जिथे रूत बैसाखी दी लै के आऊंदी मस्त बहारां, पा भंगड़े नचदे ने थां-थां गबरू ते मुटियारां..कनकां दी मुक गई राखी, ओ जट्टा आई बैसाखी। लो जी, एक बार फिर धमाल मचाने को आ गया है बैसाखी का त्यौहार। कल ढ़ोल-नगाड़ों की थाप पर जश्न मनाने का दिन है तो आप भी हो जाईए तैयार। बैसाखी का त्योहार हर वर्ष अप्रैल के 13 या 14 तारीख को पंजाब के साथ-साथ पूरे उत्तर भारत में मनाया जाता है। बैसाखी मुख्यत: कृषि पर्व है जिसे दूसरे नाम से ‘खेती का पर्व’ भी कहा जाता है। यह पर्व किसान फसल काटने के बाद नए साल की खुशियां के रूप में मनाते हैं। खेतों में रबी की फसल लहलहाती है तो किसानों का मन खुशी से झूम उठता है। केरल में इस त्योहार को ‘विशु’ तो बंगाल में इसे नब बर्ष के नाम से जाना जाता है। असम में इसे रोंगाली बिहू, तमिलनाडू में पुथंडू और बिहार में इसे वैषाख के नाम से पुकारा जाता है। यह दिन किसानों के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह दिन राबी फसल के पकने की खुशी का प्रतीक है। इसी दिन गेहूं की पक्की फसल को काटने की शुरूआत होती है। इस दिन किसान सुबह उठकर नहा धोकर भगवान का शुक्रिया अदा करते हंै। यही नहीं बैसाखी को मौसम के बदलाव का पर्व भी कहा जाता है। इस समय सर्दियों की समाप्ति और गर्मियों का आरंभ होता है। वहीं व्यापारियों के लिए भी यह अहम दिन है। इस दिन देवी दुर्गा और भगवान शंकर की पूजा होती है। इस दिन व्यापारी नये कपड़े धारण कर अपने नए कामों का आरम्भ करते हैं।
बैसाखी, समझो आ गई गर्मी
बैसाखी त्यौहार अप्रैल माह में तब मनाया जाता है, जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है। यह घटना हर साल 13 या 14 अप्रैल को ही होती है। सूर्य की स्थिति परिवर्तन के कारण इस दिन के बाद धूप तेज होने लगती है और गर्मी शुरू हो जाती है। इन गर्म किरणों से रबी की फसल पक जाती है। इसलिए किसानों के लिए ये एक उत्सव की तरह है। इसके साथ ही यह दिन मौसम में बदलाव का प्रतीक माना जाता है। अप्रैल के महीने में सर्दी पूरी तरह से खत्म हो जाती है और गर्मी का मौसम शुरू हो जाता है। मौसम के कुदरती बदलाव के कारण भी इस त्योहार को मनाया जाता है।
इसी दिन हुई थी खालसा पंथ की स्थापना
वर्ष 1699 में सिखों के 10 वें गुरु श्री गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज ने बैसाखी के दिन ही आनंदपुर साहिब में खालसा पंथ (Baisakhi) की नींव रखी थी। ‘खालसा’ खालिस शब्द से बना है जिसका अर्थ शुद्ध, पावन या पवित्र होता है। खालसा पंथ की स्थापना के पीछे श्री गुरुगोविन्द सिंह जी का मुख्य लक्ष्य लोगों को तत्कालीन मुगल शासकों के अत्याचारों से मुक्त कर उनके धार्मिक, नैतिक और व्यावहारिक जीवन को श्रेष्ठ बनाना था। इस पंथ के द्वारा गुरु गोविन्दसिंह ने लोगों को धर्म और जाति के आधार पर भेदभाव छोड़कर इसके स्थान पर मानवीय भावनाओं को आपसी संबंधों में महत्व देने की भी दृष्टि दी। बैसाखी कृषि पर्व की आध्यात्मिक पर्व के रूप में भी काफी मान्यता है।
ढोल-नगाड़ों की थाप पर मचता है धमाल
उत्तर भारत में विशेषकर पंजाब में बैसाखी पर्व को बड़े हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है। ढोल-नगाड़ों की थाप पर युवक-युवतियां प्रकृति के इस उत्सव का स्वागत करते हुए गीत गाते हैं, एक-दूसरे को बधाइयां देकर अपनी खुशी का इजहार करते हैं और झूम-झूमकर नाच उठते हैं। अत: बैसाखी आकर पंजाब के युवा वर्ग को याद दिलाती है, साथ ही वह याद दिलाती है उस भाईचारे की जहां माता अपने 10 गुरुओं के ऋण को उतारने के लिए अपने पुत्र को गुरु के चरणों में समर्पित करके सिख बनाती थी।
कैसे पड़ा बैसाखी नाम
वैशाख माह के पहले दिन को बैसाखी कहा गया है। इस दिन सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है, इसलिए इसे मेष संक्रांति भी कहा जाता है।