष थी। वे अक्सर कलकत्ता में रहा करते थे और अंग्रेजी सरकार पर इस बात के लिए जोर डालते रहते थे कि वह ब्रिटेन की जनता की तरह समान नागरिकता नियम भारतीय उपनिवेश के लिए भी लागू करे। वे अंगरेजों के द्वारा फैलाये गये भेद-भाव की नीति का विरोध करते थे। जब एक ही शासन के अंतर्गत भारत भी है, इंग्लैंड भी है तो जो जनाधिकार इंग्लैंड की जनता को मिली है वह भारत की जनता को क्यों न मिले। इसके लिए उन्होंने अनेक कानूनों में संशोधन भी कराया था। उन्ही की दो कहानियाँ मैंने बचपन में सुनी थी।
कहानी सं. 1- कलकत्ता में बिट्ठो का ऐसा ताशा बजबाया कि न्यूसेंस का कानून एक ही दिन में सुधर गया
बात यह हुई कि महाराज कलकत्ता में रहा करते थे। उनके पड़ोस में एक गबैयाजी का मकान था। रात में जब महाराज के सोने का समय होता तो गबैयाजी अपना सितार लेकर बैठ जाते और राग अलापने लगते। जोरों की आवाज मुहल्ले में गूँज जाती!महाराज की नींद में खलल पड़ जाती तो वे बेचैन हो उठते। भला कब तक बर्दास्त करते। उन्होंने गबैयाजी के पास अगले दिन खबर भिजबायी; आग्रह किया कि रात को ऐसा न करें। गबैयाजी नहीं माने।
फिर महाराज ने मुकदमा दायर किया। कोर्ट ने भी फैसला सुना दिया कि कोई व्यक्ति अपने मकान में कुछ भी कर सकता है। ऐसा कोई कानून नहीं है, जिससे हम उसे रोक सकें।
महाराज ऐसे ही मानवाधिकार के नियमों में सुधार लाने के लिए दिन-रात सोचते रहते थे। लंदन का कानून देखा तो उसमें एक था- न्यूसेंस लॉ। कोई व्यक्ति अपने घर में ऐसा ही काम कर सकता है ताकि उसके पड़ोसी को कोई कष्ट न हो। ‘यह कानून तो भारत में भी होना चाहिएʼ– महाराज ने ठान लिया।
सरसो-पाही के पास बिट्ठो गाँव से कलकत्ता बुलाये गये ताशा बजाने वाले
बस यहाँ से बिट्ठो गाँव की कथा आरम्भ होती है। महाराज का ननिहाल लोहना गाँव था। उससे कुछ पश्चिम बिट्ठो गाँव का ताशा बाजा बहुत नामी था। यह गाँव वर्तमान में मधुबनी जिला के पंडौल प्रखण्ड में सरसो पाही से उत्तर आधा कि.मी. पर है। छोटा गाँव है पर पुराना है। करमहे बेहट मूल के लोग यहाँ बसते हैं। महाराज राघव सिंह ने भी इस गाँव में विवाह किया था। राज परिवार से जुड़ा गाँव है। हलाँकि लक्ष्मीश्वर सिंह के समय तक इस गाँव में गरीबी बहुत थी। गाँव में बुधेश पोखरा है, जहाँ शायद कभी बौद्ध मन्दिर रहा हो, अब केवल नाम बचा है।
सारुख खाकर शास्त्रार्थ करने वाले पंडित
इसी गाँव की कहानी है कि यहाँ दो भाई विद्वान् रहा करते थे। दोनों एक से एक विद्वान्। हमेशा शास्त्रार्थ होता रहता था। यहाँ तक कि जब वे दोनो भाई चौर-चाँचर से सारुख उखाड़ने जाते थे। वही सारुख उनका और उनके परिवार का भोजन था। एक दिन राजा उस चौर के पास से गुजर रहे थे तो उन्होंने दोनों भाइयों का शास्त्रार्थ सुना। राजा ठमक गये। दोनों भाइयों को बुलाया और कहा कि हम आपको जमीन देते हैं, आप खाइए-पीजिए और शास्त्र-चिन्तन कीजिए। इन्होंने कहा कि धन आते ही विद्या लुप्त हो जाती है। सरस्वती सारुख खाकर गुजारा करने वाले को पसंद करती है। अतः हमे आपका दिया धन नहीं चाहिए। हम पर बहुत कृपा हो तो इतना भर आश्वासन दीजिए कि इस चौर-चाँचर में आपके दल का हाथी न पैठे। उसके पैठने से सारुख नष्ट हो जाता है और हमें भोजन करने में दिक्कत होती है।
तो ऐसा है वह गाँव। उस गाँव के विद्वान् ही नामी नहीं थे, ताशा बाजा भी नामी था। बल्कि आज भी उस परोपट्टा में ताशा के लिए लोग बिट्ठो गाँव को ही दौड़ लगाते हैं। ताशा एक प्रकार का मारू बाजा है- लड़ाई में सैनिकों का मनोबल बढ़ाने वाला। जब हँसेड़ी चलती थी तो यही ताशा बजाया जाता था।
यह मुगलकाल का यह वाद्ययंत्र है। मिट्टी का कस्तरा (छाँछ) बनाया जाता है लगभग एक हाथ व्यास का। यह कस्तरा ठीक वैसा ही, जैसा दही जमाने के लिए बनाते हैं। इसी कस्तरे को चमड़ा से मढ़ दिया जाता है और बाँस की दो पतली कपचियों से इसे बजाया जाता है। बजानेवाले इसे गले में लटका लेते हैं और काफी तेजी से हाथ चलाते  हुए बजाते रहते हैं। एक भी ताशा बजने लगे तो भीड़ में कान फटने लगता है। आपस में कुछ बात करना सम्भव नहीं पाता।
मिथिला में इसे बजाने वालों का दल बारात के साथ चलता है। कोई भी मांगलिक अवसर हो तो इसकी आबाज होनी चाहिए। कहा जाता है कि यात्रा के समय कोई छींक दे या अशुभ बोल तो इसकी आवाज में सब कुछ खो जाता है। यदि चार लोग भी एक साथ ताशा बजाने लगे तो दो किलमीटर तक तो आवाज जरूर गूँज जायेगी।
ताशा वाले पहुँच गये कलकत्ता
हाँ, तो महाराज ने बिट्ठो गाँव खबर भिजबायी कि ताशा बजानेवालों का एक दल कलकत्ता भेजिए। सरकार का आदेश था तो भला देर क्यों हो!। चुने हुए कुछ ताशा बजाने वाले कलकत्ता पहुँचे। महाराज के आवास पर ठहरे।कहते हैं कि जाड़े का मौसम था। जाड़े में ताशा को गरम किया जाता है, तब वह जोरों से बजता है, नहीं तो ‘मेहाएलʼ (moisturized) होता है तो आबाज फुस्स हो जाती है। बजाने वालों ने ताशा को इसे सेंकने में अपनी पूरी कला दिखायी तथा ठीक जिस समय गबैयाजी का राग-तान शुरू हुआ, उसी समय महाराज के बंगले की छत पर ताशा तड़तड़ना शुरू हुआ।
दो किलोमीटर तक खलबली मच गयी। कई अंगरेज अधिकारी के भी घर थे। वे जज साहब भी उसी आसपास रहते थे, जिन्होंने गबैयाजी के पक्ष में फैसला दिया था। सबलोग अपने-अपने घर से बाहर निकल पड़े। अनुमान है कि वे ऐसे ही निकल पड़े होंगे, जैसे भूकम्प होने पर लोग मैदान की ओर भागते हैं। पता लगाना शुरू किया कि कहाँ से आबाज आ रही है; फिर महाराज के घर पर इसे बंद कराने के लिए आदेश आने लगे; कुछ ने मनुहार की; तो कुछ ने प्रार्थना का संदेश भिजबाया।
महाराज ने कहा कि हम अपने घर पर कुछ भी करें, तो दूसरे को भला उससे क्या मतलब? यह देखिए कोर्ट का फैसला!
कहा जाता है कि वे जज साहब खुद इनके पास आये। हो सकता है कि इस बात में कुछ बढ़ा-चढाकर कहा जा रहा हो! बिट्ठो गाँव के स्रोत से मेरे पास तक यह कहानी आयी है, तो कुछ तो काव्यात्मकता होगी ही। आजकल जिसे ‘नमक-मिर्च लगानाʼ कहते हैं, उसे शिष्ट शब्दों में काव्यात्मकता कहते हैं, अतिशयोक्ति कहते हैं, अतिरंजना कहते हैं, जो एक अलंकार है।
जो हो, जज साहब खुद आये हों अथवा उनके कोई आदमी आया हो, उन्होंने मनुहार किया- अभी बंद कराइए महाराज! कल इस पर फैसला करते हैं।
आखिरकार ताशा बंद हुआ; सबने चैन पायी। दूसरे दिन जज साहब ने खुद अपना फैसला बदला और लिखा कि कोई व्यक्ति तभी तक अपने घर में मनमाना काम कर सकता है कि तक कि उस काम से पड़ोसी को किसी प्रकार की असुविधा न हो।
महाराज यही तो चाहते थे। अगले ही दिन बिट्ठो के ताशा वालों को इनाम देकर गाँव भेज दिया। इधर उस समय के देश की राजधानी कलकत्ता में इस बात की चर्चा चलने लगी। सबको यह बात पसंद आयी और तब से कानून मे ही सुधार कर लिया गया जो आज न्यूसेंस लॉ के रूप में हम देखते हैं।
कहानी संख्या 2- हम धोती-कुरता वालों की भी औकात होती है!
बात यह हुई कि महाराज कलकत्ता में रहते थे। राजा होते हुए भी कभी-कभार पंडित वेश में घूमने निकल जाते थे। आखिर थे तो ब्राह्मण पंडित घराने के ही न! सो कलकत्ता की गलियों में सैर करने निकल जाते थे। बस, साथ में एक मैनेजर टाइप का कोई आदमी वैसे ही धोती-कुरता में रहता होगा!
एक दिन इसी रूप में एक गहने की दुकान पर पहुँच गये। दुकानदार से हीरे की एक अंगूठी दिखाने को कहा। दुकानदार को विश्वास नहीं हुआ कि यह अदना-सा आदमी कुछ खरीदेगा भी; नाहक परेशान करेगा। दुकानदार ने मुँह बिजुकाकर हँस दिया। बोला तो कुछ भी नहीं, पर भाव था कि – ‘अबे! चल फूट यहाँ से! बड़ा आया है गहना देखने वाला। नाहक परेशान न कर।ʼ
फिर भी महाराज ने आग्रह किया तो उसने अनमने ढंगे से एक अंगूठी दिखाई। ये देख ही रहे थे कि उसने हाथ से झपट लिया और कहा कि क्या देख रहे हो, मोशाय! तुमि की देखछो! आपनार शक्ति देखून!
महाराज हँस पड़े। बोले कि आपकी दुकान की कितनी कीमत है- आपनार पूरो दूकानेर मूल्य कत?
दुकानदार ने मजाक में ही कुछ बोल दिया। ये तो कुछ लेने वाला है नहीं, तब तो कुछ भी बोल दो, क्या फर्क पड़ता है! फिर भी उसने दो-तीन गुना बढ़ाकर तो जरूर कहा होगा।
महाराज लौट गये और उसी मैनेजर को सरकारी वेश में भेजा- पूरे रुपये लेकर। उसने दुकानदार को थैली थमा दी और उसे दुकान से खींचकर बाहर कर दुकान में ताला जड़ दिया। इसके बाद की कोई कहानी कहने लायक नहीं है। दुकानदार दौड़ा आया महाराज के पास। माफी माँगी। महाराज थे तो बड़े दयालु वे भला किसी की पेट पर लात क्यों मारते। उन्होंने माफ कर दिया पर हिदायत दी कि आइन्दा किसी का वेश देखकर उसका मजाक मत उड़ाया करो। हम धोती-कुरता वालों की भी औकात होती है।

शुभजिता

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