उस समय की एक घटना याद आ गयी। बढ़ती बेरोजगारी और गिरते शिक्षा मूल्य को केन्द्रित कर मुझे एक व्यंग्य लिखना था और मैंने लिखा भी मगर जब वह गुप्ता जी के पास गया पढ़ने के लिए तो वह पढ़ने के बाद प्रूफ को रोककर मुझे अपने चेंबर में बुलाया और बोले- यह क्या लिख दिया? क्यों मारना चाहते हो अपने बाप को? अगर वह तुम्हारा बाप है तो मेरा मित्र भी और मैं अपने ही अख़बार में उसे भला कैसे मार सकता हूं। तुम इस कविता के कोटेशन को बदलो।
दरअसल वह कविता की पंक्तियां थीं-
ऐ मेरे बाप!
कब मरेंगे आप?
अब तक तो मैं हो जाता इंगेज
अगर करने दिया होता इंटरकास्ट मैरेज!
मैंने दलील दी-सर! यह तो कविता है, कोई हकीकत नहीं। उन्होंने कहा-चाहे जो भी हो, या तो तुम इसे बदलो या हटा दो। मैं इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता। मैंने कहा- इसे बदल देते हैं सर! फिर मैंने उसे इस तरह कर दिया-
ऐ मेरे बाप!
कितने नालायक हैं आप?
यह बदलाव देखने के बाद गुप्ता जी एक पल के लिए मुस्कुराते हुए कहा- यह कुछ हद तक ठीक है इसलिए कि महेन्द्र शंकर तुम्हारे पिता हैं, अब वे लायक हैं या नालायक, इसका आकलन तुम खुद करो, यह कहकर वह जोर से हंसने लगे और मैं प्रूफ लेकर लेजर डिपार्टमेंट में आ गया।
आदरणीय गुप्ता जी सहज, सरल स्वभाव के धनी एक कुशल मार्गदर्शक रहे। वे एक जिज्ञासु प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। एक बार का वाकया है। मैंने लस्टम पस्टम में एक ग़ज़ल की चा पंक्तियां लिखी थीं-
ये नये दौर के मसीहा हैं
एक रेशे का जाल करते हैं
रिन्द ऐसे कि देवता को भी
पेश जामे सिफाल करते हैं।
प्रूफ पढ़ने के बाद उन्होंने मुझे अपने चेम्बर में बुलाया। मै डरा सहमा हाजिर हुआ तो उन्होंने बैठने का इशारा किया। दराज खोलकर दो बिस्किट निकाल कर मुझे देते हुए बोले-जानदार है तुम्हारा यह व्यंग्य, काफी मारक है मगर एक बात बताओ, रिन्द माने क्या होता है? मैंने कहा सर! इसके माने होता है -पीने वाला। यह सुनते ही उन्होंने अपनी डायरी निकाली और उसमें इसे लिखा। चलते-चलते उन्होंने अपने पाकेट से 200 रुपये निकाल कर देते हुए कहा-लो इससे मिठाई खा लेना। मैंने कहा-सर जी! इस कालम के लिखने का पैसा तो मुझे मिलता है तो उन्होंने कहा-यह मैं दे रहा हूं, वह आफिस देता है। मैं उनकी बात सुनकर निरुत्तर हो बाहर निकल आया।
सन्मार्ग के सम्पादकीय और विज्ञापन व सर्कुलेशन तथा एकाउंट विभाग में काम करने वाले प्राय: उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान के लोग थे। विज्ञापन में रमेशचंद्र अग्रवाल, मुन्नीलाल सिंह व राजेश अग्रवाल तीन लोग ही मुख्यतया काम करते थे। सन्मार्ग विज्ञपनों के मामले में काफी धनी था क्योंकि वह नम्बर एक था। हर कर्मचारी अपने दायित्व को बखूबी समझता और उसका निर्वहन करता। गुप्ता जी का प्रोत्साहन इसमें संजीवनी का काम करता था। उन्हें अखबार का सारा हिसाब किताब जुबानी याद था। संपादकीय में रमाकांत उपाध्याय, रामखेलावन त्रिपाठी रुक्म, राधाकृष्ण प्रसाद, हरिराम पाण्डेय, अजय सिंह तोमर, मोतीलाल चौधरी, महमिया अजय, रवीन्द्र पांडेय, विमल कुमार राय, ओमप्रकाश मिश्र तथा रिपोर्टिंग में राजेंद्र उपाध्याय, राज मिठौलिया कार्यरत थे। प्रूफ सेक्शन में राजीव नयन, जे.चतुर्वेदी चिराग और पार्ट टाइमर वहशी जी। इतने ही लोगों ने अपनी मेहनत और ईमानदारी से अपने दायित्व को बखूबी निभाया और दिनों दिन सन्मार्ग प्रगति के पथ पर तेजी से आगे बढ़ता रहा। (क्रमश:)